'मैं ही गया कविता के पास/ अपने को तलाशता - अपने खिलाफ/ कविता जैसा अपने को पाने!' जैसी बात कहने वाले मानबहादुर सिंह
की तरह की सृजननिष्ठता व स्पष्टवादिता काश सबके पास होती! संभवत: इस प्रकार की
आत्मालोचना व आत्मपरिवर्तन की चाहत ने ही उनकी कविता को हमेशा उनके व्यक्तित्व के
करीब रखा। जितने संघर्षशील इन्सान वे स्वयं थे, उतनी ही उनकी कविता भी। दोनों की
बुनावट और अर्थवत्ता में कोई अन्तर नहीं था। जब उनकी निर्मम हत्या का समाचार मिला,
उस समय मैं सुदूर केरल में था। उससे पहले लखनऊ या नैनीताल में रहते हुए भी कभी
उनसे मिलने का मौका नहीं मिला था। बस उनकी कुछेक कविताओं से ही रू - ब - रू हुआ
था। लेकिन किसी के बारे में एक मजबूत धारणा बना लेने के लिए वह काफी था। हाल ही
में जब उनके दो संग्रहों 'भूतग्रस्त' (अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद, 1985) व 'लेखपाल
तथा अन्य कविताएँ' (प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 1989) की कविताओं से आद्यन्त
गुजरने का मौका मिला, तो लगा कि जैसे एक बार फिर से देश के हज़ारों - हज़ार गाँवों
के यथार्थ से मेरा सामना हो रहा हो। वे गाँव की ज़मीन से गहराई से जुड़े हुए, उसकी
एक - एक कमज़ोरी से वाक़िफ़ और बिना किसी लाग - लपेट के गाँव की ही बोली - बानी से
सनी अपनी विशिष्ट भाषा में सब कुछ बड़े ही प्रभावी ढंग से कह जाने वाले कवि थे।
स्पष्टत: साहित्य के नामचीनों ने उन्हें वह दर्ज़ा नहीं दिया, जिसके वे हक़दार थे।
हो सकता है, उनका असमय अंत हो जाना भी इसका एक बड़ा कारण हो, क्योंकि वे बहुत कुछ
बिना कहे ही इस दुनिया से चले गए। यहाँ उनकी काव्य - अवधारणा के बारे में किंचित
विचार करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित किया जाना ही मेरा उद्देश्य है।
मानबहादुर
सिंह बुनियादी परिवर्तन में यक़ीन रखने वाले कवि थे। 'कविता के बहाने' जैसी उनकी
सुप्रसिद्ध लम्बी कविता उस पूरे परिप्रेक्ष्य को सामने रखती है, जिसमें उनके जैसा
संघर्षशील कवि उन्नीस सौ अस्सी के दशक में रचना - कर्म में निरत हो रहा था। यहाँ
कविता उस संघर्ष, उस साधना के, परिवर्तनकारी निमित्त के रूप में सामने आती है,
जिसकी समाज को बड़ी दरकार है। दुष्यन्त के 'सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं'
जैसे उद्देश्य को उन्होंने इस कविता की 'आंधी नहीं है मेरा लक्ष्य/ जमें विशाल
दरख्तों, मकानों, मीनारों को/ ढहाना ही नहीं है मेरा पक्ष/ मेरा पक्ष तो धूल धक्कड़
भरे/ उस उत्पात के पीछे उड़ता आ रहा/ वह बीज है, बरसात है, मैं हूँ' जैसी
पंक्तियों में और भी मजबूती के साथ अभिव्यक्त किया है। यह परिवर्तन की कामना कुछ
नया सृजित करने से जुड़ी हुई है। यहाँ मुक्तिबोध की तरह स्थापित गढ़ और मठ ढहाने की
इच्छा तो है, किन्तु दुर्गम पहाड़ों के उस पार जाने के बजाय, सदियों से स्थापित
जड़ता व अन्याय की विशालता को उजाड़ने के पश्चात इसी ज़मीन पर बरसात लाने की, नए
बीजों को अंकुरित कराने की, नई सृष्टि की स्थापना की इच्छा व संकल्प भी है। यहाँ
