मुझे अच्छे लगे घर के सामने खिले रंगीन फूल
मेरे पास दो ही विकल्प थे इन फूलों का मजा लेने के,
पहला यह कि तोड़ लूँ उन्हें, वंचित कर औरों को उनसे
और सजा दूँ उन्हें अपने किसी प्रिय गुलदस्ते में
या लगा दूँ करीने से उन्हें अपनी प्रेयसी के शीश के जूड़े में
या फिर अर्पित कर दूँ उन्हें कहीं अपनी किसी आस्था के नाम,
दूसरा यह कि सजा दूँ ऐसे ही तमाम फूलों के सुवासित उपवन चारों तरफ
जिसमें अनुरक्त हो विचर सकें नित्य मेरी लालसाओं के प्यासे शलभ
और मिलता रहे औरों को भी इन फूलों के रस-रंग का मनचाहा सुख।
मैंने दुनिया की तमाम ऊँची दीवारों के भीतर
नित्य सजाए जा रहे गुलदस्तों और पुष्पालंकारों की ओर देखा,
मैंने दुनिया की तमाम जीवित व मृत नामचीन हस्तियों के गलों में
नित्य पहनाई जाने वाली मालाओं
और उनके हाथों में सौंपे जाने वाले पुष्प-गुच्छों की ओर देखा,
मैंने दुनिया में कारोबार के लिए नित्य इधर से उधर भेजे जा रहे
करोड़ों टन फूलों के शीतीकृत कंटेनरों की ओर देखा,
मैंने फूलों की क्यारियों में नित्य गुड़ाई-सिंचाई करते
दुनिया के करोड़ों मालियों के खुरदरे हाथों की ओर देखा,
मैंने मलयाली महाकवि अक्कित्तम की ‘चकनाचूर संसार’ कविता के
फूलों की ओर अपना काँपता हाथ पसारे मासूम बच्चे के विदलित होते सपनों को देखा,
और मैं किसी एक विकल्प को चुनने की किंकर्तव्यविमूढ़ता में हताश हो बैठ गया।
सहसा मेरे भीतर का कवि जागा
और मैं सारी दुनिया के लिए शब्दों के फूलों का वह उपवन सजाने में जुट गया
जो शायद मेरे लिए सबसे अच्छा विकल्प था,
मैंने इस उपवन को उजाड़ने वालों के खिलाफ प्रतिरोध के उपाय करते हुए
नुकीले काँटे भी उगा लिए हैं अब इन शब्द-सुमनों के चारों तरफ।
सर बहुत ही खूबसूरत कविता बधाई |ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है |
ReplyDeleteधन्यवाद, तुषार जी!
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