भारतीय संविधान के अनुसार बाज़ार का विषय राज्यों
की सूची में आता है और उसके तहत बाज़ार के विनिमयन के लिए राज्य सरकारें ही कानून
बना सकती हैं। आज़ादी के पश्चात शुरूआती दशकों में देश में कृषि के बाज़ार को सुव्यवस्थित
करने की दिशा में पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए। विभिन्न राज्यों के ग्रामीण इलाकों
में स्थानीय हाट बाज़ार लगते थे जिनकी व्यवस्था पुराने ज़मीनदारों, निजी संस्थाओं
आदि के नियंत्रण में रहती थी। शहरों में कृषि उत्पादों के बड़े थोक बाज़ार भी थे जहाँ
गांवों के हाट -
बाज़ारों से बिचौलियों द्वारा लाए गए उत्पाद बिका करते थे। 1972-73
में केन्द्र सरकार ने कृषि - उपज के बाज़ारों को सुव्यवस्थित
करने के उद्देश्य से एक योजना प्रारम्भ की जिसके अन्तर्गत देश में थोक विनयमित
मंडियों की स्थापना पर बल दिया गया। 1977-78 में लघु व सीमांत किसानों की कृषि
उपज के विपणन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से केन्द्र सरकार द्वारा ग्रामीण
प्राथमिक मंडियों की स्थापना की एक योजना भी लागू की गई। तत्पश्चात् 1988-89
में इन दोनों योजनाओं को मिलाकर कृषि उपज मंडियों के विकास की एक संशोधित योजना
लागू की गई जिसके अंतर्गत विभिन्न राज्यों में लगभग 3650 मंडियों की स्थापना की
गई। इन सभी मंडियों में कृषि उपज के विपणन के लिए आवश्यक संरचनात्मक सुविधाओं के
विकास पर बल दिया गया और केन्द्रीय योजना के तहत इन मंडियों में नीलामी के प्लेटफार्म,
दुकानें, भंडार - गृह, वाहनों की
पार्किंग आदि की सुविधाएँ विकसित की गईं। इस प्रकार धीरे - धीरे पूरे देश में
विनियमित कृषि - उपज मंडियों की एक व्यापक प्रणाली स्थापित
हुई। वर्तमान में देश में लगभग 6680 थोक कृषि - उपज मंडियाँ
तथा 21600 से अधिक ग्रामीण प्राथमिक मंडियाँ संचालित हो रही हैं। इन मंडियों के विनिमयन
के लिए विभिन्न राज्यों द्वारा कृषि - उपज विपणन विनिमयन
संबंधी अधिनियम लागू किए गए और इस प्रकार देश के अधिकांश राज्यों में कृषि -
उपज का व्यापार इन राज्य कानूनों के तहत विनिमयन के दायरे में आ
गया।
देश में कृषि - उपज मंडियों के विकास का यह सारा कार्य बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से नहीं
हुआ और अलग - अलग राज्यों ने इन्हें अपने - अपने तरीके से
क्रियान्वित किया। इससे पूरे देश में कृषि - विपणन के
क्षेत्र में अनेक विषमताएँ पैदा हो गईं। कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा
आदि में मंडियों की उपलब्धता काफी बेहतर है
और किसानों को अपने उत्पादों की बिक्री के लिए बहुत दूर - दूर तक नहीं जाना पड़ता
है। किन्तु ऐसे भी राज्य हैं जहाँ ऐसी विनियमित कृषि - उपज
मंडियों की संख्या काफी सीमित है। ऐसे राज्यों के किसान आज भी अपने उत्पादों की
बिक्री के लिए स्थानीय हाट बाजारों अथवा बिचौलियों के ऊपर ही निर्भर रहते हैं।
देश की अधिकांश विनियमित थोक कृषि - मंड़ियों में विपणन की
मूलभूत सुविधाओं का नितांत अभाव है। अनेक मंडियों में खुली नीलामी के प्लेटफार्मों
के अलावा अन्य कोई भी आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। मंडियों में कृषि -
उत्पाद की इलेक्ट्रॉनिक माप - तौल के उपकरण,
वाहनों की तौल के लिए वे-ब्रिज तक भी नहीं हैं। किसानों के न बिक
पाने वाले माल को अथवा व्यापारियों द्वारा खरीदे गए उत्पादों को सुरक्षित रखने के
लिए आवश्यक भण्डारण की सुविधाएँ भी अधिकांश मंडियों में नहीं हैं। शीघ्रक्षयी
कृषि उत्पादों जैसे फलों व सब्जियों के भण्डारण की सुविधा तो बहुत ही सीमित है।
ऐसी स्थिति में गल्ले की मंड़ियों में तो भले ही कुछ हद तक किसानों तथा व्यापारियों
को अपनी उपज की साफ-सफाई करने, उसे सुखाने
आदि की सुविधाएँ मिल जाती है, किन्तु फलों तथा सब्जियों
आदि की ग्रेडिंग तथा उनके रख-रखाव एवं सही ढंग से हैंडलिंग का काम बिल्कुल नहीं
हो पाता है। इसी कारण से इन उत्पादों का काफी हिस्सा बिक्री होते - होते ही खराब हो जाता है। सफाई, ग्रेडिंग आदि के
अभाव में किसानों को उनका सही मूल्य भी नहीं मिल पाता। समुचित पैकेजिंग की सुविधाएँ
न होने के कारण भी फलों तथा सब्जियों का व्यापक नुकसान होता है। इन उत्पादों को
शीतीकृत करके उचित रूप में भंडारित किए जाने की सुविधाएँ भी बहुत ही कम मंडियों
में हैं। अत: किसान इन्हें मंडियों में लाकर दिन समाप्त होने के पहले औने - पौने
दामों पर बेचने के लिए मजबूर हो जाता है, क्योंकि वह अपने
उत्पाद को वापिस घर तक ले जाने का जोख़िम नहीं उठा सकता और उसका खर्च भी वहन नहीं
कर सकता।
भारत में कृषि-उपज का विपणन
मुख्य रूप से निजी क्षेत्र के व्यापारियों के माध्यम से होता है। एक अनुमान के