कवि स्वयं वह जल है, बीज है, जिससे नई सृष्टि का संचार होना है। मानबहादुर सिंह के
बारे में यही सुनने को मिलता है कि सिर्फ़ कवि के रूप में ही नहीं, स्वयं अग्रिम
पंक्ति में खड़े होकर सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाले व्यक्ति थे, अर्थात
अपनी कविता में उन्होंने वही कहा, जो करने के लिए वे स्वयं प्रयत्नशील थे।
उन्होंने इस कविता में वर्तमान काव्य जगत के उस चारित्रिक खोखलेपन की ओर भी इशारा
किया, जिसमें कहा कुछ जाता है और किया कुछ जाता है्। लेकिन निम्न पंक्तियों में इस
विश्वास एवं उम्मीद को भी दृढ़ता के साथ अभिव्यक्त किया कि चारों तरफ फैले उजाड़ के
बीच भी धरती पर नई फसल लहलहाने वाला बीज अवश्य पनपेगा -
'भाषा
एक उजड़ी वाटिका सी दिख रही
किंतु
विश्वास है वह रख जायेगी
वह
बीज लघुतम
गिरी
सूखी पत्तियों के तले
माटी
की कोख में
फिर
से सजाने धरती का छिन्न बदन'
'कविता
के बहाने' मानबहादुर सिंह की एक ऐसी रचना है, जो आधुनिक कविता की अवधारणा को
स्पष्ट रूप से हमारे सामने लाती है। आधुनिक कविता केवल एक कलात्मक शब्द - सृष्टि
नहीं। वह केवल सौन्दर्य - वर्णन का निमित्त नहीं। वह जागरण का निमित्त है। वह
परिवर्तन के बीज बोने वाली है। वह संघर्ष का माध्यम है। वह प्रतिरोध की संरचना
करती है। वह धन - वैभव और ऐश्वर्य का बखान न करके अभाव और पीड़ा में डूबे यथार्थ को
सामने लाती है। 'नहीं मिली कविता मुझे श्रृंगार की तरह/ मिली है तन ढकने की जरूरत
जैसी' तथा 'मुझे नहीं मिली कविता मिठाई की तरह/ दोस्त की बारात में/ मैं ही गया
हूँ उसके पास/ फटेहाल भूखा प्यासा/ खेत से लौटा मजूर जैसे जाता है/ टुकड़ा भर
सूखी रोटी के पास ...' जैसी पंक्तियों के माध्यम से मानबहादुर आधुनिक कविता की इसी
प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हैं। वे 'न ब्रूयात सत्यमप्रियं' के प्रचलित सिद्धान्त
को तोड़ते है। यथार्थ प्राय: अप्रिय होता है। सच कड़वा और कुरूप भी होता है। उसका
चेहरा घिनौना भी हो सकता है। वह जैसा भी है, सामने आना चाहिए, यही आधुनिक कविता का
लक्ष्य है। पारम्परिक भारतीय सौन्दर्य - शास्त्र में सामाजिक व सांस्कृतिक गंदगी
को ढककर रखने की प्रवृत्ति है। केवल 'सत्यं, शिवं, सुन्दरं' को ही केन्द्र में
रखने की इसी प्रवृत्ति ने ही हमारे जनमानस की सोच को यथार्थ से दूर कर दिया है।
उसे काल्पनिक लोक से जोड़ दिया है। साहित्य को आभिजात्य वर्ग तक ही सीमित कर दिया
है। हम बाहर से साफ़ - सुथरे बने रहने और अन्दर की गन्दगी को छिपाए रखने में
विश्वास करते है। हम अन्दर की भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं करते। उन्हें
शमित करते हुए हम आडंबरपूर्ण एवं कृत्रिम बाह्य आचरण में ज्यादा प्रवृत्त होते
हैं। हम अपनी भावनाओं का आदर चाहते हैं, उन्हें दूसरों पर थोपना सामान्य व्यवहार
का पर्याय मानते हैं किन्तु दूसरे की भावनाओं का आदर करने में हम हमेशा हिचकिचाते
हैं। मानबहादुर सिंह इस परम्परा को तोड़कर आगे बढ़ने की बात करते हैं। 'भाषा ने बहुत
