मलयालम
के साहित्य अकादमी (1975) व भारतीय ज्ञानपीठ (2007) जैसे पुरस्कारों से सम्मानित
जनप्रिय कवि व गीतकार पद्म विभूषण श्री ओ.एन.वी. कुरुप्प 84 साल की उम्र
में 13 फरवरी 2016 को भाषा के अपने समृद्ध संसार को अलविदा कह गए। अपने पीछे वे
छोड़ गए हज़ारों साहित्य - प्रेमी शिष्य, अर्थपूर्ण सिनेमा - गीतों के चहेते लाखों
स्त्री - पुरुष व वामपंथी चेतना से प्रभावित एक बड़ा समाज। शुरुआती दौर में क्रांति
- गीतों की रचना करने वाले ओ.एन.वी. ने बाद में वामपंथी आंदोलनों की शिथिलता को भी निशाना बनाया और आत्ममंथन
- सा करते हुए तमाम रचनाएँ की। वे हमेशा गरीबों, मजदूरों व सर्वहारा की पीड़ा को
अपनी कविताओं में मार्मिक ढंग से रेखांकित करते हुए सामाजिक परिवर्तन की अलख जगाते
रहे। ‘मन में दुख का सूर्य अस्तमित होने पर खिल उठता है एक पुष्प, जिसे मैं कोई
नाम नहीं दे सकता’ जैसी बात कहने वाले ओ.एन.वी. से मैं
पहली बार तिरुवनन्तपुरम में तैनाती होने पर 1990 में मिला। उसके बाद पिछले 25
वर्षों से मैं लगातार उनसे मिलता रहा हूँ, उनकी कविताएँ सुनता रहा हूँ, उनके साथ साहित्यिक
चर्चाएँ करता रहा हूँ और उनके गुरु - तुल्य ज्ञान - दान से लाभान्वित होता रहा
हूँ। बस बीच के पाँच साल जो मैंने लखनऊ में बिताए, उसी समय उनसे मिलते रहने का
सिलसिला भंग हुआ, अन्यथा दिल्ली रहते हुए भी उनकी हर यात्रा में उनसे मिलना होता
रहता था। विगत कुछ वर्षों से उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था, फिर भी वे मुझे समय
देते और बड़े प्रेम से संवाद करते। उनकी पत्नी सरोजिनी भी बड़ा स्नेह देतीं। ओ.एन.वी. घर में न हों तो बेटे
राजीवन के साथ आत्मीयता से बातें होती। मेरी उनसे आखिरी मुलाकात लगभग दो साल पहले
दिल्ली में हुई, जब वे साहित्य अकादमी के टैगोर से जुड़े आयोजन में मुख्य प्रभाषण
देने आए थे। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। पत्नी भी साथ थीं। इंडिया इंटरनेशल
सेन्टर के जिस कमरे में वे रुके थे, उसी में बैठकर देर तक बातें हुई। उस दिन
उन्होंने इच्छा व्यक्त की कि मैं उनके अंतिम कविता - संग्रह ‘दिनान्तम’ का हिन्दी
में अनुवाद करूँ। मैंने उनकी इच्छा के अनुरूप ‘दिनान्तम’ के कुछ अंशों का अनुवाद
किया भी, किन्तु पूरी पुस्तक का अनुवाद अब मेरे लिए बेहद जरूरी हो गया है।
जब भी ओ.एन.वी. से उनके घर
पर मिलता तो वे अपनी कोई न कोई पुस्तक मुझे जरूर भेंट करते थे। इस प्रकार धीरे -
धीरे उनकी लगभग सभी पुस्तकें मेरे पास इकट्ठा हो गईं। उनका कविता - समग्र भी
प्राप्त हुआ। वे दिल्ली से आने वाले मेरे मित्रों को भी सहजता से समय देते और
प्रेम से उनसे मिलते। दिल्ली के मेरे मित्र सुमंत भट्टाचार्य तिरुवनन्तपुरम में
उनके घर पर हुई मुलाकात को निरन्तर याद करते हैं। वे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से
बहुत प्रभावित थे और जब उनसे अकेले में साहित्यिक बातचीत होती थी तो वे अक्सर
उन्हें उद्धरित करते थे। उनके सौम्य और सरल स्वभाव का मैं शुरू से कायल था। इतना
सरल स्वभाव मैंने मलयालम के ही एक अन्य कवि अक्कित्तम को छोड़कर किसी साहित्यकार का
नहीं देखा। हाँ, उनके स्वभाव के आकलन की दृष्टि से ज्ञानपीठ के निदेशक रहे
रवीन्द्र कालिया जी का मत मुझसे भिन्न था। हुआ यह कि ओ.एन.वी. को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रधानमंत्री के