अनुसार देश में लगभग बीस लाख थोक व्यापारी तथा पचास लाख खुदरा व्यापारी कृषि-उपज
के व्यापार में संलग्न हैं। संविधान के अनुसार विपणन राज्य सरकारों का विषय है और
तदनुसार कृषि-विपणन राज्यों द्वारा बनाए गए मंडी-कानूनों के तहत संचालित होता है।
इन कानूनों के अनुसार राज्यों ने अपने कृषि-क्षेत्रों को भिन्न-भिन्न
मंडी-क्षेत्रों में बाँटा हुआ है, जिनके भीतर विपणन-प्रणाली का
विनिमयन सम्बन्धित मंडी-समितियों द्वारा किया जाता है। इस प्रकार देश के
अन्तर्राज्यीय स्तर पर कारोबार करने वाले थोक व्यापारियों तक को कृषि-उपज की खरीद
के लिए केवल सरकार द्वारा नियंत्रित मंडियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। उन्हें
किसान से कोई भी उत्पाद खरीदने के लिए सम्बन्धित क्षेत्र की मंडी-समिति से लाइसेंस
लेना पड़ता है। यदि एक थोक व्यापारी को किसी प्रदेश की अनेक मंडियों में या अन्य
राज्यों की विभिन्न में मंडियों खरीद करनी हो तो उसे हर मंडी-समिति से अलग-अलग
लाइसेंस लेना पड़ता है। मंडी-समितियों में स्थानीय व्यापारियों का वर्चस्व होता है,
अतः बाहर के व्यापारियों को उनसे लाइसेंस प्राप्त करना आसान नहीं होता। यदि दिल्ली
के किसी व्यापारी को नासिक के किसानों से प्याज खरीदना है या नागपुर से संतरा तो
उसे इसके लिए स्थानीय लाइसेंसी पर निर्भर होना पड़ता है या फिर आजादपुर मंडी में
प्याज लाने वाले किसानों के कमीशन-एजेन्ट पर। अनेक राज्यों में फलों व सब्जियों की
विनियमित मंडियों की संख्या भी काफी सीमित है और उनका कार्य-क्षेत्र बहुत ही
व्यापक। ऐसी मंडियों तक किसानों के लिए अपने उत्पाद ले जाना ही असंभव है। इस
प्रकार मौजूदा व्यवस्था में देश में कृषि-विपणन के सुविधा-विहीन व निहित स्वार्थ
वाले छोटे-छोटे साम्राज्य स्थापित हो गए हैं जिनके तहत संचार-माध्यमों एवं
गैर-कृषि विपणन-श्रंखला के व्यापक विस्तार के बावजूद, एक तरफ तो किसान अपनी उपज का
बेहतर मूल्य पाने के लिए दूर-दूर तक फैले उपभोग-क्षेत्र के व्यापारियों या
खाद्य-प्रसंस्करण उद्यमियों से सीधे जुड़ नहीं पाता और दूसरी तरफ किसानों तक सीधी
पहुँच न बन पाने के कारण ऐसे अन्तर्राज्यीय थोक-व्यापारी अथवा खाद्य-प्रसंसकरण
उद्यमी शीघ्रक्षयी कृषि-उत्पादों की पूरी आपूर्ति-श्रंखला को मजबूत बनाने के लिए जरूरी
अवस्थापना-सुविधाओं के विकास के लिए आवश्यक पूंजी-निवेश करने के लिए भी आगे नहीं आ
सकते।
देश में जैसे-जैसे
बागवानी-विकास पर जोर दिया गया और किसानों के बीच फलों और सब्जियों की खेती के
बारे में तकनीकी ज्ञान का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे देश के अनेक इलाकों में विशेष
प्रकार के फलों अथवा सब्जियों की खेती का काफी विस्तार हुआ है। राष्ट्रीय बागवानी
मिशन तथा पूर्वोत्तर भारत में बागवानी-विकास की कृषि-मंत्रालय की योजनाओं ने इस
दिशा में एक बड़ा योगदान दिया है। इससे देश में फलों तथा सब्जियों के मार्केटिंग
सरप्लस में अच्छी-खासी वृद्धि हुई है। लेकिन जलवायु व विशेष परिस्थितियों के चलते
भारत में अनेक प्रमुख फलों व सब्जियों के उत्पादन-क्षेत्र प्राय: किसी विशेष
भू-भाग तथा किसी विशेष मौसम तक ही सीमित हैं। अतः यदि विभिन्न कृषि-उत्पादों की
आपूर्ति उनके उत्पादन-क्षेत्रों के बाहर पूरे देश में तथा पूरे साल उचित मूल्य पर
होनी है तो देश में इन जिन्सों के संभरण, संरक्षण, भंडारण तथा खुदरा विक्रय-केन्द्रों
तक आपूर्ति की एक मजबूत श्रंखला का विकास होना जरूरी है। साथ ही जल्द खराब होने
वाले उत्पादों के लिए समुचित शीत-श्रंखला की स्थापना भी जरूरी है, ताकि फसल-तुड़ाई
के वक्त से लेकर धुलाई व पैकिंग, परिवहन, भंडारण, वितरण आदि की पूरी अवधि के लिए
इन्हें समुचित तापमान पर बिना खराब हुए रखा जा सके। लेकिन उत्पादन तथा मार्केटिंग
सरप्लस बढ़ने के साथ-साथ इन जिन्सों की विपणन-श्रंखला में समुचित परिवर्तन न हो
पाने की वजह से ही आज एक तरफ तो किसान को अपनी लागत तक निकाल पाना मुश्किल है और
दूसरी तरफ उपभोक्तागण खुदरा-बाज़ार में इन्हें मनमाने दाम पर खरीदने के लिए मजबूर हैं।