छिपाया है मनुष्य को/ उसी को उघारने बार बार/ कविता का द्वार खटखटाया है' कहकर वे
मनुष्य की असलियत को सामने लाना चाहते है। अपनी कविताओं में वे मनुष्य की उस
पाशविकता को पहचानने की कोशिश करते हैं, जो देवत्व की नकाब के पीछे छिपायी गई है।
जहाँ अन्याय को न्याय बताकर धर्माचरण के सिंहासन पर बिठा दिया जाता है तथा आदर्शों
की हरी घास दिखाकर बकरियों को दासता के बाड़े में कैद कर दिया गया है।
भिन्न - भिन्न काल के कवि ने काव्य - रचना के उद्देश्य को अलग
- अलग तरीके से आत्मसात करते रहे हैं। कभी कविता का उद्देश्य करुणा,
दया, प्रेम और वियोग को अभिव्यक्त करना रहा,
कभी धर्म और भक्ति के मार्ग को प्रशस्त करना। कभी कविता ने मनुष्य को
युद्ध और वीरता के प्रदर्शन के लिए प्रेरित किया, कभी उसे राष्ट्र
- प्रेम से भर देने के लिए। लेकिन बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कविता
मानवीय त्रासदी की पहचान करने वाली, यथार्थ की ज़मीन पर पाँव रखकर
चलने वाली तथा सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों के ख़िलाफ़ तनकर खड़ी होने वाली नज़र आती
है। वह परिवर्तन की लड़ाई लड़ने, सता - प्रतिष्ठान
के विद्रूप को उजागर करने तथा अन्याय से भिड़ने का साहस पैदा करती है। मानबहादुर सिंह
इसी तरह की कविता के एक सिपाही थे। उन्होंने 'कविता के बहाने'
में बड़े ही सहज शब्दों में 'आखिर मेरा कहना गाँव
नगर खरभर बने/ अपनी चौकसी में हर खुरकन पर भौंक उठे/ कर्कश फूहड़ ही सही,/ सब
जगेंगे तो चोर डाकुओं के खिलाफ' कहकर अपनी काव्य - रचना के प्रतिरोधवादी उद्देश्य
को अभिव्यक्त किया। उनका लक्ष्य कविता के माध्यम से मनुष्य की अन्तश्चेतना को
जगाने और उसे परिवर्तन का निमित्त बना देने का था। उन्होंने इस लक्ष्य को 'मैं गया हूँ कविता के/ ले आने फौलादी आंधी/ जो मेरे भीतर से मुझे उखाड़/ बीच चौराहे ला गाड़ दे'
जैसी अपनी पंक्तियों में बखूबी स्पष्ट किया। खुद को अपने भीतर से
उखाड़कर कर चौराहे पर गड़वा देने की उनकी यह आकांक्षा वैसी ही थी, जैसी कभी कबीर ने
'कबिरा खड़ा बज़ार में लिए लुकाठी हाथ' कहकर चरितार्थ भी की थी। सामाजिक संघर्ष की
इस तरह ही इच्छा तभी पैदा होती है, जब आत्मोत्सर्ग की भावना प्रबल होती है।
मानबहादुर सिंह ने तो इस संघर्षमय आत्मोत्थान में अपना जीवनोत्सर्ग भी कर दिया।
आत्मान्वेषण की राह पर निकलने
वाले मनुष्य को सबसे पहले पारम्परिक ज्ञान व अर्जित विचारों के विरुद्ध मन में
उठने वाले प्रश्नचिन्हों से जूझना पड़ता है। जब उसे यथार्थ का बोध बेचैन करने लगता है,
तब वह उन प्रश्नों का शमन न करके उन पर गहराई से विचार करता हैं और वैचारिक कसौटी
पर खरी न उतरने वाली मान्यताओं के ख़िलाफ़ खड़ा हो जाता है। उसका यह नवबोध सदियों से स्थापित
ज्ञान अथवा प्रचलित क़िताबी ज्ञान की व्यर्थता को उजागर करने लगता है। नवचेतना से लबरेज़
ऐसा व्यक्ति विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत हो जाता है। मानबहादुर सिंह की
