आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Wednesday, June 6, 2012

काव्य-जगत में पसरे वर्तमान सन्नाटे को दूर करती अशोक कुमार पांडेय की कविताएं ('कथादेश' के जून 2012 अंक में प्रकाशित अशोक कुमार पांडेय के कविता-संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' पर मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा)


अभी हाल में अशोक कुमार पांडेय का कविता-संग्रह, ‘लगभग अनामंत्रित’ प्रकाशित होकर सामने आया (शिल्पायन, दिल्ली), तो लगा, जैसे आज के काव्य-जगत में पसरे वर्तमान सन्नाटे को दूर करने के लिए यही हैं इकीसवीं सदी की, पाठकों को सहज रूप से आमंत्रित करती, वे कविताएं, जिनका काफी समय से इन्तज़ार हो रहा था । आज जब हर तरफ से यह आवाज़ उठ रही है, कि कविता का धरातल खोखला हो चुका है, और इस विधा में अभिव्यक्ति का दायरा सीमित है, ऐसे में अशोक के इस कविता-संग्रह की कविताएं, कविता के मृतप्राय हो जाने की निष्पत्ति को पूरी ताक़त के साथ नकारती हुई हमारे सामने आई हैं। इन कविताओं में आज के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का बारीकी से किया गया विश्लेषण है, व्यवस्था के विद्रूप के प्रति क्षोभ है, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद के दुष्प्रभावों का नग्न चित्रांकन है तथा उसके कारण पैदा होने वाले भावी ख़तरों के प्रति आगाह करने वाला दृष्टिकोण है। अशोक की कविताओं में उपेक्षित व अलग-थलग पड़े मानव-समूहों के हक़ों की लड़ाई में मज़बूती से उनका पक्ष रखने की ललक है। वामपंथी विचार-धारा को तार्किकता के साथ परिपुष्ट करने में जुटे रहने वाले अशोक कुमार पांडेय ने अपनी सैद्धांतिक लड़ाई को इस संग्रह की कविताओं के माध्यम से दूर तक आगे ले जाने की इच्छाशक्ति व क्षमता प्रकट की है।

वैसे तो अशोक कुमार पांडेय की हर कविता अपना एक विशेष अंदाज़, अपनी एक खास शैली तथा किसी न किसी महत्वपूर्ण विषय-वस्तु को प्रस्तुत करती है, किन्तु इस संग्रह में कुछ ऐसी भी कविताएं हैं, जिन्हें पिछले दशक की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कविताओं का दर्ज़ा देकर उन्हें बार-बार उद्धृत किया जा सकता है। ऐसी कविताएं हमारा ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं और फिर अपने चमत्कारिक प्रभाव के साथ लगातार हमारे ज़ेहन में कौंधती रहती हैं। ‘गाँव में अफसर’ एक ऐसी ही कविता है। इस कविता की ‘समय का सवर्ण है अफसर/ ढाई कदमों में नाप लेता है/ गाँव का ब्रह्मांड’ जैसी पंक्तियाँ एक साथ ढेर सारे विम्ब हमारे सामने खड़े कर देती हैं। सवर्ण एवं शूद्र के भेद-भाव से त्रस्त मनुवादी सामाजिक व्यवस्था ने हमारी सामाजिक-आर्थिक क्षमताओं व संभावनाओं को हजारों सालों से पंगु बना रखा है। आज जब वह खाईं पटती दिखाई दे रही है, तो एक दूसरे किस्म का वर्गीकरण समाज को ऊँच-नीच से जकड़ता जा रहा है, विशेष कर ग्रामीण क्षेत्रों में। यह है, सरकारी अफसरों की बिरादरी का आम ग्रामीण-जनों पर बढ़ता रोब-दाब। ‘समय का सवर्ण है अफसर’ जैसी पंक्ति, इसी नए वर्ग-विभेद के बढ़ते प्रचलन की ओर इशारा करती है। कवि बड़ी खूबी से अगली पंक्तियों में ही ‘ढाई कदमों में नाप लेता है/ गाँव का ब्रह्मांड’ कह कर वामनावतार के मिथकीय आख्यान के संदर्भ को समेटते हुए ग्रामीण-समाज में अफसरों के स्थापित हो चुके वर्चस्व की ओर इशारा करता है। साथ ही यह भी इंगित करता है कि अफसरानों का काम-काज यथार्थ की ज़मीन पर नहीं टिका होता है। वह प्रतीकात्मक तथा अतिरंजना से भरा होता है। इस कविता में कवि आगे सरकारी तंत्र की निरर्थकता व निष्प्रभाविता को स्पष्ट करने के लिए बड़े ही सशक्त शब्दों में अफसरी मृग-मरीचिका का विम्ब खींचता है, ‘और फिर इस तरह जाता है गाँव से अफसर/ जैसे मरुस्थल की भयावह प्यास में/ आँखों से मायावी सागर…।’