आज की परिस्थितियों में जब अन्य क्षेत्रों में बाज़ार बहुत तेजी से विकसित हो रहा है और पिछले दो दशकों में आकार में कई गुना बड़ा हो चुका है, तो ऐसे में कृषि - उत्पादों के विपणन के विनिमयन के ये कानून कृषि - उपज के बाजार के विकास में केवल एक बाधा के रूप में ही नजर आते हैं। इन कानूनों का सीधा प्रभाव यह पड़ा है कि कृषि मंडियाँ एकाधिकारपरक हो गई हैं| अधिकांश मंडियों में किसानों का ध्यान रखने वाले लोगों की कोई भूमिका नहीं है। अनेक राज्यों में मंडी समितियों का निर्धारित समय पर न तो चुनाव होता है और न ही किसानों के प्रतिनिधि मंडियों के प्रबंधन में भागीदार बन पाते हैं। प्राय: ऐसी मंडी समितियाँ आढ़तियों व व्यापारियों के चंगुल में ही फंसी रहती हैं और मंडी के प्रबंधक व कर्मचारी भी उनसे सांठ - गांठ करके किसानों के हितों की सुरक्षा करने से दूर ही रहते हैं। इन परिस्थितियों में किसान अपनी उपज को बेचने के लिए इन्हीं बिचौलियों पर ही आश्रित बना रहता है और न वह अपने माल की खुली नीलामी करा पाता है और न ही व्यापारी वर्ग खुली नीलामी के माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य पर उसका माल खरीदने को तैयार होता है। वर्तमान बहुस्तरीय बिचौलियों वाली विपणन - व्यवस्था में हर स्तर पर प्राप्त विक्रय मूल्य का कुछ हिस्सा ऐसे बिचौलियों के लाभांश में चला जाता है जिसका सीधा प्रभाव यह होता है कि एक तरफ तो किसान को अपनी उपज के लिए कम मूल्य पर ही संतोष करना पड़ता है तथा दूसरी तरफ अंतिम उपभोक्ता को भी माल का अधिक दाम चुकाना पड़ता है। किसी भी सक्षम कृषि - विपणन प्रणाली में यह आवश्यक है कि बिचौलियों की संख्या कम से कम हो ताकि किसानों को अपनी उपज का ज्यादा से ज्यादा दाम मिले तथा अंतिम उपभोक्ता को भी माल की कीमत कम चुकानी पड़े। विनियमित मंडी प्रणाली की एक बड़ी समस्या यही है कि देश में कृषि - उपज का पूरा बाज़ार टुकड़ों - टुकड़ों में बंटा नजर आता है। जहाँ अन्य क्षेत्रों में तेजी से एक देशव्यापी एवं एकीकृत बाजार - व्यवस्था विकसित हो रही है, वहीं मंडी कानूनों के कारण किसान अपनी उपज को राज्यव्यापी अथवा राष्ट्रव्यापी बाजारों से नहीं जोड़ पा रहे हैं। उनके लिए यह बाध्यकारी है कि वे अपनी उपज को संबंधित क्षेत्र के विनियमित मंडी यार्ड में ही बेंचे। किसानों को न तो राज्य या देश के अन्य हिस्सों में स्थित मंडियों में होने वाले माल की आवक अथवा बिक्री - मूल्यों की जानकारी मिल पाती है और न ही वह अपने माल को ऊँची परिवहन लागत आदि के चलते बेहतर मूल्य वाली मंडियों तक ले जाने में ही सक्षम हो पाता है।
आज की परिस्थितियों में जब अन्य क्षेत्रों में बाज़ार बहुत तेजी से विकसित हो रहा है और पिछले दो दशकों में आकार में कई गुना बड़ा हो चुका है, तो ऐसे में कृषि - उत्पादों के विपणन के विनिमयन के ये कानून कृषि - उपज के बाजार के विकास में केवल एक बाधा के रूप में ही नजर आते हैं। इन कानूनों का सीधा प्रभाव यह पड़ा है कि कृषि मंडियाँ एकाधिकारपरक हो गई हैं| अधिकांश मंडियों में किसानों का ध्यान रखने वाले लोगों की कोई भूमिका नहीं है। अनेक राज्यों में मंडी समितियों का निर्धारित समय पर न तो चुनाव होता है और न ही किसानों के प्रतिनिधि मंडियों के प्रबंधन में भागीदार बन पाते हैं। प्राय: ऐसी मंडी समितियाँ आढ़तियों व व्यापारियों के चंगुल में ही फंसी रहती हैं और मंडी के प्रबंधक व कर्मचारी भी उनसे सांठ - गांठ करके किसानों के हितों की सुरक्षा करने से दूर ही रहते हैं। इन परिस्थितियों में किसान अपनी उपज को बेचने के लिए इन्हीं बिचौलियों पर ही आश्रित बना रहता है और न वह अपने माल की खुली नीलामी करा पाता है और न ही व्यापारी वर्ग खुली नीलामी के माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक मूल्य पर उसका माल खरीदने को तैयार होता है। वर्तमान बहुस्तरीय बिचौलियों वाली विपणन - व्यवस्था में हर स्तर पर प्राप्त विक्रय मूल्य का कुछ हिस्सा ऐसे बिचौलियों के लाभांश में चला जाता है जिसका सीधा प्रभाव यह होता है कि एक तरफ तो किसान को अपनी उपज के लिए कम मूल्य पर ही संतोष करना पड़ता है तथा दूसरी तरफ अंतिम उपभोक्ता को भी माल का अधिक दाम चुकाना पड़ता है। किसी भी सक्षम कृषि - विपणन प्रणाली में यह आवश्यक है कि बिचौलियों की संख्या कम से कम हो ताकि किसानों को अपनी उपज का ज्यादा से ज्यादा दाम मिले तथा अंतिम उपभोक्ता को भी माल की कीमत कम चुकानी पड़े। विनियमित मंडी प्रणाली की एक बड़ी समस्या यही है कि देश में कृषि - उपज का पूरा बाज़ार टुकड़ों - टुकड़ों में बंटा नजर आता है। जहाँ अन्य क्षेत्रों में तेजी से एक देशव्यापी एवं एकीकृत बाजार - व्यवस्था विकसित हो रही है, वहीं मंडी कानूनों के कारण किसान अपनी उपज को राज्यव्यापी अथवा राष्ट्रव्यापी बाजारों से नहीं जोड़ पा रहे हैं। उनके लिए यह बाध्यकारी है कि वे अपनी उपज को संबंधित क्षेत्र के विनियमित मंडी यार्ड में ही बेंचे। किसानों को न तो राज्य या देश के अन्य हिस्सों में स्थित मंडियों में होने वाले माल की आवक अथवा बिक्री - मूल्यों की जानकारी मिल पाती है और न ही वह अपने माल को ऊँची परिवहन लागत आदि के चलते बेहतर मूल्य वाली मंडियों तक ले जाने में ही सक्षम हो पाता है।