हाथों तिरुवनन्तपुरम में ही दिलाने का कार्यक्रम बना। चूँकि भारतीय ज्ञानपीठ
द्वारा मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि अक्कित्तम को मूर्ति देवी पुरस्कार भी दिया जाना
था, अत: कालिया जी ने योजना बनाई कि ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अगले दिन
अक्कित्तम जी के सम्मान समारोह को भी तिरुवनन्तपुरम में ही आयोजित कर दिया जाय। मैं
ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह की पूर्व संध्या पर रवीन्द्र कालिया जी के अनुरोध पर
उनके व ममता जी के साथ ओ.एन.वी. के घर गया। हम बड़े प्रेम से उनसे मिले और समारोह के बारे में बातचीत करके
लौट आए। प्रधानमंत्री की उपस्थिति में कार्यक्रम बड़ी ही सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
लेकिन अगले दिन जब मूर्ति देवी पुरस्कार के समारोह की बारी आई, तो कुछ गड़बड़ी हुई। ओ.एन.वी. को उस समारोह में बतौर
वक्ता आना था, किन्तु ज्ञानपीठ की कार उन्हें लेने उनके घर नहीं पहुँची। वे बेटे
के साथ अपनी कार में कार्यक्रम में आए। उनका नाराज़ होना स्वाभाविक था, लेकिन जिस
तरह का गुस्सा उन्होंने वहाँ दिखाया, वह हमारे लिए अप्रत्याशित था। कालिया जी ने
उनसे क्षमा माँगी और वे शांत हो गए। लेकिन उसके बाद कालिया जी मुझसे प्राय: कहते
थे कि ज्ञानपीठ पुरस्कार कभी - कभी व्यक्ति के स्वभाव को बदल देता है।
ज्ञानपीठ
पुरस्कार समारोह के पश्चात अगले दिन ओ.एन.वी. के सम्मान में
तिरुवनन्तपुरम में एक अखिल भारतीय कवि सम्मेलन भी हुआ, जिसमें विभिन्न भारतीय
भाषाओं के कवियों ने भाग लिया। उसमें हिन्दी का प्रतिनिधित्व करते हुए मैंने ओ.एन.वी. की बहुचर्चित कविता
‘भूमिक्क ओरु चरमगीतम’ का ‘भूमि के लिए एक मरण - गीत’ शीर्षक से किया गया अपना
हिन्दी अनुवाद पढ़ा। हिन्दी में उस कविता की प्रस्तुति पर श्रोताओं ने जिस जोरदार
ढंग से तालियाँ बजाई, उसे देखकर कवि सम्मेलन के बाद ओ.एन.वी. ने मुझसे मजाक करते हुए कहा कि आपका अनुवाद तो
मूल कविता से भी ज्यादा प्रभावी लगता है। वे इसी तरह समय - समय पर मुझे मलयालम से
हिन्दी में अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त
होने के बाद दिल्ली के साहित्यकार, विशेष रूप से मलयालम भाषा से जुड़े लोग, ओ.एन.वी. को यहाँ बुलाकर
सम्मानित करना चाहते थे। ओ.एन.वी. की वह दिल्ली - यात्रा मुझे उनसे गहरी अंतरंगता प्रदान कर गई। दिल्ली के
केरल भवन में उनका सम्मान समारोह हुआ, जिसमें उन्होंने अपनी बहुचर्चित ‘भूमिक्क
ओरु चरमगीतम’ कविता ही पढ़ी और मैंने वहीं पर उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ा, जो मेरे लिए
गर्व का क्षण था। आज ओ.एन.वी. हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन पचीस सालों से मिलता रहा उनका स्नेह मेरे
द्वारा कभी भुलाया न जा सकेगा। उनकी धीर - गंभीर बातें, उनके आकर्षक शाब्दिक निनाद
से भरे काव्य - पाठ, मंचों पर साथ बैठकर सुने गए उनके ओजस्वी भाषण, सभी कुछ
निश्चित ही मेरी स्मृति को लंबे समय तक मथते रहेंगे। और मुझे ही क्यों, उनकी
कविताओं और व्यक्तित्व से प्रभावित लाखों आमजनों को भी ओ.एन.वी. कभी भुलाए न भूलेंगे।
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