आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, December 5, 2010

गज़ल

बंदिशें ढेर थीं ज़माने की,
ख़्वाहिशें हद से गुज़र जाने की।

हमने डर-डर के किया इश्क़ तभी,
रह गए याद बन अफ़साने की।

जल रही आज भी वह शमां है,
लगा उम्मीद उस परवाने की।

मोड़ना था हवा का रुख मगर,
उड़े सुन बात आंधी आने की।

बहुत कमज़ोर थी हिम्मत शायद,
राह आसान थी मयख़ाने की।

इरादे थे न चुप्पी के मगर,
बन गए शान क्यों बुतख़ाने की॥