कृषि उपज की मंडियों की उपलब्धता में कमी तथा उसमें विद्यमान संरचनात्मक व संचालनात्मक न्यूनताओं को देखते हुए आज इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि किसानों को उनकी उपज के विपणन के अन्य प्रकार के विकल्प शीघ्रता से उपलब्ध कराए जाएं। इसी के साथ मौजूदा कृषि मंडियों में अत्याधुनिक सुविधाओं को स्थापित किए जाने तथा मंडियों की कार्य प्रणाली को पारदर्शी तथा गतिशील बनाए जाने की भी बड़ी आवश्यकता है। निजी क्षेत्र तथा सहकारी क्षेत्र को प्रोत्साहित करके उनके माध्यम से नई मंडियों की स्थापना के लिए व्यापक पूंजी निवेश को बढ़ावा दिया जा सकता है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक देश में कृषि-बाजार की संरचना के समुचित विकास के लिए लगभग बीस हजार करोड़ रूपए से अधिक के पूंजी - निवेश की जरूरत है। यह पूंजी - निवेश सरकारी एजेंसियों के साथ - साथ निजी क्षेत्र द्वारा किए जाने से ही पूरा हो सकता है। निजी क्षेत्र की मंडियों से उपज के विपणन में भी गतिशीलता आएगी। निजी पूंजी निवेश को आकर्षित करने के लिए आवश्यक नीतिगत परिवेश तैयार किए जाने की भी जरूरत है। चूँकि देश के अधिकांश किसान छोटे व सीमांत किसान हैं, जिनके पास क्रमश: दो हेक्टेयर अथवा एक हेक्टेयर से भी कम भूमि है और उसमें थोड़ा - थोड़ा उत्पादन ही होता है, अत: अपने मार्केटेबल सरप्लस की इस थोडी - थोड़ी मात्रा को बाजार में अच्छे दाम पर बेचने की गुंजाइश ऐसे किसानों के पास नहीं होती। पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाले ज़मीनों के बंटवारे के कारण किसानों की जोतें और भी छोटी होती जा रही हैं। इसलिए आज यह बहुत जरूरी है कि ऐसे लघु कृषक आपस में संगठित हों तथा कमोडिटी के आधार पर अपने समूह, सहकारी संस्था अथवा उत्पादक कंपनियाँ बनाएँ और उसके माध्यम से अपनी उपज को इकट्ठा करके आधुनिक तरीके से बाजार में उचित मूल्य पर उसका विपणन करें। इस प्रकार बाजार सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत किसानों को नीचे से ऊपर तक संगठित करना, उन्हें बाजार प्रणाली की जानकारी देना तथा अपने उत्पादों के विपणन के लिए बाज़ार में संगठित रूप से उतरने हेतु तैयार करना ही सरकार का मुख्य ध्येय होना चाहिए। आज भारतीय कृषि - क्षेत्र की सबसे बड़ी चुनौती भी यही है।
कृषि उपज के विपणन को गतिशील बनाने तथा उसके माध्यम से किसानों को अधिक आय दिलाने वाली व्यवस्था को स्थापित करने के उद्देश्य से भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2003 में एक नया मॉडल मंडी कानून बनाया तथा उसे अपनाए जाने के लिए राज्य सरकारों को प्रेषित किया ताकि देश में कृषि विपणन क्षेत्र का विस्तार हो सके और किसानों के समक्ष प्रतिस्पर्धात्मक विकल्प उपलब्ध हो सकें। इस संशोधित कानून का मुख्य लक्ष्य यही कि किसान अपनी उपज का समुचित मूल्य प्राप्त कर सकें। इस मॉडल कानून के अंतर्गत ऐसे प्रावधान सम्मिलित किए गए, जिनके तहत निजी व सहकारी क्षेत्र में कृषि मंडियों की स्थापना सुगम हो। उसमें बड़ी व्यापार - श्रंखलाओं तथा खाद्य - प्रसंस्करण उद्यमियों द्वारा किसानों से उपज की सीधी खरीद किए जाने की व्यवस्था हो। ऐसी सीधी खरीद की दृष्टि से संविदा खेती का काफी महत्व है, अत: मॉडल कानून में संविदा खेती के तहत उपज की बिक्री के लिए जाने वाले अनुबंधों से संबन्धित व्यवस्थाएँ भी प्रतिपादित की गईं। संविदा खेती में लघु व सीमांत किसानों को शोषण का सामना न करना पड़े, इस दृष्टि से मॉडल कानून में इस बात का भी प्रावधान रखा गया कि अनुबंध के अंतर्गत किसानों को कंपनी की तरफ से दी जाने वाली सुविधाएँ स्पष्ट रूप से अंकित हों तथा करार पूरा न होने की अवस्था में उसके क्या - क्या परिणाम होंगे, यह भी साफ लिखा हो। यह भी प्रावधान किया गया कि संविदा फेल हो जाने की दशा में किसान को उसके परिणामस्वरूप किसी भी सूरत में अपनी जमीन के स्वामित्व अथवा कब्जे से हाथ न धोना पड़े। मॉडल कानूनों में किसानों के स्वयं के बाजार स्थापित करने की व्यवस्था भी है, इसी प्रकार विशेष कमोडिटी बाजार तथा इलेक्ट्रॉनिक व्यापार को प्रोत्साहन देने की व्यवस्था भी है। निजी क्षेत्र की बड़ी इकाइयाँ अनेक अधिसूचित क्षेत्रों में अथवा पूरे राज्य में एक साथ सीधी खरीद अथवा संविदा खेती के लिए सामने आना चाहेंगी, इसके लिए उन्हें मंडी समिति के स्तर के बजाय राज्य स्तर पर पंजीकरण, लाइसेंस तथा फीस इत्यादि जमा करने की व्यवस्था रखी गई। मंडी के प्रबंधन तथा विस्तार कार्यक्रमों आदि में निजी क्षेत्रों की भागीदारी को बढ़ाने तथा मार्केटिंग विभाग के तहत राज्य स्तरीय ग्रेडिंग स्टैण्डर्डस ब्यूरो व प्रशिक्षण व विस्तार केन्द्र जैसी संस्थाएँ स्थापित किए जाने का भी प्रावधान रखा गया। इन सब सुधारों के लागू होने पर एक ऐसा नीतिगत वातावरण सृजित हो सकता है, जिसके तहत निजी क्षेत्र के प्रसंस्करण उद्यमी, आपूर्ति श्रृंखला के स्वामी तथा निर्यात करने वाले व्यापारी कृषि विपणन के क्षेत्र में आवश्यक अवस्थापना सुविधाओं के विकास के लिए व्यापक पूंजी - निवेश करने में प्रवृत्त होंगे तथा देश में जरूरी शीत - श्रृंखलाओं की स्थापना के साथ - साथ वे सीधी खरीद की व्यवस्था के अंतर्गत किसानों को तकनीकी व बाज़ारोन्मुख खेती के लिए प्रेरित करके कृषि के क्षेत्र में व्यापक परिवर्तन लाने का मार्ग प्रशस्त करेंगें।
