आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, September 16, 2013

प्रतीक्षा (2013)

कल तक सजे थे कैसे
नख - सिख ये अमलतास के पेड़!
सोने के गहनों जैसे फूलों से ढँके,
आज ऐसा क्या हुआ जो
झड़ गए वे फूल सारे
भूमि पर बिखरे पड़े हैं!

झाँकता हर एक विदलित पँखुड़ी से
पितृ - गृह से सज - संवर ससुराल पहुँची
स्वार्थवश फिर गेह से करके प्रताड़ित
अधर में टांगी गई
उस नव - वधू का क्लान्त चेहरा
जो अभी तक प्रेम के उन्माद से उबरी नहीं है!

स्वप्न थे सारे निरर्थक
भाग्य में बस वेदनाएँ
व्यर्थ थे सब बैंड - बाजे
सात फेरे थे दिखावा
वचन कितने झूठ निकले!
निठुर कितनी सेज सुख की!
अहंकारी, क्रूर साथी,
पुरुष के वर्चस्व का ही बोलबाला
मान्यताएँ जर्जरित, सदियों पुरानी
स्वार्थ का घेरा चतुर्दिक,
रोज ताने, वर्जनाएँ,
कहाँ जाती वह अभागिन!
सह गई चुपचाप सब कुछ
पी गई सारा गरल वह
यही नारी की नियति क्या?

तनिक सा प्रतिरोध उपजा
क्रोध का भूचाल आया
पीट डाला बेरहम ने
भावनाओं की झड़ी सब भव्यता
स्वर्ण - सुमनों के दलों के पात जैसी।

आज सूनी टहनियाँ ले
घूरते हैं अमलतास
लग रहे कितने उघड़े,
उपेक्षित, उदास,
खड़े, जैसे
नव - वधू अपमानिता वह
त्यागकर सिन्दूर - गहने
अनमनी - सी जी रही अब।

गली के इन अमलतासों को
करनी ही होगी प्रतीक्षा अब
आने वाले ॠतु - परिवर्तन की
जब फिर से कर सकेंगी उनकी टहनियाँ
स्वर्णिम फूलों से अपना नख - शिख श्रंगार,
जैसे कर रही है प्रतीक्षा
वह नव - वधू अब
ससुराल - पक्ष में हृदय - परिवर्तन होने की
ताकि एक बार फिर से खिल - खिलाकर हँस सके वह
अपनी सारी संचित वेदनाएँ भुलाकर,

लेकिन संभवत: ॠतु - परिवर्तनों की तरह
अवश्यम्भावी नहीं हुआ करते हृदय - परिवर्तन।

कामना

हवाएँ यूँ भी कभी चलेंगी
मेरी कामनाओं के अनुकूल
कभी सोचा ही न था।

सहलाती परितप्त तन को
बहलाती तृषित मन को
सरसराकर गुजरतीं बदन छूकर
उस आह्लादकारी मंथर गति से
जिसे अब तक कभी महसूसा न था।

लग रहा मुझको कि जैसे
देखकर मेरी प्रबल प्रतिबद्धता को
हो गई हैं ये हवाएँ
स्वयं ही मेरे वशीकृत।

जी करे
कर दूँ सभी सांसें समर्पित
अब इन्हीं के नाम अपनी।

जी करे
भर लूँ इन्हीं को
श्वास-कोषों में संजो कर
ताज़गी ताउम्र पाने के लिए मैं।

जी करे
उड़ जाउँ इनके संग ही
अब उस क्षितिज तक
जहाँ नभ से टूट कर
टपका अभी था एक तारा
कामना की पूर्ति का बन कर सहारा।

मुरगी की चोरी (2013)

दिलबर तीन दिन से भूखा सो रहा था
आज उसे अपनी झोपड़ी के पिछवाड़े जब एक मुरगी दिखी
तो वह झट से उसे उठाकर अपनी झोपड़ी में ले आया
और उसे काटकर पकाने-खाने की तैयारी में जुट गया

तभी उस मुरगी के रखवाले
पड़ोसी दिलावर ने शोर मचाया ……

इसने मेरी सौ रुपए की मुरगी ही नहीं डकारी
यह मुरगी जो रोज दस - दस करके सैकड़ों अंडे देती
उन अंडों से आगे चलकर जो और मुरगियाँ जन्मतीं
और उन मुरगियों से भविष्य में और जो हजारों अंडे होते
फिर उनसे जो मुरगियाँ पैदा होतीं और उन मुरगियों से जो अंडे होते
उन तमाम संभावनाओं को इसने ख़त्म कर दिया है
इस दिलबर ने मेरे करोड़ों की चपत लगा दी है ……
यह दीगर बात है कि इस मुरगी ने आज तक एक भी अंडा नहीं दिया
लेकिन संभावित लाभ को नज़रंदाज भी तो नहीं किया जा सकता!

दिलावर के साथी थाने में करोड़ों की चोरी का केस दर्ज़ कराने जा रहे थे
दिलबर डरकर झोपड़ी के बाहर मुरगी लौटाने के लिए लोगों को वापस बुला रहा था

मुझे पता चला कि दिलावर पुलिस के पास
अपनी मुरगी की चोरी के कारण हुए नुकसान के आकलन के समर्थन में
देश की एक शीर्ष एवं नामी निगरानी संस्था द्वारा
संसद के समक्ष पेश की गई
एक ऐसे ही संभावित वित्तीय क्षति के मामले की रिपोर्ट को

पेश करने की तैयारी कर रहा था।