अशोक कुमार पांडेय की कविताएं वर्तमान समय की भयावहता को बड़ी जीवंतता से प्रस्तुत करती हैं। भूमंडलीकरण व कार्पोरेट जगत के बढ़ते दुष्चक्र के बारे में उन्होंने पहले भी बहुत कुछ लिखा है। पिछले वर्ष ही उनकी पुस्तक ‘शोषण के अभयारण्य’ हमारे सामने आई थी, जिसमें भूमंडलीकरण से उत्पन्न हो रही आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों पर उन्होंने काफी विस्तार से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की ‘बाजार में जुलूस’ शीर्षक कविता में वे एक कदम आगे बढ़कर पाते हैं कि भूमंडलीकरण के फलस्वरूप तेजी से मज़बूत और व्यापक हुआ बाजार भले ही प्रकृति से सर्वग्रासी हो, किन्तु फिर भी वह सब कुछ ख़त्म नहीं कर सकता। उसके खिलाफ स्थानीय उपेक्षित समूह भी अपनी पहचान स्थापित कर प्रतिरोध में अपने पैर जमा सकते हैं, पर चला आ रहा है/ अपने जूतों की धूल से/ आसमान पर लिखता अपनी पहचान/ बाजार से बहिष्कृतों का एक विशाल जुलूस/ ऐन बाजार के सीने पर टैंक सा धड़धड़ाता/ देख रहा है भकुआया सा/ प्रकाश की गति से तेज हजार हाथियों के बल वाला बाजार।  यह उम्मीदें जगाने वाली कविता है, जो जूतों की धूल से आसमान पर अपनी पहचान लिखने की बात करती है। एक ऐसी पहचान, जो बाजारीकरण के मिटाए नहीं मिट सकती। वह तो बाजार के सीने पर चढ़कर अपनी जीत की छाप छोड़ने को सन्नद्ध है। अशोक का यह हौंसला और उनकी यह मुनादी ही उनकी कविता की ताक़त है। वे बाजारवाद के घातक परिणामों के प्रति सजग हैं और मनुष्य की आकांक्षाओं व उम्मीदों के उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों में तब्दील हो जाने को सबसे बड़ा ख़तरा मानते हैं। ‘सबसे बुरे दिन’ शीर्षक कविता में, बड़े बुरे होंगे वे दिन/ जब रात की शक्ल होगी बिल्कुल देह जैसी/ और उम्मीद की चेकबुक जैसी/ विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन/ खुशी/ घर का कोई नया सामान/ और समझौते मजबूरी नहीं, बन जाएंगे आदत/ ……… लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन/ जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!कहकर वे इसी ख़तरे की ओर इशारा करते हैं।

अशोक अपनी कविताओं के माध्यम से उस खेल का भंडाफोड़ करते हैं, जो इस वैश्विक व्यापार की आड़ में चल रहा है। कैसे संसाधनों का दोहन करने के लिए पहाड़ व जंगल निजी कार्पोरेट घरानों को सौंपे जा रहे हैं, कैसे हांसिए पर जीने वाले मानव-समूह विस्थापन की मार झेलते हुए अपने पारंपरिक जीवन-निर्वाह के सहारों से भी हाथ धो रहे हैं, कैसे जंगल के वाशिंदों को जमीन के अधिकार से वंचित रखा गया है तथा वन-संरक्षण के नाम पर कैसे वहाँ उनका अस्तित्व ही गैर-कानूनी हो गया है। कैसे विकास के नाम पर आदिवासी-समूहों को चालाकी के साथ अपने ही घर में पराया बना दिया गया है। इसी के सबब ‘इन दिनों मुश्किल में है मेरा देश’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं, जितना अभी है, कभी जरूरी नहीं था विकास/ जितना अभी हैं कभी उतने भयावह नहीं थे जंगल/ जितने अभी हैं, कभी इतने दुर्गम नहीं थे पहाड़/ कभी इतना जरूरी नहीं था गिरिजनों का कायाकल्प।