दुर्भाग्य की बात है कि कृषि - उपज के बाज़ार के सुधार से जुड़े इस महत्वपूर्ण मॉडल कानून को राज्य सरकारों ने ज्यादा महत्व नहीं दिया और जिन्होंने अपने कानूनों में कुछ संशोधन किए भी वे केवल दिखावे के लिए और निष्प्रभावी ढंग से किए। भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराए गए मॉडल कानून के आधार पर अभी तक देश के 16 राज्यों के मंडी कानूनों में ही संशोधन किए गए हैं। ये राज्य हैं - आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, असम, मध्यप्रदेश, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिक्किम, नागालैंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक व त्रिपुरा। बिहार सरकार द्वारा बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था की स्थापना किए ही एक सितम्बर, 2006 से राज्य के मंडी अधिनियम का निरसन ही कर दिया जिसने वहाँ के किसानों के लिए एक अलग तरह की ही समस्या पैदा हो गई। केरल, मणिपुर, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, दादर व नागर हवेली, दमन व दीव तथा लक्षद्वीप में मंडी कानून पहले से ही नहीं लागू हैं। अधिकांश राज्यों ने इन संशोधनों के तहत संविदा खेती, कृषि उपज की कंपनियों व उपभोक्ताओं द्वारा सीधी खरीद तथा निजी क्षेत्र में वैकल्पिक कृषि बाजारों की स्थापना के प्रावधान किए हैं। अधिकांश राज्यों मे इन संशोधनों के अनुरूप नियमावलियाँ जारी किए जाने में भी काफी विलम्ब किया इसलिए केन्द्र सरकार ने इस काम को गति प्रदान करने के लिए वर्ष 2007 में एक मॉडल नियमावली भी तैयार तैयार करके राज्यों को उपलब्ध कराई। प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में 29 मई, 2007 को सम्पन्न हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में लिए गए संकल्प में यह लक्ष्य रखा गया था कि सभी राज्य मार्च, 2008 तक अपने-अपने कृषि उपज विपणन कानूनों में उपज विपणन कानूनों में आवश्यक संशोधन करके उनके अंतर्गत नियमावलियों को अधिसूचित कर देंगे ताकि बाजार सुधार कार्यक्रमों को लागू करने का काम पूरा हो सके। किन्तु छह वर्ष बीत जाने के बावजूद यह काम आज भी अधूरा है।
जहाँ पारंपरिक रूप से किसान आस - पास की ग्रामीण मंडियों अथवा थोक मंडियों में ही अपना माल ले जाकर उपभोक्ताओं अथवा व्यापारियों को बेचते के लिए मजबूर थे, वहीं इन बाज़ार - सुधार कार्यक्रमों के फलस्वरूप किसानों को अपनी उपज की बिक्री के लिए नए - नए विकल्प उपलब्ध होने लगे हैं। आपूर्ति श्रृंखला व खुदरा बाजार की श्रृंखलाओं के संचालक आज किसानों के खेत से ही खाद्यान्न व ताजे फल व सब्जियों जैसे कृषि - उत्पादों को खरीदने के लिए तत्पर हैं। उनके द्वारा इस हेतु संग्रहण केन्द्र आदि स्थापित करने के लिए भी प्रयत्न किए जा रहे हैं। संविदा खेती का अनेक फसलों के क्षेत्र में विस्तार हो रहा है तथा अनेक कंपनियाँ आकर्षक पैकेजों के साथ किसानों के समूहों अथवा सहकारी संस्थाओं के साथ अनुबंध कर रही हैं। ऐसी एजेंसियां किसानों को तकनीकी जानकारी व खेती के लिए आवश्यक बीज, रसायन व अन्य आदान भी उपलब्ध करा रही हैं। अनेक राज्य किसान - बाज़ारों अथवा उपभोक्ता बाज़ारों की स्थापना की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। केरल, तमिलनाड़ु, आंध्र प्रदेश उड़ीसा, पंजाब आदि के किसान - बाज़ार किसानों को उपज का अच्छा मूल्य दिलाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। सीधी खरीद के विकल्प के अंतर्गत किसानों को अपनी उपज का 15 से 20 प्रतिशत तक अधिक मूल्य प्राप्त हो रहा है। हिमाचल प्रदेश व पंजाब जैसे राज्यों में कंपनियों द्वारा स्थापित खरीद - केन्द्रों के माध्यम से फल व सब्जियों की आपूर्ति का एक नया सिलसिला विकसित हुआ है, जो समेकित शीत - श्रृंखला से सम्पन्न है जिससे ताजे उत्पादों का फसल - बाद का नुकसान बहुत कम होता है। किसानों को बाज़ार से जुड़ी जानकारी उपलब्ध कराने की दृष्टि से निजी क्षेत्र की अनेक कंपनियाँ विभिन्न नामों से ऐसे केन्द्रों की स्थापना कर रही हैं जो किसानों को बाज़ार का ज्ञान देने के साथ - साथ उन्हें बाज़ारोन्मुख खेती की आवश्यक सहायता व सेवाएँ भी देती हैं और किसानों के माल की सीधी खरीद भी करती हैं। इनमें आई. टी. सी. की 'ई - चौपाल', महिन्द्रा के 'महिन्द्रा शुभ लाभ', 'हरियाली किसान बाजार' जैसे नाम प्रमुख हैं। 