बीत गया दिन
तुम बिन ढली शाम
कठिन रात की अंकशायिनी
कविता! तुम कहाँ हो?
नहीं दिखतीं अब
सड़कों, गलियों, घरों में
नहीं दिखतीं किताबों में भी
गायब हुईं पत्र - पत्रिकाओं से
सूक्ष्म तरंगों के रूप में
पीढ़ियों से रक्तावेश बनकर
मुझमें प्रवाहित होती चली आईं
जीवन - संचारिणी! तुम कहाँ हो?
खोजा तुम्हें
विजन में
भीड़ में
अगुह्य वन में
सुरभित उद्यान में
मन की सूक्ष्मता में
तन की स्थूलता में
जग की जीवंतता में
डरावने श्मशान में
नवागत में
तथागत में
छपवाए इश्तहार
लगवाए पोस्टर - बैनर
सदियों से समय के उजड़े शीश पर
चेतना के किसलय सजाकर
हर पतझड़ की निराशा को
बासंती उल्लास से मिटाती चली आईं
सृजनधर्मिणी! तुम कहाँ हो?
रामकथा की व्यथा सुनाती
गीता के सिद्धांत बताती
कालिदास के अभिज्ञान में
मेघदूत बन विरह जगाती
जयदेवी गीतों में रमती
विद्यापति का रास रचाती
आल्हा वाली शूर - वीरता
सूरदास के भजन वारती
बन कबीर की निर्मल बानी
तुलसी का मानस निखारती
भारतेन्दु के नए बोल में
पंत, प्रसाद, निराला के संग
नए छंद, नव स्वर दे जाती
नए पंख धर
नव नभ की अपार विस्तृति से भिज्ञ बनाती
विहगशीले! तुम कहाँ हो?
दिनकर की ललकार
गुँजाती
दुष्यन्ती ग़ज़लें
सुनवाती
मुक्तिबोध की अद्भुत
थाती
नागार्जुन, धूमिल
को भाती
कहाँ फिर रही देह
छिपाती
कठिन समय की चुनौतियों
में
जन को ढाँढ़स देने
वाली
सबमें साहस भरने
वाली
शब्द - वाहिनी
कहाँ हो?
भाव - विचार शून्यता
छाई
रट्टू तोते खाएँ
मलाई
परनिंदा की बड़ी
बड़ाई
अनुशंसा में है
कठिनाई
सबने आलोचक गति
पाई
अभिशब्दों की चिता
जलाई
अपशब्दों की सेज
सजाई
अहंकार के लंबे
पुतले
सीधे - सच्चे जाते
कुचले
कहाँ रूठकर चली
गईं तुम
दुनिया का है भला
इसी में
चली आओ, जहाँ हो!
बड़ी जरूरत आज
तुम्हारी
आँसू, आग, अँधेरे
के घर
भूख, प्यास, पीड़ा
के दर पर
जहाँ लाज लुटती
है दर - दर
जहाँ किसान जिए
मर - मरकर
जहाँ झूठ की राजनीति
है
जन - प्रतिनिधि
से बड़ी भीति है
भ्रष्टाचार ख़ून
पीता है
शिष्टाचार बहुत
रोता है
महल छोड़कर आईं
थी तुम
लोकमंच को भाईं
थी तुम
फिर कैसे खो गईं
अचानक
धन का या सत्ता
का लालच?
कौन बनाए बंदी
तुमको
तोड़ो बंधन, बाहर
आओ!
जीने का अंदाज़
सिखाओ!
अंतस की आवाज़
सुनाओ!
कंठ - कंठ में
फिर छा जाओ!
आओ, आओ, जल्दी
आओ!
प्राणदायिनी! कहाँ
हो!
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसुन्दर भावपूर्ण ...
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