यह कलंक अब
कहाँ रखा जाए छिपा कर कि
हम आज भी मजबूर हैं
उग आने को
बज-बजाकर
सड़ी-गली काठ पर
जिस पर हर कुत्ता टांग उठाकर
शू-शू करता है हिकारत से
यह सिद्ध करता हुआ सा कि
हमारा नाम कुकुरमुत्ता ही होना चाहिए।
आजादी के इतने बरस बाद भी
नहीं सुनते हमारी कभी
डालियों पर इतराते रंगीन गुलाब
भले कितनी ही गालियाँ खा चुके हैं वे
निराला के शब्द-वाणों से बिंध-बिंधकर।
कहाँ उठाकर रखा जाए अब
यह जाहिलपन,
यह काहिली,
यह लाचारी,
यह उदासीनता,
यह प्रतिशोध की अमिट आकांक्षा,
प्रतिरोध करते-करते जब
हो चले हैं आदी हम
कुकुरमुत्ते की तरह ही जीने के।
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