'टाटा किसान संसार' तथा 'कारगिल फार्म गेट बिजनेस सेन्टर' भी अहम भूमिका निभा रहे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा टर्मिनल मार्केट, एग्री मार्ट जैसे नए प्रकार के कृषि बाज़ारों की स्थापना की पहल भी की जा रही है तथा कृषि बाज़ारों के आधुनिकीकरण एवं सुदृढ़ीकरण के लिए बाज़ार - सुधार कार्यक्रम लागू कर चुके राज्यों को आर्थिक सहायता प्रदान किए जाने की एक नई केन्द्रीय अनुदान योजना भी लागू की गई है। इस योजना के तहत कृषि - बाज़ार से जुड़ी अवस्थापना सुविधाएँ विकसित करने वाले निजी पूंजी - निवेशकों को ॠण - संबद्ध अनुदान दिए जाने की व्यवस्था भी की गई है।
कृषि विपणन के क्षेत्र में लागू किए जाने वाले सुधारों को तेजी से अमली जामा पहनाने के उद्देश्य से देश में वैट के कानून को लागू किए जाने के लिए की व्यवस्था की तर्ज़ पर भारत सरकार ने राज्यों के कृषि विपणन के प्रभारी मंत्रियों की एक प्राधिकार समिति का गठन भी किया है। इस समिति की अध्यक्षता महाराष्ट्र के कृषि विपणन के प्रभारी मंत्री कर रहे हैं। इस समिति ने विभिन्न राज्यों के मंत्रियों, मंडी बोर्डों तथा शासकीय विभागों के प्रतिनिधियों एवं कृषि - विपणन से जुड़ी निजी क्षेत्र की संस्थाओं के साथ कई दौर में विचार-विमर्श किया और इस सबके उपरांत एक कार्य योजना को स्वरूप दिया है, जिसके तहत देश में कृषि - उपज की मंडियों की व्यवस्था को सुधारने तथा किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने के लिए निम्न संस्तुतियाँ की गईं हैं:
(1) सभी
राज्यों को द्वारा शीघ्रातिशीघ्र अपने कृषि - उपज के बाज़ार में सुधार
लाने के लिए अपने मंडी अधिनियम तथा उसकी नियमावली में केन्द्र सरकार द्वारा प्रस्तावित
मॉडल अधिनियम तथा मॉडल नियमावली के अनुरूप आवश्यक संशोधन लागू करने चाहिए।
(2) किसानों को उनकी उपज का
बेहतर मूल्य मिल सके इसके लिए उन्हें संगठित करने का प्रयास करते हुए उनके स्वयं
सहायता समूहों तथा उत्पादक कंपनियों आदि के गठन को बढ़ावा देना चाहिए।
(3) मंडियों में व्यापारियों
तथा आढ़तियों को लाइसेंस दिलाने की व्यवस्था को उदार बनाया जाना चाहिए ताकि नए व्यापारी
व खरीददार आसानी इस क्षेत्र में उतर सकें और बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बढ़े। इसी के
साथ ही व्यापारियों व उद्यमियों को उनकी आवश्यकतानुसार एक से अधिक मंडियों अथवा
पूरे प्रदेश में प्रभावी होने वाले लाइसेंस दिए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए
ताकि उन्हें प्रत्येक मंडी समिति में अलग-अलग आवेदन करते हुए भटकना न पड़े।
(4) विपणन - केन्द्रों से विहीन क्षेत्रों में नई विनियमित मंडियों की स्थापना के
अलावा राज्य सरकारों को विभिन्न मंडी क्षेत्रों में छूट प्रदान करते हुए निजी
मंडियों की स्थापना को बढ़ावा देना चाहिए तथा शहरी क्षेत्रों में किसानों द्वारा
सीधे अपना उत्पाद लाकर उपभोक्ताओं को बिक्री करने के अवसर प्रदान करने के लिए कृषक
- बाज़ार स्थापित करने चाहिए।
(5) मंडियों
में प्रबंधन की व्यवस्था सुधारी जाए तथा प्रोफेशनल संचालकों को प्रबंधन की जिम्मेदारी
दी जाए।
(6) किसान बाजारोन्मुख खेती में
रूचि लें तथा उन्हें ऐसी उपज का उचित मूल्य मिले इसके लिए ठेका खेती को बढ़ावा
दिया जाए तथा यह व्यवस्था भी की जाय कि इस पद्धति के तहत किसानों का शोषण न हो।
(7) संगठित
खुदरा क्षेत्र की कंपनियों एवं कृषि - प्रसंस्करण से जुड़ी
औद्योगिक इकाइयों तथा किसानों के बीच सीधी आपूर्ति श्रृंखला को प्रोत्साहन दिया
जाए तथा इसके लिए ऐसे खरीददारों को मंडी के नियंत्रणों से छूट दी जाए और फल तथा
सब्जियों जैसे उत्पादों को इस हेतु मंडी शुल्क से मुक्त भी किया जाए । यदि
राज्य सरकारों को इससे राजस्व की हानि हो तो केन्द्र सरकार उसकी भरपाई की व्यवस्था
भी करे।
(8) राष्ट्रीय
कृषि विकास योजना के अंतर्गत अनिवार्य रूप से 10 से 15 प्रतिशत तक की धनराशि विपणन
के लिए आवश्यक सुविधाओं के विकास पर व्यय की जाए और कृषि - उपज मंडियों के भीतर तथा बाहर कृषि - विपणन से जुड़ी
सुविधाओं के विकास के लिए निजी पूंजी - निवेश को बढ़ावा दिया जाए।
(9) किसी
भी दशा में मंडी शुल्क तथा अन्य प्रकार के शुल्क, कुल मिलाकर, 2 प्रतिशत की अधिक दर से न लिए जाएँ तथा आढ़तिया कमीशन भी किसी भी जिंस पर
4 प्रतिशत से अधिक न लिया जाए।
(10) कृषि - उत्पादों के मुक्त परिवहन के लिए उनके रास्तों से चैकिंग के लिए लगाए
गए गेट/ बैरियर समाप्त किए जाएं।
(11) कृषि
-
