आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Thursday, October 17, 2013

विदाई की बेला में

दु:ख न पहुँचे तुम्हें
विदा की इस बेला में
इसलिए कहना नहीं चाहता कि
कितना ज्यादा दु:ख है हमको
बिना कुछ बताए ही एकाएक
तुम्हारे जाने का, दोस्त!

लग रहा कि जैसे
अभी-अभी टूटकर
अचानक ही बिखर गया हो कहीं
मन के क्षितिज के अँधेरे में  
मेरी अनुभूतियों के आकाश का
सबसे चमकदार तारा!

दु:ख यह असमय ही
आकर टूटा है सीने पर पहाड़-सा
तुम्हारे हृदय के स्पन्दन को सहसा अवरुद्ध कर
हमारे समय को आतंकित करता हुआ
और छीनकर लिए जाता हमसे
हमारे हिस्से की
तुम्हारे चेहरे पर हमेशा छाई रहने वाली
हँसी और मुस्कराहटों की बेशुमार दौलत।

मुझे पता है कि हमारा यह दु:ख
नहीं भाएगा तुमको जरा-सा भी
क्योंकि जीते-जी भी तुम्हें नहीं भाया
किसी का दु:ख कभी
इसीलिए आज सभी के सामने
अर्पित करता हूँ यह सारा दु:ख
तुम्हारी अद्यतन स्मृतियों को
और वादा करता हूँ कि
अब जब भी याद करूँगा तुम्हें
तो मेरे चेहरे पर भी मौजूद होगी
ठीक वैसी ही एक चिरन्तन मुसकान
जैसी छाई रहती थी हमेशा तुम्हारे चेहरे पर।

मेरे दोस्त,
आज विदा की इस बेला में
तुम्हारे संग गुजारे गए हर खूबसूरत लम्हे को प्रणाम!
तुम्हारी चिर-जीवंतता को प्रणाम!
तुम्हारी सरस आत्मीयता को प्रणाम!
तुम्हारी आत्मा की चिर-शान्ति की प्रार्थना के साथ

तुम्हें मेरा आत्मीय नमन एवं शत-शत प्रणाम!