पहाड़ की बाढ़
में टूटकर
अपनी जगह से खिसक जाती हैं चट्टानें,
एकाएक उखड़कर बह जाते हैं
हमेशा फौज़ियों की तरह तनकर खड़े रहने वाले
बुरुंश, चीड़ और
देवदारु के पेड़
मैदानी बाढ़ में
पानी वेग से उमड़कर
बह जाता है नदी की धार के संग
किन्तु मिट्टी
वहीं की वहीं जमी रहती है
कयोंकि उसके सीने
पर बड़े - बड़े पेड़ों के बजाय
प्रेम से छितरकर चिपटी होती है छोटी - छोटी घास।
मनुष्य की जरूरतों के लिए घास नहीं देती
पेड़ों की तरह
लकड़ी के गट्ठे, जलावन, बुरादा
लेकिन पृथ्वी पर
जीवन को बचाने के लिए घास जो करती है, वह अमूल्य है।
पेड़ भले कितने
ही उपयोगी हों
लेकिन घास में
ही सृष्टि की अमरता है,
पहाड़ों पर भी
घास के होने पर ही
बचे रह पाते हैं
पेड़ और चट्टानें
वास्तव में घास
में ही पृथ्वी की जीवंतता है।
अब सवाल चाहे गाय,
भैंस, बकरी से मिलने वाले दूध का हो
फसलों से मिलने वाले अनाज या तेल का हो,
मनुष्य के रंग,
रूप, गुण, स्वास्थ्य को सुधारने का हो
यह समझ लेना बहुत
जरूरी है कि
संकरण और जीन
- परिवर्तन
पहाड़ी बारिश की
तरह हमें भरपूर संसाधन तो
देगा
लेकिन कहीं न कहीं
बहुत कुछ उजाड़ेगा भी
और अचानक ही कहीं पर सृष्टि से गायब
हो सकती है
घास द्वारा धीरे
- धीरे छितरकर बुनी गई अमरता।
बेहद जरूरी है
कि जीवन में बची रहे नैसर्गिकता
बची रहें मात्रा
में कम लेकिन स्वाद, गंध, गुणों से भरपूर
दूध तथा अनाज देने
वाले पशुओं एवं फसलों की देशी नस्लें
और बचा रहे मनुष्य
अपनी मौलिकता एवं विविधता के साथ
ठीक उसी तरह जैसे
अभी तक धरती पर बची
हुई है घास
सदियों से खेती और बागबानी के आतंक के बावजूद।