आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, March 12, 2014

उमेश चौहान : बाल - कविताएँ

थ्री - डी सी.डी.

पंचतंत्र की थ्री - डी सी.डी. पापा से मँगवाना है।

परियों का अब गया जमाना,
राजकुमार नहीं अब आना,
रोज़ नहीं अब मिलती नानी,
भूले किस्से और कहानी,

मम्मी की सुन डाँट सहमकर मुझे रोज़ सो जाना है।
सी.डी. वाली चित्र - कथाओं से ही काम चलाना है॥

भारी ट्रॉफिक है सड़कों पर,
पैदल भी चलना है दूभर,
गलियाँ पटी पड़ीं कारों से,
खेलों में शामिल हों कैसे,

घर की बाउन्ड्री के भीतर ही दौड़ - भाग थक जाना है।
लुका - छिपी  परदों  के  पीछे  करके मन बहलाना है।।

भूल गए पकवान - मिठाई,
त्योहारों में पेस्ट्री खाई,
ब्रेक में पिज़्ज़ा, बर्गर खाया,
पास्टा ने भी वज़न बढ़ाया,

ट्यूशन पढ़ - पढ़ ऊब गया मन, टी.वी. से बहलाना है।

नई  किताबें  लाइब्रेरी  से  लेकर  अब  घर आना है॥
(2014)

मम्मी क्या होने वाला है?

गंगाजल इतना काला है।
मम्मी क्या होने वाला है?

तुम तो कहती उतर स्वर्ग से
शिव के केशों से गुजरी हैं,
ऊँचे हिम - नद का निर्मल जल
बाँहों में भरकर बहती हैं,
फिर हमने इसके पानी में
क्यों इतना कचरा डाला है?
मम्मी क्या होने वाला है?

छिड़क - छिड़ककर जिसके जल को
तुम देवों को नहलाती हो,
पूरे घर को पावन करती
अंत समय भी पिलवाती हो,
उसके जल की इस हालत पर
मेरा मन रोने वाला है।
मम्मी क्या होने वाला है?

गंगा ही क्यों सारी नदियों
को हमने गंदा कर डाला,
सूख गए गरमी के सोंते
भू - जल इतना खींच निकाला
कुँए, ताल सब सुखा दिए, अब
पीते जल बोतल वाला हैं।
मम्मी क्या होने वाला है?
(2012)

दुनिया अगर बचाना है


दुनिया अगर बचाना है तो हरियाली फैलाना है।

पेड़ों के पत्तों में होता हरा - हरा क्लोरोफिल जो
पानी, हवा, सूर्य की ऊर्जा से भोजन रच देता वो
यही अन्न के दानों, फलों, जड़ों से हमको मिल जाता
यही पत्तियाँ, चारा खाने वाले पशुओं को भाता
सबकी भूख मिटानी है तो वन औ' खेत बचाना है।
दुनिया अगर बचाना है तो हरियाली फैलाना है।।

गर्मी - सर्दी से बचने को जितने ए.सी. हीटर चलते
बस, ट्रक, कार, प्लेन, शिप, ट्रेनें चलने में जो ईंधन जलते
जितने प्लास्टिक जैसे कूड़े, कम्प्यूटर वाले सब कचरे
जल - थल - नभ को दूषित करते, इनसे कितने रोग पनपते
सबको स्वस्थ बनाना है तो पर्यावरण बचाना है।
दुनिया अगर बचाना है तो हरियाली फैलाना है।।

पेड़ हमें ऑक्सीजन देते, छाया देते, जीवन देते
पेड़ पक्षियों का घर बनते, लकड़ी, दवा, मसाले देते
पेड़ जड़ों से मिट्टी थामे, धरती का संरक्षण करते
सौरभ देते, सुषमा देते, फूलों से सुंदरता रचते
जीवन को महकाना है तो ढेरों पेड़ लगाना है।
दुनिया अगर बचाना है तो हरियाली फैलाना है।।
(2012)

