आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, March 6, 2012

अब की होली में

अब की होली में मुझ पर
वह रंग डालना साथी
जो तन से भले उतर जाए
पर मन से कभी न उतरे।

अब तक जो रंग पड़े हैं
वैसे तो खूब चढ़े हैं
पर पिचकारी हटते ही
वे जाने किधर उड़े हैं,

अबकी होली के रंग में
साथी कुछ ऐसा घोलो
काया हो जाए निराली
नस-नस में मस्ती लहरे।

वह रंग जो फर्क मिटा दे
जो सबको गले मिला दे
उम्मीदें नई सजाए
शोषण की जड़ें हिला दे,

जिसमें हो खून-पसीना
जिससे ठंडा हो सीना
उस रंग से ही नहलाना
जो पोर-पोर में छहरे।

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