ज्यादातर कविताएँ विद्रोही तेवर अख़्तियार करती हुई ऐसे ही नवबोध को स्थापित करती नज़र
आती है। उनकी 'कुँचने में ठिठका कौर' कविता
में इसी प्रकार के नवबोध की प्रखरता है। उसमें भूख से व्याकुल पिता को चोरी के इलज़ाम
में ठाकुर द्वारा पीटे जाने पर उसका बेटा परसादी अन्याय के ख़िलाफ़ तनकर खड़े होने के
लिए उनसे तर्क करता है। किन्तु पिता जो सवाल उठाते हैं, परसादी
के पास उनका जबाब नहीं होता है। परसादी अपने क़िताबी ज्ञान को कोसता है। सामाजिक यथार्थ
से कटी हुई शिक्षा की वर्तमान प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए मानबहादुर सिंह परसादी
की मन:स्थिति को व्यक्त करते हुए कहते है, - 'परसादी का सोचना रह रह/ फक से कट जाता/ फिर तिलमिला सोचता - / इन किताबों
में वह क्यों नहीं लिखा गया/ जो बप्पा पूछ रहे हैं/ जो लिखा गया वह किनके सवालों
का जवाब है?' बात यहीं नहीं ख़त्म होती। यह कविता परम्परागत अन्याय
को बर्दाश्त करते चले आ रहे पिता व शिक्षित एवं अन्याय का विरोध करने को तत्पर पुत्र
के बीच के वैचारिक द्वन्द्व को उस मुकाम तक ले जाती है, जहाँ
परसादी खुलेआम अपनी शिक्षा को अपने साथ हुआ एक धोखा घोषित कर देता है, -
"नहीं बप्पा मैंने खूब पढ़ समझ लिया
इनमें
छिपाये गये हैं बहुत सारे जहरीले र्इमान
जिससे
हमारी जेहन का वह जीवित विचार मर जाता है
जो
हर चीज के षड़यंत्र को समझने की ताकत रखता है
इसी
जहर को पिलाने की खातिर
लगता
है हमारी दो पैसे फीस माफ कर दी गई है
यह
तो गुड़ लपेट मुँह को लगाम पकड़ाना है
अब
क्या होगा पढ़ के ऐसा अज्ञान
क्या
होगा बप्पा ....
?"
मानबहादुर सिंह अपनी कविता
'लकड़हारिन लड़की और बालदिवस' में भी भारतीय शिक्षा - प्रणाली पर
चुटकी लेते हैं। वे इसमें 'पाठशाला में लड़के और बालक जवाहर का/ पाठ रट रहे होंगे/
अंग्रेजी की नकल और हिन्दी का/ व्याकरण लिख रहे होंगे/ वहाँ .... बाल दिवस की
गोष्ठियाँ/ भोजन के बाद अब विचार खा रही होंगी' कहकर हमारी विवेकशून्यता की ओर ले
जाने वाली रट्टामार पढ़ाई - लिखाई व पारम्परिक तौर पर परोसे जाने वाले बासी ज्ञान
के अर्जन की प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। भोजन के बाद विचार खाने की बात
कहकर वे शायद यही इशारा करते हैं कि यहाँ निरा दोमुहापन है, धोखा है, छलावा है।
यहाँ सिर्फ़ एक किस्म की वैचारिक जुगाली होती है। इसीलिए यहाँ कोई भी विचार
परिवर्तन का कारक नहीं बनता। इस प्रकार की वैचारिकता यथार्थ से दूर है और लोगों को
कभी भी स्थायी रूप से प्रेरित अथवा उद्वेलित नहीं कर पाती। आज कितना कुछ लिखा जा
रहा है, समाज की विसंगतियों के ऊपर, राजनीतिक विद्रूप के ऊपर, गरीबी एवं
भ्रष्टाचार के ऊपर, लेकिन इनमें से किसी के भी ऊपर जरा - सा भी डेन्ट नहीं लग रहा,
कहीं कुछ असर नहीं हो रहा। सब कुछ निरर्थक - सा, केवल एक वैचारिक विलास - सा ही
लगता है। मानबहादुर सिंह 'बसंत आया है' कविता में इसी ओर इशारा करते हुए कहते हैं:
'आखिर
वह बसंत जो ठूँठों में
आग
बो सकता है
फगुनहटी
धूलि में गुलाबी यादें बिखेर सकता है
इस
आदमी में कुछ नहीं चौंकाता?'
