शिवमूर्ति समकालीन हिन्दी साहित्य के ऐसे विरल कथाकार हैं,
जो गाँव, गरीब व स्त्री के उस यथार्थ के आख्यान रचते हैं, जहाँ तक दूसरों की दृष्टि
कम ही पहुँचती है। यह यथार्थ सिर्फ़ उनकी कहानियों के कथानक अथवा घटनाक्रम में ही नहीं
समाहित होता, बल्कि उनकी भाषा, उनके पात्रों के चरित्र, उनके संवाद, हर जगह झलकता है। वे अपनी कहानियों में ग्रामीण समाज को उतने ही बेडौल, उतने ही कुरूप, उतने ही खुरदरे, उतने
ही वीभत्स रूप में चित्रित करते हैं, जितना वह वास्तव में
है। इसके लिए वे अपने अनुभव के आधार पर विषय - वस्तु चुनते हैं, सावधानी के साथ
पात्रों का चुनाव करते हैं, उनकी भाषा - बोली - संवादों को सहज रूप में अपनाते
हैं। वे चरित्रों को कल्पना का जामा पहनाकर न तो उन्हें महिमामंडित करते हैं और न
ही उन्हें खलनायक बनाने का प्रयास करते हैं। वे उन्हें स्वाभाविक रूप में सारी
अच्छाइयों - बुराइयों के साथ अपनी कथा में पिरोते हैं। तभी तो उनकी कहानियाँ पढ़ते
समय हमें ऐसा लगता है, जैसे हम अपने ही गाँव के दलितों - पिछड़ों के किसी टोले का
कोई दृश्य सजीव रूप में सामने घटित होते देख रहे हों।
हाँलाकि शिवमूर्ति की कहानियों केवल दलित व पिछड़ों की चिन्ता नहीं है। न वे केवल दलितों
के सरोकारों की बात करते हैं और न ही गैर - दलितों के वर्चस्व अथवा सामुदायिक असमानता
की बात करते हैं। उनके सरोकार सभी जातियों - समुदायों के गरीबों से जुड़े हैं। इसीलिए
प्रचलित अर्थ में उनके लेखन को दलित विमर्श का हिस्सा नहीं माना जाता। उनके लेखन में
वर्गीय चिन्ता प्रबल है। उसमें नारीवाद प्रबल है, हाँलाकि शिवमूर्ति ने कभी अपने को
नारीवादी नहीं कहा है। किन्तु यह वास्तविकता है कि उनकी अधिकांश कहानियों के केन्द्र में स्त्री ही होती है, क्योंकि संभवत: आज के
आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता के बीच झूलने वाले शहरी वातावरण की तुलना में, ग्रामीण परिवेश में जीने
वाली गरीब व निरन्तर प्रताड़ित की जा रही स्त्री की मध्ययुगीन स्थिति ही उन्हें
सबसे ज्यादा चिन्तित करती है। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ही केवल दसेक कहानियाँ
लिखने के बावजूद शिवमूर्ति आज हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में गिने जाते हैं।
शिवमूर्ति की कोई भी नई कहानी आना, साहित्य - जगत के लिए एक आकर्षक घटना
होती है, जिसकी चर्चा हर जगह होना स्वाभाविक होता है। ऐसे में जब लगभग तीन साल के
अंतराल के बाद अभी उनकी नई कहानी, ‘कुच्ची का कानून’ प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका
‘तद्भव’ के ताजा अंक में छपी, तो इसने सहज रूप मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं पहले
भी शिवमूर्ति की कहानियों पर लिख चुका हूँ, किसी आलोचकीय ज्ञान के आधार पर नहीं,
पूर्णतया एक पाठकीय विवेक के साथ, जिसकी कि आज मुझे बड़ी आवश्यकता
लगती है। अपने उसी पाठकीय विवेक के साथ जब मैंने उनकी यह नई कहानी