एनिमेटेड रंग जमाए है

कम्प्यूटर के गेम निराले
आई - पैड, पी.सी.पी. वाले,
शुरू करो तो रुका न जाए
मम्मी कितनी डांट पिलाएँ,
भूल - भाल कर खाना - पीना
इनके संग छुट्टी भर जीना,
क्या भारत, यू.के., यू.एस..,
दुनिया को भरमाए है।
एनिमेटेड रंग जमाए है॥

टेलीविजन - कथाएँ बदलीं
फिल्मों की गाथाएँ बदलीं,
नए - नए पात्रों के चर्चे
छोटा भीमसराहें बच्चे,
आइस एजके किस्से अच्छे
लगते हैं बच्चों को सच्चे,
कृष्ण, गनेशा, हनोमान का
जादू मन को भाए है।
एनिमेटेड रंग जमाए है॥

इनसे कुछ खोया भी हमने
दादी के किस्से अब सपने,
मित्रों के भी जमघट छूटे
नाते - रिश्ते  सिकुड़ेटूटे,
खेल - कूद का समय नहीं है
जो आभासी, वही सही है,
मन न लगे पढ़ने - लिखने में
लैप - टॉप  ललचाए  है।
एनिमेटेड रंग जमाए है॥
(2012)

मस्ती

काले - काले बादल छाए।
पुरवाई संग उड़कर आए॥

जमकर बरसे मेघ सलोने
भीगे धरती के सब कोने,
रिंकू ने भी शर्ट उतारी
भीग - भीग किलकारी मारी,
सिम्मी, निम्मी, रिंकी, अख़्तर
जुटे सभी पल भर में छत पर,
दौड़ - दौड़ सारे बच्चों ने
मस्ती के परचम लहराए।
काले - काले बादल छाए।।

खेल - खेल में ही रिंकू ने
अख़्तर को थोड़ा धकियाया,
छत की रेलिंग पर लटका था
अख़्तर खुद से संभल न पाया,
नीचे जाकर गिरा जोर से
गिरते ही फिर होश न आया,
भागे सारे बच्चे नीचे
मम्मी - पापा भी घबराए।
काले - काले बादल छाए।।

अस्पताल ले जा अख़्तर को
डॉक्टर से उपचार कराया,
चोट नहीं गहरी थी उसकी
होश तभी अख़्तर को आया,
बहुत सभी पछताए बच्चे
पापा - मम्मी ने समझाया,
मस्ती बहुत जरूरी होती
लेकिन सबकी हैं सीमाएँ।
काले - काले बादल छाए।।
(2011)

 

अनमोल खजाना


दीपक बड़ा दुलारा था
दादा जी को प्यारा था,
पापा दूर शहर में रहते
सबका वही सहारा था।

दादा जी बिलकुल बूढ़े थे
वे घंटों पूजा करते थे,
खर्चे - पानी से जो बचता
एक तिजोरी में रखते थे।

उसे खोलना और बंद
करना दीपक को भाता था,
बेहिसाब रखवाली का वह
पूरा लाभ उठाता था।

रोज सुबह चुपके उससे वह
रुपए बीस चुराता था,
विद्यालय के इंटरवल में
चाट - पकोड़े खाता था।

खिला - पिलाकर उसने अपने
साथी खूब बनाए थे,
उनके संग ही आता - जाता
असल दोस्त कतराए थे।

दादा कभी भाँप ना पाए
थे दीपक की चालाकी,
जब - जब वे बीमार पड़े
उसने ही उनकी सेवा की।

लेकिन चमत्कार होते हैं
कभी - कभी कुछ जीवन में,
महाचरित्रों से मिलती है
सीख अनोखी बचपन में।

उस दिन टीचर ने कक्षा में
भावुक  हो  समझाया  था,
गाँधीजी की आत्म - कथा का
हिस्सा  एक  सुनाया  था।

गाँधी जी ने भी बचपन में
घर  के  द्रव्य चुराए  थे,
किन्तु बाद में पछताकर
बीमार पिता ढिग आए थे।

सच-सच लिखकर बता दिया
चिपटे फिर जोर - जोर  रोए,
आगे अपने कर्म - क्षेत्र में
बीज  सत्य  के  ही  बोए।

पढ़ते ही यह पाठ अचानक
दीपक का मन भर आया,
लौट शाम को घर पर उसने
दादा को  सच  बतलाया।