आज हर तरफ स्वार्थ का बोलबाला
है। जो चीज़ मुझे फ़ायदा पहुँचाए वही अच्छी, बाकी सब खराब है। सामाजिक
आचार - व्यवहार एवं राजनीतिक आंदोलन इसी नीति पर आकर टिक गए हैं।
भावनात्मक मुद्दों को लेकर बड़े - बड़े आंदोलन खड़े हो जाते हैं। दंगे - फसाद मचते
हैं। भाषा, बोली, जातीय आरक्षण आदि को लेकर आसानी से चक्का जाम होता है। गरीबी,
भुखमरी, संवैधानिक अधिकारों व विकास के मौलिक मुद्दों, मसलन शिक्षा, स्वास्थ्य,
आवास, पेयजल, स्वच्छता आदि को लेकर मुश्किल से ही कोई राजनीतिक आंदोलन जन्म लेता
है। संभवत: सामूहिक लाभ के बजाय व्यक्तिगत लाभ लोगों को ज्यादा आकर्षित करने लगा
है। इस तरह की व्यवस्था में चापलूसी सबसे बड़ा हथियार है। नेताओं को वही मुद्दे
पसन्द हैं, जो भीड़ जुटाएँ। वे हमेशा भीड़ से घिरे रहना चाहते हैं। लोग भी अपने
स्वार्थ में लक्ष्यविहीन भीड़ का हिस्सा बनने को तैयार है। छोटा नेता, बड़े नेता के
सिद्धान्तों पर नहीं चलना चाहता, वह उसकी चापलूसी करके ऊपर उठना चाहता है। छोटा
अफ़सर, बड़े अफ़सर को अपनी मेहनत और काबिलियत से रिझाने के बजाय, उसकी जी - हुज़ूरी और
अनर्गल प्रशंसा करके ऊपर बढ़ना चाहता है। नवोदित रचनाकार श्रेष्ठ नवलेखन में तल्लीन
होने के बजाय किसी बड़े साहित्यकार की कृपादृष्टि के सहारे ही प्रसिद्धि के शिखर पर
चढ़ जाना चाहता है। मानबहादुर सिंह ने अपनी 'बड़कू उपधिया' कविता में 'लोग कोई बात
अपने दिमाग से थोड़े सोचते हैं/ वे तो भीड़ की वाह वाह सूँघते/ कुत्ते की तरह पूँछ
दबाये/ कौरे की लालच में किसी के भी पीछे हो लेते हैं' कहकर समाज की इसी अधोगामी
प्रवृति को बखूबी अभिव्यक्त किया है। इसी प्रकार स्वार्थी प्रवृत्ति वाले
प्रभावहीन रचनाकारों को उन्होंने अपनी 'चापलूस' कविता में 'तुम्हारे मुँह में
उसकी थूक भरी हँसी/ झर रही है/ जैसे चाट तुम्हारी जबान/ ऐसी बुजदिल भाषा जन रही
है/ जिसे गोद में लिए कविता/ शर्म से गड़ गयी है' कहकर बड़े ही कठोर शब्दों में
लताड़ा है।
मानबहादुर
सिंह की कविता 'लेखपाल' बड़े उद्देश्यों एवं आशयों को लेकर लिखी गई एक ऐसी लम्बी
कविता है, जो सीधे - सीधे आज की लोकशाही एवं राजनीतिक - प्रशासनिक व्यवस्था को
कटघरे में खड़ा करती है। इस कविता में वे 'होते टैगोर तो मैं जरूर कहता/ कि वैसे ही
देश में बहुत सारे ईश्वर हैं/ देश को भी एक और ईश्वर मत बनाओ/ नहीं तो राष्ट्रगान
गाता हुआ कोई/ हिटलर में बदल जाएगा/ और सारी दुनिया भवबाधा पार कर जाएगी' कहकर उन
राष्ट्रवादियों के प्रति लोगों को सचेत करते हैं, जो देशहित को सर्वोपरि बताते
हैं, राष्ट्रभक्ति को ही साधना बताते हैं, लेकिन देश की आम जनता के अधिकारों एवं
उनकी तकलीफ़ों को तुच्छ समझते हैं और उनके साथ किसी शोषक अथवा आततायी जैसा ही
व्यवहार करते हैं। यदि जनता खुशहाल नहीं है तो वह राष्ट्र पर गर्व कैसे कर सकती
है? यदि लोगों के सामने राष्ट्र की कोई अवास्तविक छवि निर्मित की जाती है और वे
देशप्रेम के छलावे में भ्रमित होकर सच्चाई को स्वीकारना बन्द कर देते हैं अथवा यथार्थ
का सामना करने से मुँह मोड़ लेते हैं, तो ऐसे में लोकचेतना का विकास रुक जाना तय
है। मानबहादुर सिंह ने लोकतंत्र की इसी दुरावस्था का चित्रण करते हुए 'लेखपाल' में
कहा है, - 'जब भी किसी झूठ को भजन बनाया जायेगा/ लोग अपनी फूटी किस्मत पर/ दूसरों