‘कुच्ची का कानून’ पढ़ी तो लगा
कि शिवमूर्ति की यह कहानी एकदम अलग है। सच पूछा जाय कि पहले तो एक झटका - सा लगा
कि कहीं शिवमूर्ति भी इस कहानी के माध्यम से अखिलेश की तरह यथार्थ की सीढ़ियाँ चढ़ते
- चढ़ते काल्पनिकता के सहारे अपने आदर्शों
का एक नया संसार रचने की तरफ तो नहीं बढ़ चले हैं। लगभग तीन वर्ष पहले आई अखिलेश की नई कहानी ‘श्रंखला’ कहानी में ऐसी काल्पनिकता का अकल्पित किन्तु
सुखद विस्तार मुझे दिखा था, जो उनकी ‘वजूद’, ‘यक्षगान’ व ‘ग्रहण’ जैसी यथार्थपरक
कहानियों से काफी भिन्न था। लेकिन जब मैंने ‘कुच्ची का कानून’ का अंत पढ़ा और पूरी
कहानी के घटनाक्रम पर फिर से विचार किया, तो लगा कि नहीं, इस कहानी में सृजित किया गया स्त्री का नया विद्रोही चेहरा तथा शहरों से गाँवों की
तरफ विस्तारित हो रहा स्त्री - चेतना का नया स्वरूप कहीं से भी केवल एक आदर्श -
प्रेरित कल्पना नहीं है, बल्कि वह उस यथार्थ के काफी निकट है, जो हमारे गाँवों में
आज वाकई में मौजूद है, भले ही सर्वव्यापी न हो। यह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुख
यथार्थवाद की तरफ की वापसी का कदम नहीं है। आलोचक सूरज
पालीवाल ‘हमारे समय की कहानियाँ’
(बहुवचन 37; अप्रैल – जून 2013) में लिखते है, - ‘कहानी अपने समय को रचने की कला
है। समय कहानी का मूलाधार है। कहानी अपने समय की धुरी पर ही सचाई को बयान करती है।’
‘कुच्ची का कानून’ इस सिद्धान्त पर खरी उतरने वाली समकालीन समय के यथार्थ की कहानी
है।
स्त्री के संघर्ष को शिवमूर्ति अपनी कहानियों
में हमेशा ही आगे रखते हैं, बाकी सभी कुछ गौण एवं आनुषांगिक रहता है। चाहे वह ‘तिरिया
चरित्तर’ की विमली हो, ‘अकालदंड’ की सुरजी हो या ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी हो, हर जगह नारी
- अस्मिता की लड़ाई है, वह भी अति साधारण एवं गरीब तथा लाचार स्त्री - पात्रों के माध्यम
से। इस लड़ाई में प्राय: स्त्री की हारती हुई ही दिखाई देती है, किन्तु कहानी पाठकों
मन में संवेदना का उबाल जगाने का अपना काम कर जाती है। वह स्त्री की विमुक्ति की छटपटाहट
को बड़े ही प्रभावशाली तरीके से हमारे दिलो - दिमाग में दर्ज़ करा देती है। वह स्त्री
के संघर्ष की मशाल को कुछ इस तरह से जलाती है कि कहानी भले ही ख़त्म हो जाए लेकिन मशाल
नहीं बुझती। ‘कुच्ची का कानून’ स्त्री - संघर्ष की एक नई मशाल है। यह शिवमूर्ति की
बीसवीं सदी की नहीं, इक्कीसवीं सदी की कहानी हैं। इस कहानी की पंचायत उनकी ‘तिरिया चरित्तर’ की पंचायत से एकदम भिन्न है। यहाँ
स्त्री अनपढ़ व सामाजिक बेड़ियों में कैद होते हुए भी अधिक वाचाल है, राजनीतिक रूप
से अधिक दक्ष है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अधिक कृतसंकल्प है, तथा बाहरी
समाज भी उसके संघर्ष में जुड़ने को तत्पर है। इसीलिए इस पंचायत में स्त्री हारती