फूट - फूटकर दीपक रोया
दादा से माफी माँगी,
चोरी - झूठ त्यागकर उसमें
सच के प्रति निष्ठा जागी।

दादा जी ने विह्वल होकर
उसे  प्यार  से  दुलराया,
थमा तिजोरी की चाभी फिर
बड़ा  मनोबल  उकसाया।

एक पाठ की एक सीख ने
दीपक का जीवन बदला,
शिक्षा का अनमोल खजाना
करता सबका सदा भला।
(2011)


डॉगी


मेरे घर में डॉगी है,
थोड़ा - थोड़ा बागी है।

अंग्रेजी में बातें करता,
हिन्दी सुनते ही गुर्राता,
दाल - पनीर देखकर बिचके,
मटन - चिकन झट चट कर जाता
पापा ने ला डाला इसके
पट्टा एक गुलाबी है।
मेरे घर में डॉगी है॥

मेरे संग फुटबाल खेलता
खुश हो - होकर पूँछ हिलाता,
किन्तु बड़े जोरों से भूँके
कोई अजनबी जब घर आता,
पूर्व परिचितों के प्रति लेकिन
यह असीम अनुरागी है।
मेरे घर में डॉगी है॥

नाम रखा हैबूजोइसका
संकर नस्ल रंग भूरा सा,
घर की रखवाली में तत्पर
हल्की आहट सुन उठ जाता,
आया जब से है यह घर में
बिल्ली घर से भागी है।
मेरे घर में डॉगी है॥
(2011)

चिड़ियाँ

चिड़ियाँ कितनी प्यारी हैं,
मुझको सुबह उठाती हैं,
मुरगी बोले कुकड़ू - कुकड़ू
कोयल गीत सुनाती हैं।

तोता बोली रटता है,
चोरों को डर लगता है,
छत के ऊपर बैठा कौआ
सबका स्वागत करता है.

सबसे सीधी मैना है,
आँगन में इठलाती है,
गौरैया भी खूब फुदकती
हर बच्चे को भाती है.
(2011)

बेटी की याद

आ जा, प्यारी गुड़िया, आ जा, पापा तुझे बुलाते हैं,
आँखों से यादों के आँसू झर - झर झरते जाते हैं।

कहाँ गयी वह सुभग सलोनी छोटी सी गुड़िया मेरी,
कभी हँसाती, कभी रुलाती, बातें करती बहुतेरी।

कभी दौड़ती 'उषा' बनकर, कभी रूठ भी जाती थी,
कभी क्रुद्ध बदला लेने को चांटा एक जमाती थी।

आफिस से घर पहुँचूँ जब भी दौड़ लिपटती थी मुझसे,
'पापा आए', 'पापा आए', घर को भरती कलरव से।

बिछुड़ गए दिन सुख के सारे गुड़िया तेरे जाते ही,
अब तो यादें औ' आँसू ही मिलते हैं घर आते ही।

'डैडी' की तुतली बोली का भ्रम होता जब भी घर में,
फूट - फूट जी भर रोता हूँ बियाबान सूने घर में।

वह नकली छोटी गुड़िया तुम जिसे रोज नहलाती थी,
तोड़ - तोड़ कर हाथ - पैर सब अपने संग सुलाती थी।

रखी हुई है यहीं मेज पर प्रतिपल मुझे चिढ़ाती है,
और तुम्हारी छतरी वाली फोटो खूब रुलाती है।

'टा - टा' करके चली गयी तुम मेरी बगिया सूनी कर,
निठुर देश के एकाकीपन की पीड़ा को दूनी कर।

बच्चों का वह पार्क तुम्हारे बिन सूना ही रहता है,
और न कोई अब खिड़की से 'ख्याति-ख्याति' कहता है।

मेरी गुड़िया कब आयेगी, मेरी गोद समायेगी?
अपनी कोमल अँगुलियों से मेरे नैन सुखायेगी?
(1988)

लालची चाचा

चाचा - चाची एक बार बाजार गए सज-धजकर,
सब्जी - मंडी के भीतर चाचा रुक गए ठिठककर
गोल - गोल तरबूज वहाँ बिकते थे सुंदर - सुंदर,
कभी न देखे थे चाचा ने, लगे परखने बढ़कर।

सब्जी वाले से चाचा ने पूछा, “यह क्या भाई?
हाथी का अंडाकह करके उसने बात बनाई।
ऐसा सुनकर चाचा जी को अचरज हुआ भयंकर,
खुशी - खुशी चाची से बोले, “चीज बड़ी यह सुंदर!