उपज के अंतर्राज्यीय व्यापार व वाणिज्य के विनियमन के संबंध में
कृषि मंत्रालय द्वारा विचाराधीन केन्द्रीय कानून के विधेयक पर शीघ्र विचार किया
जाए तथा उसे प्राथमिकता के आधार पर फल तथा सब्जियों जैसी जिंसों के विपणन को सुधारने
के लिए लागू किया जाए।
केन्द्र सरकार ने देश में खुदरा व्यापार के क्षेत्र में अवस्थापना-सुविधाओं की कमी तथा लंबी व विखंडित आपूर्ति-श्रंखला के कारण होने वाले कृषि-उत्पादों के अपक्षय तथा बिचौलिए व्यापारियों की बहुस्तरीय व्यवस्था के कारण विभिन्न वस्तुओं के उत्पादकों, विशेष रूप से किसानों, तथा उपभोक्ताओं को होने वाले आर्थिक नुकसान को देखते हुए पिछले साल एकल एवं बहु-ब्रांड वाले उत्पादों के संगठित खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और उदार बनाए जाने का भी निर्णय लिया है। इसके तहत 10 जनवरी 2012 से एकल ब्रांड वाले उत्पादों के व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर शत - प्रतिशत कर दी गई, किन्तु ऐसे व्यापार में 51% से अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाली कंपनियों पर न्यूनतम 30% तक की कीमत के सामान की खरीद देश के भीतर स्थित लघु उद्यमियों, ग्रामीण उद्योगों, दस्तकारों व कारीगरों से ही किए जाने की शर्त भी लगा दी गई। बाद में 20 सितम्बर 2012 से बहु ब्रांड वाले उत्पादों के व्यापार के लिए भी 51% की सीमा तक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित राज्य सरकार की सहमति के आधार पर 10 लाख तक की आबादी वाले शहरों तथा जिन राज्यों में ऐसे शहर न हों, वहाँ राज्य सरकार की वरीयता वाले शहरों अथवा राज्य के सबसे बड़े शहर में संबन्धित नगर - क्षेत्र के भीतर अथवा उसकी सीमा के बाहर की 10 किलोमीटर की परिधि के क्षेत्र में खुदरा स्टोर खोलने के लिए अनुमन्य कर दिया गया बशर्ते कि ऐसा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश न्यूनतम 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो। इसके अन्तर्गत बिना ब्रांड वाले फल-फूल, सब्जी, खाद्यान्न, दालें तथा मांस - मछली जैसे उत्पादों को भी शामिल किया गया। ऐसे व्यापार के लिए भी न्यूनतम 30% तक की खरीद हमेशा अधिकतम 10 लाख डॉलर तक के पूँजी-निवेश के भीतर बने रहने वाले घरेलू लघु - उद्योगों से किए जाने की शर्त रखी गई। साथ ही शुरुआती प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का कम से कम 50% हिस्सा तीन साल की अवधि के भीतर व्यापार की पृष्ठगत अवस्थापना सुविधाओं, जैसे प्रसंस्करण, उत्पादन, वितरण, डिज़ाइन एवं गुणवत्ता में सुधार, भंडार - गृहों के निर्माण एवं भंडारण व कृषि - विपणन की सुविधाओं के विकास आदि पर खर्च किया जाना भी अनिवार्य बनाया गया।
केन्द्र सरकार ने देश में खुदरा व्यापार के क्षेत्र में अवस्थापना-सुविधाओं की कमी तथा लंबी व विखंडित आपूर्ति-श्रंखला के कारण होने वाले कृषि-उत्पादों के अपक्षय तथा बिचौलिए व्यापारियों की बहुस्तरीय व्यवस्था के कारण विभिन्न वस्तुओं के उत्पादकों, विशेष रूप से किसानों, तथा उपभोक्ताओं को होने वाले आर्थिक नुकसान को देखते हुए पिछले साल एकल एवं बहु-ब्रांड वाले उत्पादों के संगठित खुदरा व्यापार के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और उदार बनाए जाने का भी निर्णय लिया है। इसके तहत 10 जनवरी 2012 से एकल ब्रांड वाले उत्पादों के व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाकर शत - प्रतिशत कर दी गई, किन्तु ऐसे व्यापार में 51% से अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाली कंपनियों पर न्यूनतम 30% तक की कीमत के सामान की खरीद देश के भीतर स्थित लघु उद्यमियों, ग्रामीण उद्योगों, दस्तकारों व कारीगरों से ही किए जाने की शर्त भी लगा दी गई। बाद में 20 सितम्बर 2012 से बहु ब्रांड वाले उत्पादों के व्यापार के लिए भी 51% की सीमा तक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धित राज्य सरकार की सहमति के आधार पर 10 लाख तक की आबादी वाले शहरों तथा जिन राज्यों में ऐसे शहर न हों, वहाँ राज्य सरकार की वरीयता वाले शहरों अथवा राज्य के सबसे बड़े शहर में संबन्धित नगर - क्षेत्र के भीतर अथवा उसकी सीमा के बाहर की 10 किलोमीटर की परिधि के क्षेत्र में खुदरा स्टोर खोलने के लिए अनुमन्य कर दिया गया बशर्ते कि ऐसा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश न्यूनतम 10 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो। इसके अन्तर्गत बिना ब्रांड वाले फल-फूल, सब्जी, खाद्यान्न, दालें तथा मांस - मछली जैसे उत्पादों को भी शामिल किया गया। ऐसे व्यापार के लिए भी न्यूनतम 30% तक की खरीद हमेशा अधिकतम 10 लाख डॉलर तक के पूँजी-निवेश के भीतर बने रहने वाले घरेलू लघु - उद्योगों से किए जाने की शर्त रखी गई। साथ ही शुरुआती प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का कम से कम 50% हिस्सा तीन साल की अवधि के भीतर व्यापार की पृष्ठगत अवस्थापना सुविधाओं, जैसे प्रसंस्करण, उत्पादन, वितरण, डिज़ाइन एवं गुणवत्ता में सुधार, भंडार - गृहों के निर्माण एवं भंडारण व कृषि - विपणन की सुविधाओं के विकास आदि पर खर्च किया जाना भी अनिवार्य बनाया गया।