की मूर्खता गाकर भीख ही तो मांगेंगे?' निश्चित ही ये पंक्तियाँ
रघुबीर सहाय की 'फटा सुथन्ना पहने जिसके गुन हरचरना गाता है'
जैसी सुप्रसिद्ध पंक्तियों से कम प्रभावी नहीं हैं। इस कविता का लेखपाल
भारत की समूची नौकरशाही का प्रतीक है। हमारा संविधान इस नौकरशाही को संरक्षण देता है।
इस संरक्षण का फायदा उठाकर तमाम नौकरशाह मनमाना आचरण करते हैं और लोगों के साथ तरह
- तरह का अन्याय करते हैं। मानबहादुर सिंह ने 'क्या कोई नहीं देख
रहा/ महान और पवित्र और विद्वान संविधान से निकली/ हाई स्कूल
पास लेखपाल की कलम?' कहकर इसी विडंबना की ओर इशारा किया है। उनका
तात्पर्य स्पष्ट है। यदि संविधान लोगों को न्याय नहीं दिला सकता, उनके अधिकारों का संरक्षित नहीं कर सकता, तो उसकी पूजा
करना व्यर्थ है। यही बात कविता पर भी लागू हो सकती है। यदि कविता संघर्ष की चेतना नहीं
जगा सकती, यथार्थ का सामना करने का साहस नहीं पैदा करती,
तो उसका रचा जाना बेकार है।
परम्परा से जुड़ाव वहीं तक
ठीक है, जहाँ तक वह मनुष्य को जड़ता से बचाए रखे। यदि परम्परा
से जुड़कर मनुष्य सोचना ही बन्द कर दे और यही मान बैठे कि जो ज्ञान और विवेक उसे परम्परा
से मिला है, वही सब कुछ है, वही एकमात्र
अभीष्ट है, उसी के सहारे सब कुछ साध्य है, तो मानव - चेतना विनाश की ओर अग्रसर हो जाएगी। मानबहादुर
सिंह ने अपनी 'आत्महंता' कविता में
'मिट्टी के इतने करीब होना कि मन में दीमक लग जाएँ/ कहाँ तक मुनासिब है?' कहकर बड़ी खूबसूरती के साथ इस प्रवृत्ति
की ओर संकेत किया है। वे मानव - चेतना का खुला विकास होते देखना
चाहते थे। जड़ता कभी भी हमें भविष्य की चुनौतियों का सामना करने की राह नहीं दिखा सकती।
मिट्टी किसी भी अंकुर का पोषण कर सकती है। लेकिन उस अंकुर का विकास एक हरे
- भरे उपयोगी वृक्ष के रूप में तभी हो सकता है, जब वह खुली हवा में बढ़े और फैले, निरन्तर पल्लवित और
पुष्पित हो, फलदार बने। मनुष्य की चेतना का विकास भी वृक्ष की
मानिन्द ही होता है। वह परम्परा से गुण प्राप्त करती है, पोषण
प्राप्त करती है, किन्तु अपने लिए जरूरी ऑक्सीज़न व ऊष्मा विचारों
एवं भावों के आकाश से मुक्त रूप से ग्रहण करती है और अपनी अवधारणाओं को निर्मित करती
है। जहाँ वैचारिक विकास के लिए मुक्त आकाश नहीं मिलता वहाँ संकीर्णता एवं रूढ़िवादिता
पनपती है। 'बिल्लू सिंह प्रधान की दातौन' शीर्षक कविता में 'जब भी कोई खुला हुआ आदमी चहकता है/
मन की सारी खिडकियाँ/ उसके आगे खुल ही जाती
हैं/ चारों तरफ बिछ जाते हैं खेल के मैदान/ जिस पर क्षण के नन्हे ठुनकते पांव/ वक्त को गेंद
के मानिन्द उछालने लगते हैं' कहकर मानबहादुर सिंह ने मानवीय
चेतना के इसी मुक्त विकास की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया है।
परिवर्तन की चेतना जगाना
ही मानबहादुर सिंह की कविताई का मूल उदेश्य था। लेकिन वे यह परिवर्तन हिंसा के जरिए
नहीं, श्रम - क्रांति के जरिए लाना चाहते
थे। व्यक्ति वह श्रम करे, जिससे निर्माण हो और जीवन को गति मिले।
वह रोशनी खोजे, जो मनुष्य को सही रास्ते पर ले जाए। 'लेखपाल' में 'तलवार को कुल्हाड़ी
बनाने की कोशिश/ आँख है जो ज़िन्दगी को राह देती है' कहकर उन्होंने अपनी इसी
अवधारणा की पुष्टि की। 'लड़की जो आग ढोती है' शीर्षक कविता में जब उन्होंने 'अपनी
उँगलियों के पोरों में अकड़े शब्द फोड़ती हुई/ कहाँ छिटकाती हो वह कविता/ जो