चलो इसे ले चलकर घर में सेवा खूब करेंगे,
कुछ दिन में जब बच्चा होगा, खिला-पिला पालेंगे।
नहीं किसी के घर में ऐसा होते अब तक देखा,
बड़े खुशी होंगे सब बच्चे, राजू, सनी, सुरेखा।”

सब्जी वाले ने चाचा को जमकर मूर्ख बनाया,
काफी  पैसे  ले उसने पूरा तरबूज थमाया।
बोला, “चाचा! इसे राह में फटने कहीं न देना,
किसी जगह पर इसे जोर से नीचे मत रख देना।”

सहमे - सहमे चाचा उसको चले हाथ में लेकर,
डरते थे वह फूट न जाए कहीं जोर से दबकर।
बीच राह में बड़े जोर की प्यास लगी चाचा को,
नीचे रखकर उसे मिटाने गए दूर कुछ चलकर

पास एक झाड़ी थी जिसमें एक स्यार था रहता,
चाचा के डर से वह भागा खुरखुर - गुरगुर करता।
समझा चाचा ने कि फट गया शायद उनका अंडा,
भाग रहा हाथी का बच्चा, सोच उठाया डंडा।

दौड़े  चाचा उसे  पकड़ने पास  घना जंगल था,
घुसे उसी में नहीं चैन अब उन्हें एक भी पल था।
खड़ी रह गईं चाची करतीं मना उन्हें जाने से,
किन्तु न माने चाचा दौड़े जिद अपनी ठाने - से।

जंगल में चाचा को पाकर एक भेड़िया आया,
पकड़ मार डाला चाचा को पेट फाड़कर खाया।
फँसे मूर्खता में निज चाचा बुद्धि न उनको आई,
झूठे लालच में फँस करके अपनी जान गँवाई।
(1983)

किसान की पत्नी

बड़े सवेरे निज बिस्तर से जल्दी - जल्दी  उठकर,
चौका, बासन और बुहारू करती है झुक - झुककर।

वह किसान की प्यारी पत्नी, खेतों  के  राजा  की,
उसको सुख मिलता है श्रम से, काम  न  रखती  बाकी।

घर की गायों औ भैंसों को चोकर  दे  दुह  लाती,
रामू, श्यामू को नहलाकर ताजा दूध पिलाती।

चुल्हे की लकड़ी चुन लाती खुद बागों  में जाकर,
चारे का सामान जुटाती बथुआ, घास  निराकर।

गायों औ' भैंसों का गोबर घूरे  तक  पहुँचाती,
कभी थोपकर उसको कंडे, उपले  खूब  बनाती।

उसका पति बैलों को संग ले तड़के   ही   चल  देता,
नह, बह के आदेश सुनाकर धरती  में  हल  देता।

प्यारी पत्नी मोटी - मोटी रोटी  नित्य  पकाती,
खेतों में जा थके हुए निज पति को खूब खिलाती।

पति के दुःखते पाँवों को वह नित रख गोद दबाती,
आँचल डुला - डुलाकर उसके श्रम  का  नीर सुखाती।

कभी - कभी वह पति के पीछे दाने  बोने  जाती,
मर्यादा की कठिन डोर से बँधी  हुई  इतराती।

शाम  सुनाती  लोरी, रामू, श्यामू को दुलराती,
पति परमेश्वर की बाँहों में दुबक कहीं सो जाती।

कभी - कभी पति का गुस्सा भी थोड़ा सहना  पड़ता,
उसकी बेढंगी बातों से क्लेश बहुत ही बढ़ता।

पर सब चुपके से सह जाती, कभी  नहीं  वह  रोती,
सबको खुश रखती, घर भर में बीज  प्यार  के  बोती।
(1982)





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