आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, March 3, 2013

नया ककहरा

घर के छंद छोड़ कर आया
गलियों के नारों में खोया,
नया ककहरा सीख रहा हूँ
शब्दों के बाजार में।

परिचित अर्थ बालपन जैसे
छूट गए सब चलते-चलते,
नए अर्थ भी खोज न पाया
जटिल बिम्ब-अभिसार में।

कहा-सुनी तो बहुत हुई पर
नहीं नतीजा निकला कोई,
कुंठाओं की लाठी ताने
खड़ा रहा संसार में।

कभी जोश में होश गँवाकर
ठोस हथौड़े जैसा बहका,
कभी पिघलकर तरल द्रव्य सा
बहा किसी आकार में।

सरल नहीं था वह हो जाना
जिसकी चाह भरी थी मन में,
आँख-मिचौली चली, उम्र सब
बीती सोच-विचार में।

अब अंतिम पड़ाव पर आकर
मन दरिद्र सा कुम्हलाता पर,
खेद नहीं कुछ इसका, क्यों,
हर बाजी चली उधार में।







2 comments:

  1. वाह, वाह ! बहुत अच्छा बन पड़ा है...

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  2. बधाई उत्कृष्ट प्रयास के लिए

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