विद्रोह व संघर्ष अशोक कुमार पांडेय की कविताओं का केन्द्रीय भाव है। वे विद्रोह की भावना के शाश्वत होने में यकीन रखते हैं। अन्याय का प्रतिरोध निरन्तर जारी रहता है। हर विद्रोह को वे इसी निरंतरता की एक कड़ी मानते हैं। विद्रोही हर काल-खंड में स्वतः पैदा होते हैं। पूर्ववर्तियों से प्रेरणा लेते हुए वे व्यवस्था से संघर्ष करते हैं और अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हैं। ‘यह हमारा ही खून है’ शीर्षक कविता में वे अपने को इसी शहीदी परम्परा की एक कड़ी बताते हुए कहते हैं, हर बार धरती पर गिरा रक्त हमारा ही था/ हम ही थे रक्तबीज की तरह/ उगते हुए धरती से हर बार!  वे दिनो-दिन बढ़ते जा रहे अत्याचार व शोषण के प्रति बेचैन रहने वाले कवि हैं, लेकिन वे यह मानते हैं कि सच को दबा कर नहीं रखा जा सकता। ‘विष नहीं मार सकता था हमें’ शीर्षक कविता में वे इस बात का प्रभावशाली उल्लेख करते हैं, निकलता रहा विष/ और चटख…और गाढ़ा… और तेज/ तालियाँ बदलती गईं अट्टहासों में/ और सच खुलता गया प्याज की परतों की तरह…।’ यहाँ उनकी बचैनी और उनका आत्मविश्वास मुक्तिबोध से भी आगे बढ़कर हमें उद्वेलित करता दिखाई देता है। ‘विरुद्ध’ शीर्षक कविता में वे अन्याय के ख़िलाफ आदतन लड़ने वाले योद्धा के रूप में सामने आते हैं, लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते ख़ामोश/ लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं/ लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन/ लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तकअपने हक़ों की लड़ाई में वे किसी भी बात को दरकिनार नहीं करना चाहते, हर उस जगह थे हमारे स्वप्न/ जहाँ वर्जित था हमारा प्रवेश! (अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कारशीर्षक कविता से)

सत्ता-प्रतिष्ठान के दमनकारी स्वरूप को अशोक अच्छी तरह पहचानते हैं। कलम की ताक़त के दिनो-दिन निष्प्रभावी होते जाने की हक़ीकत भी वे पहचान रहे हैं। तभी तो ‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कारशीर्षक कविता में वे तल्ख़ी के साथ कहते हैं, हर तरफ एक परिचित शोर था/ अपराधी थे वे, जिनके हाथों में हथियार थे/ अप्रासंगिक थे वे, अब तक बची जिनकी कलमों में धार/ वे देशद्रोही, इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़/ कुच दिए जाएंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ  होंगे।’ शक्ति के सीमित होने का यह अहसास उन्हें खुद के बारे में भी होता है। इसीलिए ‘अर्जुन नहीं हूँ मैंशीर्षक कविता में वे सहजता से स्वीकार करते हैं, अर्जुन नहीं हूँ मैं/ भेद ही नहीं सका कभी/ चिड़िया की दाहिनी आँख ……।’ लेकिन फिर भी इस दमन से उत्पन्न निराशा में डूबकर वे किसी भी संघर्ष की उपादेयता को कमतर आंकने की भूल नहीं करते। तभी तो इस कविता में वे आगे कहते हैं, ‘और खुश हूँ अब भी/ कि कम से कम मेरी वजह से/ नहीं देना पड़ा/ किसी एकलव्य को अँगूठा…।’