अँगडाई लेती वेदनाओं के फण पर/ मणि की दीप्ति बिखराती हो?' कहा,
तब भी अपनी इसी धारणा को स्पष्ट किया। उनकी इन काव्य - पंक्तियों में अद्भुत बिम्बात्मकता है। शब्दों का लड़की की उँगलियों के पोरों
में अकड़ जाना और उँगलियों के फोड़े जाने में उन शब्दों की अवमुक्ति होते महसूस करना
निश्चित ही एक अत्यन्त आकर्षक एवं अभिनव व्यंजना है। लड़की अपनी सामान्य गतिविधियों
के जरिए जैसे काव्य - रचना करती फिर रही हो। उसकी सहज संरचित
कविता वेदनाओं के फण पर अँगड़ाई लेती है। वेदनाओं का वह फण मणियुक्त है, जो चारों तरफ रोशनी फैला सकता है। मानबहादुर सिंह इन पंक्तियों के माध्यम से
यही स्पष्ट करना चाहते हैं कि जब कविता में जीवन की साधारणता समाहित होती है,
तभी वह असाधारण कविता बनती है। ऐसी कविता विषैली वेदनाओं के कालिया नाग
को भी नियंत्रित कर सकती है। वह उसके फण पर कृष्ण की तरह विलास कर सकती है। उसकी नागमणि
को बाहर निकालकर दुनिया को नई रोशनी दे सकती है। निश्चित ही इस प्रकार की श्रेष्ठ काव्य
- पंक्तियाँ यह सिद्ध करती हैं कि मानबहादुर सिंह अपने समय के एक विशिष्ट
कवि थे, जिन्हें असमय ही हमसे छीन लिया गया और उन्हें साहित्य
में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसके वे वास्तव में हक़दार थे। उनके
साथ वैसा ही हुआ, जैसा उन्होंने 'लकड़हारिन
लड़की और बालदिवस' में खुद कहा, - 'किसी
पंछी के बैठने से बाँस की चोटी/ थोड़ा लचक जाती है/ चिहुँक कर पखने फड़का फिर उड़
जाती है।'
मानबहादुर सिंह ने रचनाकारों
को हमेशा संघर्ष करने के लिए उत्प्रेरित किया। 'प्रेमचन्द
'पूस की रात' कविता में उनका यह आह्वान चरम पर
दिखाई देता है। इस कविता में वे 'हलकू के अलाव की बुझती आग
को/ हे कलमकारो,/ अपनी कलम में भर - आज के खून में रंग/ कल
की गुनगुनी सुबह उगा लो/ सबको जगा लो/ ’पूस की रात’ लिए/ धनपतियों को मारने को/ उनमें
ही प्रेमचन्द हजारों हजार हैं ...' कहकर वह अलख जगाने का काम करते हैं, जो
प्रेमचन्द की थाती सँभालने का दावा करने वाले बहुत से रचनाकारों में नहीं दिखाई
देती। उनकी सोच का फलक बहुत व्यापक था। उनके ध्येय में उदात्तता प्रबल थी। 'सरपत'
कविता में वे अपने जीवन की कामना को जब 'मुझे काटो - मैं नये
- नये कल्लों में फूटूँगा/ मुझे जलाओ - सावन का हरा आतिश बन
छूटूँगा/ मैं माटी का मन हूँ - मैं जन हूँ ...' जैसे शब्दों
में व्यक्त करते हैं तो बिल्कुल एक जनक्रांति के प्रणेता बने नज़र आते हैं। स्पष्ट
दिखता है कि उनमें शहादत का भाव भरा हुआ था। उनकी तमाम कविताएँ इस बात की सनद हैं
कि वे सचमुच 'माटी का मन' थे। 'जन' तो वे थे ही। नवसृजन ही उनकी अन्तर्दृष्टि थी।
नवोत्थान ही उनका संकल्प था। उनका यह आशय भी क्रांतिवाहक था कि नए - नए कल्ले पेड़
को काटने ही पर ही फूटेंगे। वनस्पतियों में सावन की हरियाली का विस्फोट उनके गर्मी
की आग में झुलस जाने के बाद ही होगा। उन्हें विश्वास था कि जहाँ अदम्य साहस और
जीवंतता होती है, वहाँ हर तरह के अभाव के बीच भी पुनर्सृष्टि संभव हो ही जाती है।
'सरपत' की इन पंक्तियों में वे इसी आत्मविश्वास को प्रकट करने वाले क्रांतिदूत
बनकर सामने आए, -
'कहीं
माटी कटती हो बहती हो
मुझे
रोप दो
सहस्त्र
- सहस्त्र अंगुलियों से
धरती
की छाती कस लूँगा
बालू
से भी जीवन रस लूँगा ...'
