आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, December 5, 2010

गज़ल

बंदिशें ढेर थीं ज़माने की,
ख़्वाहिशें हद से गुज़र जाने की।

हमने डर-डर के किया इश्क़ तभी,
रह गए याद बन अफ़साने की।

जल रही आज भी वह शमां है,
लगा उम्मीद उस परवाने की।

मोड़ना था हवा का रुख मगर,
उड़े सुन बात आंधी आने की।

बहुत कमज़ोर थी हिम्मत शायद,
राह आसान थी मयख़ाने की।

इरादे थे न चुप्पी के मगर,
बन गए शान क्यों बुतख़ाने की॥

Monday, November 15, 2010

पत्ता भर छाँव

चिलचिलाती धूप है यह
आत्माहुतियों से सेवित
अग्नि-दाहों से उपजा
जमाने भर का संचित ताप समेटे।

सामने बस पत्ता भर छांव है
सुलगते चूल्हे पर
धूमाक्रमित आँख से टपकी
आँसू की एक बूँद जैसी
निश्फल आश्वासन देती।

मेरे भष्मावशेषों को
समेटने तक के लिए भी
जरूरत भर की शीतलता न दे पाएगी
आसमान से उतारी गई
सुख की पत्ता भर छाँव यह।

Friday, November 12, 2010

पुनश्च

पुनश्च रोता हूँ
प्राप्त दुखों के लिए,
उससे भी ज्यादा
अप्राप्य सुखों के लिए।

पुनश्च हँसता-मुसकराता हूँ
प्राप्त खुशियों के लिए,
प्राप्य सुखानुभूतियों के लिए,
लेकिन शायद ही कभी खुश होता हूँ
अब तक अप्राप्त दुःखों के लिए।

अनवरत जारी रहना है
सुख-दुःख का आना-जाना
बदराए दिन में
धूप-छांव की भाँति,
यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी
कैसी विडंबना है कि
पुनश्च जारी रहता है निरन्तर
हमारा रोना-हँसना-मुसकराना,
साथ में यह भी कि
प्राप्त व प्राप्य सारे सुखों की खुशी
पल भर में ही भुलाकर
लंबे समय तक उद्यत रहता हूँ रोने को
किसी एक छोटे से दुख के लिए।

पुनश्च,
यही लगता है मुझे कि
समझ नहीं पाया शायद ठीक से
जीवन का गणित अनोखा अभी तक
दो और दो चार का जोड़ लगाते-लगाते।

Tuesday, November 9, 2010

बित्ता भर धूप

संचित यह ठिठुरन है
मौसम भर की
कंपकंपाती तन-मन।

धूप है बस बित्ता भर,
दोनों हाथ समेटने पर भी
मुट्ठी तक न गरमाए।

कैसे कटे जीवन अब?

सक्षम है धूप यह
ओस की बूँद को सुखाने की तरह
बस प्राणों को उड़ा कर ले जाने में ही।

Thursday, September 23, 2010

मच्छरों के बीच

क्या कहा जा सकता है
अगर आप आमादा हो जाएँ
रेलवे स्टेशन की खुली बेंच पर बैठकर
मच्छरों से देह को नोचवाते हुए कविता लिखने पर,

ज़ाहिर है यह कविता
वर्षों पुरानी किसी प्रेयसी की याद में
लिखी जाने वाली कोई प्रेम-कविता तो होगी नहीं,
अपने प्रियतम की वापसी के इन्तज़ार में
घर में पलक-पांवड़े बिछाए बैठी
किसी नव-व्याहता कामिनी के
ख़यालों से भी जुड़ी हुई नहीं होगी यह कविता,
यह प्रेमी-जनों की कल्पनाओं में रमे हुए
भविष्य के किसी सुनहरे सपने की कविता भी नहीं होगी,

ऐसे में लिखी जाने वाली कविता
या तो मच्छरों के अनियन्त्रित रक्त-शोषण से जुड़ी हुई होगी,
या फिर इस बात से कि इन मच्छरों से मुक्ति कैसे पाई जाय,
या फिर इस यथार्थ से जुड़ी होगी कि
मच्छर अगर हैं तो नोचेंगे ही,
फिर क्यों न इन मच्छरों की प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर
एक ही समय पर, समान रुचि से
अपनी देह को नोचवाते हुए तथा
दूसरों की देह के रक्त को चूसते हुए
जीने का कोई तरीका सीखा जाय?