भारत में वामपंथी आंदोलन की विफलता को भी वे महसूस करते हैं। जिस परिवर्तन को लक्ष्य बनाकर देश में क्म्युनिज़्म आगे बढ़ा, वह परिवर्तन भारत में कभी नहीं आया। ‘जो नहीं किया हमने’ शीर्षक कविता में  वे इसे सीधे-सीधे अभिव्यक्त करते हैं, लगता था साल-महीने नहीं दिन हैं बाकी कुछ और/ बदल ही जाने वाली थी दुनिया/ लाल किले पर बस फहराने ही वाला था लाल झंडा/ कि पता नहीं क्या हुआ/ दुनिया बदलने से पहले ही बदल गया सब कुछ…।’ इसी कविता में आगे, क्षमा करें आदरणीय/ अब आप इसे काले बालों की उद्दण्डता समझें/ या इतिहास की निर्ममता/ लेकिन जब याद किया जाएगा हमें/ तो सिर्फ उस बहुत कुछ के लिए/ जो नहीं किया हमने! कहकर अशोक इसका भी अहसास करा देते हैं कि हमारी निस्संगता और परिवर्तन की लड़ाई के प्रति हमारी उदासीनता ही हमें वांछित परिणामों से वंचित कर रही है। यहाँ पर वे दिनकर की, ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’ जैसी लोकप्रिय उक्ति की एक छाप छोड़ जाते हैं। उन्हें यह चुप्पी व तटस्थता निराशा भरी लगती है। तभी तो, ‘ काले कपोत’ शीर्षक कविता में, उड़ते-चुगते-चहचहाते-जीवन बिखेरते/ उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह/ हर तरफ बस/ निःशब्द-निस्पंद-निराश/ काले कपोत!कहकर वे समय के असली स्वरूप की पहचान करने के लिए एक नए सौन्दर्य-बोध की तलाश में जुटे कवि के रूप में सामने आते हैं।

अशोक की कुछ कविताएं हमें अपने अंतस्तल की हलचल से बाबस्ता कराती हुई, एक अनोखे रूप में सामने आती हैं। जैसे ऊपर से शांत पड़े सुप्त ज्वालामुखी के भीतर निरन्तर मचलते रहने वाले ख़ौफनाक लावे का ज़िक्र किया जा रहा हो। या फिर जैसे किसी गोताखोर को शीतल पानी से भरी पहाड़ी झील की पेंदी में फैले नुकीले पत्थरों की तीक्ष्णता का अहसास कराया जा रहा हो। ‘मौन शीर्षक कविता में, पानी सा रंगहीन नहीं होता मौन/ आवाज की तरह/ इसके भी होते हैं हजार रंग/ सिर झुकाए/ बही के पन्नों पर छपता अंगूठा/ एकलव्य ही नहीं होता हरदम ……’ , बुधिया में, यह दूसरी दुनिया है जनाब/ यहाँ नहीं होती सुविधा/ अठारह सालों तक/ नाबालिग बने रहने की तथा ‘ कहाँ होंगी जगन की अम्मा में’, आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले/ होती हैं अनेक भयावह संभावनाएँ… इसी प्रकार की पंक्तियाँ हैं। समाज में व्याप्त छल-कपट को अशोक बखूबी अपनी अभिव्यक्ति का निशाना बनाते हैं। उनके कविता-संग्रह की अग्र-कविता ‘लगभग अनामंत्रित’ इसी पर केन्द्रित है।, जिसमें वे पहले हमें दिखता था घुटनों तक खून और वे गले तक प्रेम में डूबे थे/ प्रेम हमारे लिए वजह थी लड़ते रहने की/ और उनके लिए समझौतों की…… तथा बाद में, उन महफिलों में हम भी हुए आमंत्रित/ जहाँ बननी थीं योजनाएं हमारी हत्याओं की! कहकर विचारधाराओं और आचरणों के इसी द्वन्द्व की ओर इशारा करते हैं। ‘एक सैनिक की मौत’ शीर्षक कविता में, अजीब खेल है/ कि वजीरों की दोस्ती/ प्यादों की लाशों पर पनपती है/ और/ जंग तो जंग/ शांति भी लहू पीती है कहकर वे अन्यायियों की आपसी मिलीभगत तथा शोषण की निरंतरता का सच सामने रख देते हैं।

