आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Wednesday, April 4, 2012

रुलास

बहुत दिनों से रुलास भरी थी मन में
लेकिन देह की गर्मी रोके हुए थी
आँखों के आसमान में तैरते बादलों को बरसने से,

कल अचानक तुम्हारे सान्निध्य की शीतलता में
ये बरस ही पड़े बरबस ……
और अब ये बरसते ही जा रहे हैं लगातार ……
तुम्हारे चले जाने के बाद भी ……
उस सान्निध्य की स्निग्धता को महसूस कर-कर,

मुर्दे सी ठंडी पड़ गई है मेरी देह
इस लगातार हो रही मूसलाधार बारिश में ……
और मन में भरी रुलास है कि
चुकने का नाम ही नहीं ले रही अब तो ……

पता नहीं अब किस विद्युत-स्पर्श से
गर्मी का पुनर्संचार होगा इस शीतीकृत देह में ……

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