जो भी हो
कुछ अलग अंदाज़ तो होगा ही
मच्छरों के बीच बैठकर
अपनी देह नोचवाते हुए लिखी गई किसी कविता का।

Sunday, August 22, 2010

विविधा

अल्हड़ता

बरसात में उफनाती
सौ-सौ बल खाती
तट-बंधों को लाँघ-लूँघ
स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ बह जाती
प्रबल प्रवाह का प्रमाद समेटे
कभी आकर्षित, कभी अपकर्षित करती
लघुजीवी नदी होती है अल्हड़ता।

प्रेमासक्ति

सारी इन्द्रियां जब
महसूस करें एक ही बात,
मन के सारे विचार जब
केन्द्रित होने लगें एक ही बिन्दु पर,
शरीर की सारी क्रियायें
उत्प्रेरित हों जब एक ही आशा में,
और वह भी किसी एक क्षण,
किसी एक दिन नहीं,
शाश्वत हो किसी के प्रति ऐसा लगाव
तभी पूर्णता को प्राप्त होती है प्रेमासक्ति।

इन्द्रधनुष

सतरंगी सपनों का स्वामी
उम्मीदों की किरणों के संग उदित होता
आर्द्रता के उद्बुदों पर तन जाता
निराशा के पंक में डूबने से बचाता
धरती से अम्बर तक जिजीविषा का सेतु सजाता
टूते छप्परों की सांसों और सूखे दरख़्तों के पीछे से भी
कितने सुंदर अहसास जगाने वाला होता है,
इन्द्रधनुष ।

Monday, August 2, 2010

जाम लगा है

मूसलाधार बारिश में
बहुत लंबा जाम लगा है
हर सड़क पर दिल्ली की,
कार में बैठे-बैठे कुढ़ो मत यार!
खाते रहो चुपचाप मूँगफली,
सुनते रहो एफ एम रेडियो पर
भीगी-भीगी रातों के गाने,
फूँककर ढेर सारा पेट्रोल
चलते रहो बस चींटी की चाल,
कभी न कभी तो
पहुँच ही जाओगे अपने मुक़ाम पर।

आक्रोश में मत कोसो
इनको, उनको,
जाम में फसने की यह बिसात तो
हम सबने मिलकर ही बिछाई है।

जाम सिर्फ दिल्ली की सड़कों पर ही नहीं लगा है,
मुसीबतों के इस दौर में
भीतर ही भीतर घुमड़कर
बरसते आँसुओं के बीच
जाम तो सीने के उन गलियारों में भी लगा है,
जिनसे गुज़रकर ही फैलती है
इन्सानी रिश्तों-नातों की ख़ुशबू
इस पूरे शहर में।

आगे बढ़ने को आतुर है
बगलगीर की राह काटता हर कोई,
दूरदर्शन चैनल की तरह
रुकावट के लिये खेद
भी नहीं व्यक्त करता,
कैसे खुश होते हैं सब के सब
बढ़ते ही बस दो गज़ आगे
जैसे ही उनको लगता है
छूट चुके हैं पीछे ही, कुछ बड़े अभागे।

जाम लगा है सोच-समझ में,
जाम लगा है हाव-भाव में,
सड़कों तक ही सिमटी रहती
गलाकाट यह खींचा-तानी
तब तो कोई बात नहीं थी,
जकड़ चुकी है यह शरीर की
हर धमनी, हर एक स्नायु को,
फँसे विचारों के वाहन हैं,
जाम-ग्रस्त मन का हर कोना,
नस-नस में अब जाम लग रहा,
इस तनाव से कैसे उबरें?
कहाँ नियन्त्रण-कक्ष बनायें?

Saturday, July 24, 2010

कैसे मान लूँ

"मान लो मित्र कि धरती गोल है।"

"कैसे मान लूँ?
जब कि मैं रोज इसकी सपाट सतह पर मीलों चलता हूँ
इसके समतल खेतों में उपजाता हूँ धान, गेहूँ,
मैं तो उसी को सच मानूँगा न
जो मुझे प्रत्यक्ष दिखता है
क्या सिद्ध कर सकते हो तुम यह बात कि धरती गोल है?"

"हाँ, वैज्ञानिकों ने तो इसे पूरी तरह से सिद्ध कर ही दिया है।"

"अच्छा चलो मान लिया।"

"यह भी मान लो मित्र कि
धरती घूमती है अपनी ही धुरी पर,"

"कैसे मान लूँ?
जब कभी नहीं दिखती यह मुझे हिलती-डुलती
क्या इसका भी कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?"