कविता में जिज्ञासा,
जिजीविषा, जनचेतना, परिवर्तन
की लालसा, आत्मोत्सर्ग की भावना, नवसृजन
का लक्ष्य यह सब कुछ एक साथ सँजोने वाले कवि थे मानबहादुर सिंह। वे माटी की गंध पहचानते
थे। लेकिन वे उसकी कमियों व कमजोरियों के बारे में भी अच्छी तरह से जानते थे। ग्रामीण
समाज की विसंगतियों को वे बखूबी पहचानते थे और उन्होंने एक - एक कर उन्हें अपने निशाने पर लिया। उनकी भाषा न सिर्फ़ ज़मीन से जुड़ी हुई थी,
बल्कि उसमें ग्रामीण बोली के अनेक शब्दों के अभिनव प्रयोग से उन्होंने
जादुई ताक़त भी पैदा की। उनकी अधिकांश कविताओं में कहानियों जैसा कथा - तत्व विद्यमान है। उनमें ग्रामीण परिवेश से जुड़े तरह - तरह के पात्र हैं, जिनका पोर्ट्रेट उन्होंने कुछ इस खूबी
के साथ खींचा है कि सारी सामाजिक व वैचारिक विषमता व जड़ता पूरी तरह से उजागर हो जाती
है। गाँव की विषम सामाजिक व आर्थिक स्थितियों पर उन्होंने सीधा निशाना साधा है और सभी
कुछ बिना किसी दुराव - छिपाव के अभिव्यक्त किया है, जिस पर अलग से विस्तृत चर्चा की जा सकती है। यह कहना गलत न होगा कि उनकी कविताओं
में समशेर बहादुर सिंह व केदारनाथ अग्रवाल जैसे पूर्ववर्ती कवियों की तरह की प्रबल
सामाजिक चेतना, नागार्जुन अथवा धूमिल जैसी ग्रामीण यथार्थ से
टकराने वाली जनोन्मुख संघर्षशीलता, केदारनाथ सिंह एवं रघुबीर
सहाय जैसे समकालीन वरिष्ठ कवियों के जैसी राजनीतिक चिन्तनशीलता, सभी कुछ एक साथ समाहित दिखाई पड़ता है। निश्चित ही मानबहादुर सिंह की कविताओं
का सही रूप में साहित्यिक व सामाजिक मूल्यांकन किया जाना अभी बाकी है। उन्होंने कविता
के बहाने ग्रामीण समाज की जिन विसंगतियों पर उँगली उठाई, जिन
नासूरों की पीड़ा को अभिव्यक्त किया, जिस परिवर्तन की लड़ाई लड़ने
का आह्वान किया और जिस नवोत्थान का सपना देखा, वह सब उनकी असमय
मृत्यु के कारण अधूरा ही रह गया। गाँव की समस्याएँ आज भी ज्यों की त्यों हैं। बल्कि
वे कुछ मायनों में और भी विषम हुई हैं। ऐसे में मानबहादुर सिंह की कविताएँ आज और भी
ज्यादा प्रासंगिक लगती हैं। मुझे विश्वास है कि बलात काट दी गई उनकी काव्य
- चेतना नई पीढ़ी के माध्यम से कविता के नए - नए
कल्लों के रूप में फूटेगी और वेदनाओं के फण पर अँगड़ाई लेती हुई अपनी मणि - दीप्ति एक लंबे समय तक चारों तरफ फैलाती रहेगी।
शानदार... आपने बहुत कुछ याद दिला दिया!! इस स्कूल के समय साक्षात्कार पत्रिका में मान बहादुर सिंह की कविताएं पढ़ी थी। वह समय फिर याद आ गया।
ReplyDeleteसर मैं आदरणीय गुरुवर्य स्व श्री मान बहादुर सिंह का विद्यार्थी रहा हूं। जनता इंटर कालेज में बेलहरी सुल्तानपुर में।
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