अशोक की कविताओं में रूमानियत का भी अपना एक अलग अंदाज़ है। ऐसी कविताओं में एक अलग तरह की ताज़गी महसूस होती है। इनमें एकदम नई तरह की अभिव्यक्ति है, यथार्थ की चट्टान पर प्रेम की मजबूती को ठोक-बजाकर परखती हुई सी। मैं चाहता हूँ शीर्षक कविता में, मैं चाहता हूँ/ एक दिन आओ तुम/ इस तरह/ कि जैसे यूँ ही आ जाती है/ ओस की बूँद/ किसी उदास पीले पत्ते पर/ और थिरकती रहती है देर तक …’ कहकर वे थके-हारे मन को एक उत्कट जिजीविषा से भर देते हैं। जैसे निराशा के कुहासे से ढँके आँगन में धीरे-धीरे उम्मीदों की रश्मियों की उजास भर रही हो। तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश, मत करना विश्वास तथा पता नहीं कितना बची हो तुम मेरे भीतर! भी इस संग्रह की उल्लेखनीय प्रेम कविताएं हैं। बेटी से जुड़ी हुई, दे जाना चाहता हूँ तुम्हें…, सोती हुई बच्ची को देखकर तथा मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ जैसी कविताएं की मार्मिकता भी निराली हैं। ‘किस्सा उस कम्बख़्त औरत का’ शीर्षक कविता में उनका अंदाज़-ए-बयां कुछ अजीब सी मस्ती जगा जाता है, साथ ही इसका अहसास भी कि जिन्दगी में सुख और दुःख का मिलना सब कुछ अपनी सोच व मनोदशा पर ही निर्भर करता है और कोई भी बाहरी बाधा उसमें रुकावट नहीं बन सकती। इस कविता की ‘मत पूछिए क्या-क्या किया हमने/ उसकी सूनी मेज पर टिका दिए सारे टट्टू/ उसकी कलम सुनहरा चाबुक हो गई/ जकड़ दिया उसको नियमों की रज्जु से/ वह अल्हड़ पुरवा हो गई/ उसके पाँवों से बाँध दीं घड़ी की सुइयाँ/ वह पहाड़ी नदी हो गई/ और क्या करते अब इससे ज्यादा!  जैसी पंक्तियाँ स्त्री-विमर्श की दृष्टि से अभिव्यक्ति का एक नूतन प्रयोग हैं और अपने आप में बेजोड़ हैं। माँ की डिग्रियाँ’ कविता में अशोक हमें उस भावातिरेक के संसार में ले जाते हैं, जो प्रायः हमारे भीतर पुरानी धरोहरों व अपने चहेतों को याद करके पैदा होता है। लेकिन यहाँ भी वे कविता को अर्थपूर्ण बनाने से नहीं चूकते। ‘पूछ तो नहीं सका/ पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद/ इतना तो समझ सकता हूँ/ कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे/ दब जाने के लिए नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ’ कहकर वे पारंपरिक मान्यताओं व पारिवारिक दबावों के चलते आज के उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय स्त्री-समाज की मेधा-शक्ति के निष्प्रयोज्य रह जाने की विडंबना की ओर इशारा करते हैं।

‘वे इसे सुख कहते हैं शीर्षक कविता मुझे रूमानियत की अभिव्यक्ति की दृष्टि से चौकाने वाली तथा सौन्दर्य-बोध की नूतनता के लिहाज़ से अद्वितीय लगी। मेहनत-मजदूरी व गरीबी की चक्की में पिस रहे दाम्पत्य-जीवन में सेक्स के सुख का दायरा भी कितना सीमित व दयनीय होता है, इस खुरदुरी सच्चाई का अहसास दिलाती अशोक की पंक्तियाँ, प्रेम की वह सबसे घनीभूत क्रीड़ा/ जिक्र तक जिसका दहका देता था/ रगों में दौड़ते लहू को ताजा बुरूंश सा/ चुभती है बुढ़ाई आँखों की मोतियाबिंद सी/ स्तनों के बीच गड़े चेहरे पर उग आते हैं नुकीले सींग/ और पीठ पर रेंगती उंगलियों में विषाक्त नाखून/ शक्कर मिलों के उच्छ्ष्ट सी गंधाती हैं साँसें/ खुली आँखों से टपकती है कुत्ते की लार सी दयनीय हिंसा/ और बंद पलकों में पलती है ऊब और हताशा में लिथड़ी वितृष्णा/ पहाड़ सा लगता है उत्तेजना और स्खलन का अन्तराल/ फिर लौटते हैं मध्ययुगीन घायल योद्धाओं से/ अपने-अपने सुरक्षा चक्रों में/ और नियंत्रण रेखा सा ठीक बीचोबीच/ सुला दिया जाता है शिशु ……’ हमें काव्यानुभूति के एक ऐसे धरातल पर ले जाकर खड़ा कर देती हैं, जहाँ शारीरिक संसर्ग के सुखद लम्हों की याद भी वितृष्णा से भर जाती है। कितना भयावह है यह सच! कितनी वंचना से भरा है यह जीवन! अशोक की कविताई का जादू इसी प्रकार की अभिव्यक्तियों में छिपा है जो हमें उनकी कविताओं में जगह-जगह बिखरा दिखाई देता है।