"हाँ, कैसे होते हैं दिन व रात
इसका पता लगाते-लगाते
सिद्ध कर चुके हैं वैज्ञानिक इस बात को भी।"

"अच्छा चलो इसे भी मान लिया।"

"चलो, अब इसे भी सच मान लो मित्र कि
सूरज नहीं लगाता धरती के चारों तरफ चक्कर
बल्कि पृथ्वी ही करती है सूरज की परिक्रमा।"

"यह भी अजीब बात है
एकदम प्रत्यक्ष दिख रहे सत्य के विपरीत,
जब मैं रोज ही देखता हूँ
सूरज को पूरब में उदय होते और
शाम को पश्चिम में जाकर छिप जाते
तो कैसे मान लूँ कि
सच है तुम्हारा ऐसा कहना?"

"मगर ॠतु-परिवर्तन के अध्ययनों ने
सिद्ध ही कर दिया है मित्र कि
लगभग तीन सौ पैंसठ दिनों में
सूर्य के चारों तरफ एक चिपटी कक्षा में
पृथ्वी द्वारा एक चक्कर पू्रा किये जाने के दौरान ही बनता है
धरती पर षट-ॠतुओं का संयोग।"

"अच्छा चलो इसे भी स्वीकार किया।"

"चूँकि तुमने वह सब स्वीकार कर लिया है
जो वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुका है अब तक,
अतः अब यह भी मान ही लो मित्र कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं इस धरती पर
वह एक भीरु मन की परिकल्पना मात्र है।"

"क्या इसे भी सिद्ध कर चुके हैं हमारे वैज्ञानिक?
क्या नहीं रहा अब कुछ भी अज्ञात उनके लिये?
क्या उठा चुके हैं वे सारे रहस्यों पर से परदा?
क्या नहीं रही जरूरत अब और किसी गहरे अन्वेषण की इस बारे में?
अगर ऐसा हो चुका है तो बताओ मेरे दोस्त!
मैं तुम्हारी अन्य बातों की तरह
इस पर भी विश्वास कर लूँगा और
मान लूँगा यह बात कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं।"

"सच तो वैसे यही है मित्र कि
वैज्ञानिकों ने अभी तक
ईश्वर के अस्तित्व के बारे में
कोई भी पुष्टि नहीं की है।"

"तो फिर मित्र!
ऐसा कुछ सिद्ध हो जाने से पहले
मत छीनों उन लोगों से ईश्वर रूपी सहारे की लाठी
जिनके आँसू सुखाने और
जिनके सीने की आग बुझाने के लिये
विज्ञानी इन्सानों की इस बस्ती से
किसी भी तरह के सहारे की कोई उम्मीद नहीं।“

“मित्र ! जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं
तब तक ऐसे ही संचालित होने दो
दुनिया का समस्त इन्सानी कार्य-व्यवहार,
आस्था और विश्वास की किसी डोर में बंधकर
आखिर तब तक बचे तो रहेंगे हम
इन्सानों को बस एक मशीन भर मानने से और
'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' की धारणा के सहारे ही सही
तब तक भरते तो रहेंगे हम
इन्सानियत के खाली होते जा रहे कटोरे में
एक-दूसरे के प्रति कहीं कुछ भरोसा और सहानुभूति,
भले ईशत्व के सहारे अमरत्व पाने की अभिलाषा में ही सही।"

Wednesday, June 23, 2010

मेरी प्रिय शोलयार नदी

आतिरापल्ली के झरने के पास घूमकर जब नदी के किनारे बैठा तो एस एम एस के ड्राफ्ट बोक्स में ये शब्द अपने आप सुरक्षित हो गये:-





























सतत सम्मोहित करती
बहती है वनांतर में
मेरी प्रिय शोलयार नदी,
मानसूनी हवाओं सी सरसराती,
सौन्दर्य की प्रचुरता से निज
करती स्तब्ध स्वयं प्रकृति को
पहाड़ों से उतरती अनवरत हहराती,
टकराती निरन्तर शिलाओं के वक्ष से
फिर भी लजाती-सी
लगातार इठलाती,
ढाँपती निज चिर यौवन यहाँ-वहाँ
सदाबहार वन-लतिकाओं के सुरम्य वल्कल से
मेरे उर-प्रान्गण की सतत प्रवाहिनी,
भरती जाती है नित्य
मेरे इस शिथिल तन में
अपनी अनगिन धाराओं की अनन्त ऊर्जा,
जिनकी उथल-पुथल से उठती है
कल-कल-कल
अविरल,
निश्छल,
प्रतिपल करती विह्वल,
मन करता है
यूँ ही हो तरल धवल,
मैं भी इसके संग बहूँ विकल,
इसके प्रवाह में कुटी-पिसी,
आसक्त शिला-रज सा
लहरों में घुल-मिल कर,
उर के अन्तस में छिप-छिप कर।