आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, August 5, 2015

शिला

ऊँचे पहाड़ को दरकाती - छितराती
उतरती जल - धारा के आवेश को
थाम लेती है जब एक मजबूत शिला
सारा भार - दाब आंचल में समेट
तभी सजता है पहाड़ के सीने पर
एक सम्मोहक जल - प्रपात
और होता है नदी की राह में
 
अप्रतिम सौन्दर्य का निपात

ऊँचे झरने से हरहराकर
गिरती
है जब जल की तेज धार
किसी अभंग्य शिला की गोद में
तभी सजते हैं सुरम्य घाटी में
चारों तरफ छहरती बूँदें समेट
तरु - लताओं के स्निग्ध गात
अनगिन वर्णों के ताने वितान
होते उद्वेलित उनके पात - पात

कहीं कोई मजबूत शिला ही
 
भिड़ती है
नदी के प्रखर प्रवाह से
और मोड़ देती है
उसकी दिशा
कहीं बढ़कर थाम लेती है शिला
एँ
नदी के बहाव को दोनों किनारों से
उसे नियंत्रण में बहने के लिए मजबूर करते हुए
कहीं जमी रहती है कोई शिला
 
अडिग अहिल्या की
दंडित देह की तरह
लंबे समय तक किसी प्रबल के प्रतिरोध का प्रतीक बनी

मेरे भीतर भी मजबूती से जमी है
अचल अभंग्य विचारों की एक शिला
किसी भी ग्लेशियर के पिघलाव का
किसी भी नदी के निर्द्वन्द्व बहाव का
किसी भी ऊँचे प्रपात से टकराव का
किसी भी जलराशि के विस्तृत फैलाव का
आत्मचेतना के विरुद्ध बढ़ रहे किसी भी उन्नत दबाव का
हर क्षण सामना करने को आतुर

जीवन में सौन्दर्य भरने के लिए
जितना जरूरी
होता है 
शिलाओं का टूटकर उर्वर मिट्टी में बदलना
उतना ही जरूरी
होता है
तमाम संरचनात्मक परिवर्तनों के बीच
कहीं किसी अंतस्थ शिला का
 
मजबूती के साथ अपनी जगह पर टिके रहना।

1 comment:

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति

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