लगभग अनामंत्रित अशोक कुमार पांडेय का पहला कविता-संग्रह है। लेकिन उनकी कविता की यात्रा लगभग बीस वर्ष पुरानी है। ज़ाहिर है कि युवावस्था में ही, वे काव्य-रचना के उस मुक़ाम पर पहुँच गए हैं, जहाँ से उनसे आगे ढेर सारी सार्थक, विचारपूर्ण व साहित्य के नए प्रस्थान-बिन्दु तय करने वाली कविताओं की अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें अलग-थलग पड़े, विस्थापन की मार झेल रहे तथा सत्ता-प्रतिष्ठान की दबंगई से बिल्लाए समाज के निःशक्त वर्ग की चिन्ता है। वे भूमंडलीकरण व पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न आर्थिक ध्रुवीकरण के दुष्परिणामों के बारे में पूरी तरह से सचेत है। उनके भीतर विद्रोह की चिन्गारी है। उनके शब्दों में परिवर्तन की पुकार है। इन्हीं सब कारणों से उनकी कविताएं एक नई उम्मीद जगाती हैं। वे अंधेरे में सहसा रोशनी की एक किरण बिखेर देने वाली लगती हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि अशोक की कविताएं किसी भी निराश मन में, मुट्ठियाँ भींचकर, तनकर खड़े होने की वैचारिक शक्ति भर देती हैं।

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12 comments:

  1. Achi sameeksha hai umesh sir

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  2. samiksha sarahniya hai umesh ji ne ashok ki kvitaon ki nabj ko achhi trah tahm kar smiksha ki hai-----lagbhag anamntrit par maine bhi samiksha ki hai jo 'vnash' ke isi ank me aai hai----ham sahmat hain umesh ji se----badhai!

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  3. 'लगभग अनमंत्रित' की कविताओं को जिस स्नेह-सिक्त दृष्टिपात की आवश्यकता थी वह आपकी सुंदर समीक्षा से मिलती है ! समीक्षाएं और भी आएंगी लेकिन जिन महत्वपूर्ण बिन्दुओं को यह समीक्षा उभारती है वे बिन्दु आगामी समीक्षाओं के लिए प्रस्थान बिन्दु बने रहेंगे ऐसा मुझे लगता है ! उमेश जी को मेरी ओर से हार्दिक बधाई !

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  4. वाह....उत्कृष्ट समीक्षा.....बधाई उमेश जी, अशोक......लगभग अनामंत्रित हिंदी कविता के क्षेत्र में सदैव आमंत्रित है....

    anju sharma

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  5. शानदार समीक्षा ! उमेश जी को आभार और अशोक जी को बधाई !

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  6. उमेश जी कि समीक्षा उत्कृष्ट हैं और साथ ही साथ कविता तत्व कि विस्तृत चर्चा भी करती हैं. वैसे कुछ बेहद महत्वपूर्ण कविताओ पे चर्चा न होना थोडा खला जरुर हैं. उमेश जी और अशोक जी दोंनो को हार्दिक बधाई ..

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    1. Dhanyavaad Aditya! Shikaayat jaayaj hai, kintu sameeksha vaise hi lambi ho rahi thi isaliye tamaam aur achchhi kavitaavon ka jikra chhot gaya.

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  7. संग्रह की बेहद आत्‍मीय समीक्षा की है आपने। बधाई। अशोक हमारे समय के महत्‍वपूर्ण ही नहीं बेहद जुझारु कवि हैं

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