आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, August 24, 2015

घास

पहाड़ की बाढ़ में टूटकर
अपनी जगह से खिसक जाती हैं चट्टानें,
एकाएक उखड़कर बह जाते हैं
हमेशा फौज़ियों की तरह तनकर खड़े रहने वाले
बुरुंश, चीड़ और देवदारु के पेड़

मैदानी बाढ़ में पानी वेग से उमड़कर
बह जाता है नदी की धार के संग
किन्तु मिट्टी वहीं की वहीं जमी रहती है
कयोंकि उसके सीने पर बड़े - बड़े पेड़ों के बजाय
प्रेम से छितकर चिपटी होती है छोटी - छोटी घास।

मनुष्य की जरूरतों के लिए घास नहीं देती
पेड़ों की तरह लकड़ी के गट्ठे, जलावन, बुरादा
लेकिन पृथ्वी पर जीवन को बचाने के लिए घास जो करती है, वह अमूल्य है।

पेड़ भले कितने ही उपयोगी हों
लेकिन घास में ही सृष्टि की अमरता है,
पहाड़ों पर भी घास के होने पर ही
बचे रह पाते हैं पेड़ और चट्टानें
वास्तव में घास में ही पृथ्वी की जीवंतता है।

अब सवाल चाहे गाय, भैंस, बकरी से मिलने वाले दूध का हो
फसलों से मिलने वाले अनाज या तेल का हो,
मनुष्य के रंग, रूप, गुण, स्वास्थ्य को सुधारने का हो
यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि
संकरण और जीन - परिवर्तन
पहाड़ी बारिश की तरह हमें भरपूर संसाधन तो देगा
लेकिन कहीं न कहीं बहुत कुछ उजाड़ेगा भी
और अचानक ही कहीं पर सृष्टि से गायब हो सकती है
घास द्वारा धीरे - धीरे छितरकर बुनी गई अमरता।

बेहद जरूरी है कि जीवन में बची रहे नैसर्गिकता
बची रहें मात्रा में कम लेकिन स्वाद, गंध, गुणों से भरपूर
दूध तथा अनाज देने वाले पशुओं एवं फसलों की देशी नस्लें
और बचा रहे मनुष्य अपनी मौलिकता एवं विविधता के साथ
ठीक उसी तरह जैसे अभी तक धरती पर बची हुई है घास
सदियों से खेती और बागबानी के आतंक के बावजूद।

Wednesday, August 5, 2015

शिला

ऊँचे पहाड़ को दरकाती - छितराती
उतरती जल - धारा के आवेश को
थाम लेती है जब एक मजबूत शिला
सारा भार - दाब आंचल में समेट
तभी सजता है पहाड़ के सीने पर
एक सम्मोहक जल - प्रपात
और होता है नदी की राह में
 
अप्रतिम सौन्दर्य का निपात

ऊँचे झरने से हरहराकर
गिरती
है जब जल की तेज धार
किसी अभंग्य शिला की गोद में
तभी सजते हैं सुरम्य घाटी में
चारों तरफ छहरती बूँदें समेट
तरु - लताओं के स्निग्ध गात
अनगिन वर्णों के ताने वितान
होते उद्वेलित उनके पात - पात

कहीं कोई मजबूत शिला ही
 
भिड़ती है
नदी के प्रखर प्रवाह से
और मोड़ देती है
उसकी दिशा
कहीं बढ़कर थाम लेती है शिला
एँ
नदी के बहाव को दोनों किनारों से
उसे नियंत्रण में बहने के लिए मजबूर करते हुए
कहीं जमी रहती है कोई शिला
 
अडिग अहिल्या की
दंडित देह की तरह
लंबे समय तक किसी प्रबल के प्रतिरोध का प्रतीक बनी

मेरे भीतर भी मजबूती से जमी है
अचल अभंग्य विचारों की एक शिला
किसी भी ग्लेशियर के पिघलाव का
किसी भी नदी के निर्द्वन्द्व बहाव का
किसी भी ऊँचे प्रपात से टकराव का
किसी भी जलराशि के विस्तृत फैलाव का
आत्मचेतना के विरुद्ध बढ़ रहे किसी भी उन्नत दबाव का
हर क्षण सामना करने को आतुर

जीवन में सौन्दर्य भरने के लिए
जितना जरूरी
होता है 
शिलाओं का टूटकर उर्वर मिट्टी में बदलना
उतना ही जरूरी
होता है
तमाम संरचनात्मक परिवर्तनों के बीच
कहीं किसी अंतस्थ शिला का
 
मजबूती के साथ अपनी जगह पर टिके रहना।