पिछले महीने केन्द्र सरकार द्वारा बहु ब्रांड उत्पादों के खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की शर्तों को थोड़ा और उदार किया गया है, जिनके तहत अब निवेशक अनिवार्य घरेलू खरीद के लिए 20 लाख डॉलर तक की लागत वाले लघु-उद्योगों को शामिल कर सकेंगे तथा यदि बाद में उनका कुल पूँजी - निवेश इससे अधिक भी हो जाता है तब भी उन्हें अपनी व्यापार - श्रंखला से जोड़े रख सकेंगे। खरीद के इन स्रोतों में अब कृषि - क्षेत्र की सहकारी संस्थाएँ भी शामिल हो सकेंगी। इसी के साथ ही अब राज्य सरकार की अनुमति के आधार पर ऐसे खुदरा स्टोर 10 लाख से कम जनसंख्या वाले शहरों के भीतर अथवा उनकी सीमा के बाहर की 10 किलोमीटर की परिधि के भीतर भी खोले जा सकेंगे। मेरे विचार में तो जरूरत इस बात की भी है कि घरेलू उत्पादों की खरीद की न्यूनतम अनिवार्य सीमा को बढ़ाकर कम से कम 50% रखा जाय तथा किसानों को फायदा पहुँचाने तथा कृषि - विपणन की सुविधाओं के विकास को बढ़ावा देने के लिए घरेलू खरीद की न्यूनतम अनिवार्यता के तहत कृषि - उत्पादों की खरीद की भी एक अनिवार्य न्यूनतम सीमा तय की जाय। सरकार की इस नई नीति की सफलता आँकने की कसौटी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की मात्रा के बजाय यही सुनिश्चित किया जाना होना चाहिए कि ऐसे विदेशी निवेशक वास्तव में अपने निवेश का 50% हिस्सा बैक - एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगाएँ और न्यूनतम 30% तक की घरेलू खरीद की शर्त का अनुपालन करें। व्यापार संबन्धी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीतियों को लागू करते समय हमें घरेलू व्यापार को संरक्षण देने वाली शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिए क्रियान्वयन के स्तर पर सतर्क रहना होगा तथा एक मजबूत निगरानी - तंत्र स्थापित करना होगा।
अब देखना यही है कि राज्य सरकारें इन सब सुझावों पर किस तेजी से और किस सीमा तक अमल करती हैं। अन्तर्राज्यीय कृषि - विपणन को विनियमित करने वाले केन्द्रीय कानून के सहारे देश में एक समेकित कृषि - उपज के बाज़ार को स्थापित करने का प्रयास तो कृषि मंत्रालय की फाइलों में पहले ही दम तोड़ चुका है। प्राधिकार समिति की शेष सिफारिशों के बारे में राज्य सरकारें क्या कार्रवाई करती हैं, यह तो कुछ समय बाद ही पता चलेगा। हाल ही में कुछ राज्यों ने फलों तथा सब्जियों को मंडी कानूनों के तहत अधिसूचित उत्पादों की सूची से बाहर निकालकर उन्हें गैर – विनियमित किए जाने के बारे में विचार करना शुरू किया है। लेकिन मेरे विचार में ऐसा करना किसानों के लिए घातक सिद्ध होगा, क्योंकि ऐसे में उन्हें इनके विपणन के लिए मिल रही वर्तमान सुविधाएँ भी मिलनी कठिन हो जाएँगी। निजी क्षेत्र का व्यापक इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा होने में अभी समय लगेगा। भारत में कृषि - उत्पादों के बाज़ार का वर्तमान में वैसे ही बुरा हाल है। एक तरफ किसान अपनी उपज का उचित मूल्य न मिल पाने के कारण बदहाली व ऋण-ग्रस्तता का शिकार होता चला जा रहा है, दूसरी तरफ उपभोक्ता समय - समय पर कीमतों में आने वाली उछाल के कारण त्रस्त है। ऐसे किसानों तथा उपभोक्ताओं दोनों को वैकल्पिक विपणन व्यवस्थाओं तथा आपूर्ति – श्रंखलाओं की जरूरत है, न कि स्थापित बाज़ार – व्यवस्था को नकार देने की। वैकल्पिक व्यवस्थाएँ स्थापित होने से ही बाज़ार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और किसानों को उपज का अच्छा मूल्य मिलेगा। उसी के जरिए उपभोक्ताओं को भी उचित दामों पर कृषि – उत्पाद मिलेगी। समुचित शीत – श्रंखलाएँ स्थापित होने पर ही शीघ्रक्षयी कृषि उत्पादों का भंडारण हो सकेगा और उनका सड़ना – गलना तथा औने – पौने दामों पर बिकना बंद होगा तथा एक न्यायोचित मूल्य पर साल भर बाज़ार में उनकी आपूर्ति सुनिश्चित की जा सकेगी। उम्मीद है कि केन्द्रीय कृषि मंत्रालय, खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय तथा राज्य सरकारें मिलकर शीघ्र इस दिशा में कोई नई पहल जरूर करेंगी, ताकि भारतीय कृषि में उत्पादन की दृष्टि से हो रही प्रगति का वास्तविक लाभ देश के किसानों को मिल सके।
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