नहीं, वह गाँव के मुड्ढों को अपनी तर्कशीलता से उन्हीं की माँद में निरुत्तरित कर देती है और एक विजयी के रूप में उभरती है। यहाँ संघर्ष की नियति निराशाजनक नहीं है। वह पूरी सड़ी - गली पितृसत्तात्मक व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त
करने का साधन बन जाता है। इस कहानी की स्त्री अपने संघर्ष में
अकेली भी नहीं है, उसके साथ वह नया चेतन समाज है, जिसे आज सिविल सोसायटी कहा जाता है।
कहानी
के स्वरूप व कथानक की बात की जाय तो यही कहना पड़ेगा कि ‘कुच्ची का कानून’ लीक से हटकर
है। हिन्दी के पाठक वैसे तो लगातार लंबी कहानियों से रू - ब - रू होते रहे हैं, किन्तु
यह कुछ ज्यादा ही लंबी कहानी है, जो प्रथमदृष्ट्या लघु उपन्यास जैसी लगती है। कथानक
भी साधारण है, बिना किसी तरह की जटिलता अथवा अप्रत्याशित सस्पेंस को लपेटे हुए। लंबी
होने के बावजूद यह कहानी इतनी रोचक है और इसके संवाद इतने चुटीले हैं कि पाठक एक बार
पढ़ना शुरू करने पर, इसे ख़त्म किए बिना बीच में रुक ही नहीं सकता। गाँव के एक सामान्य
किसान परिवार की नवविवाहित विधवा कुच्ची इस कहानी का केन्द्र - बिन्दु है। वह सुन्दर
है, बलिष्ठ है और आकर्षक यौवन की स्वामिनी है। उसका पति बजरंगी उससे बेहद प्यार करता
है, लेकिन एक दिन अचानक उसकी ज़हरीली शराब पीने से उसकी मौत हो जाती है। शादी के चंद
महीनों के भीतर ही बिना कोई गर्भ धारण किए विधवा हो जाना एक ऐसा अभिशाप है, जिसे कुच्ची
ज़िन्दगी भर नहीं बर्दाश्त कर सकती। उसके सास - ससुर बूढ़े हैं। वे उसे अपने घर में विधवा
के रूप में जीते हुए नहीं देख सकते। वे कुच्ची को पुनर्विवाह की अनुमति देने के साथ
ही उसे वापस उसके मायके भेज देने का निर्णय लेते हैं। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं।
कुच्ची के पिता उसे वापस लेने आते हैं। उनकी साइकिल पर उसका सामान भी लद जाता है। कुच्ची
की विदाई भी होने लगती है। किन्तु अचानक ही उसकी सास दु:ख से अचेत हो जाती है। विदाई
टल जाती है। और फिर वहीं से शुरू होती है एक ऐसी कुच्ची की दास्तान जिसे शिवमूर्ति
ने अपनी कलम से एक साधारण ग्रामीण स्त्री के विप्लव के विशिष्ट आख्यान के तौर पर रचा
है।
कुच्ची
के ससुर रमेसर के और कोई संतान नहीं। उसके भाई का बेटा बनवारी उसकी ज़मीन - जायदाद पर
नज़र गड़ाए रहता है। बजरंगी की मौत उसे वरदान के रूप में दिखाई देने लगती है। कुच्ची
के घर से विदा हो जाने में उसे सीधा फायदा दिखता है। इससे चाचा की संपत्ति हड़पने का
उसका रास्ता साफ़ हो जाता। इसीलिए कुच्ची की विदाई में विघ्न पड़ना उसे नहीं सुहाता।
बाद में जब कुच्ची की सास के पैर में फ्रैक्चर हो जाता है और उसके जिला अस्पताल में
भर्ती हो जाने के कारण कुच्ची का जाना लंबे समय के लिए टल जाता है, तब तो वह षडयंत्र
करने पर ही उतर आता है। वह कुच्ची से जबरिया संबन्ध बनाना चाहता है। उसे लगता है कि
इससे सारी संपत्ति का हकदार वही बन जाएगा। उसे अपनी पत्नी सुलछनी की भी परवाह नहीं।
सुलछनी भी उसकी बातों के लालच में आकर साज़िश में शामिल हो जाती है। लेकिन कुच्ची खुद्दार
है। वह सास - ससुर की रक्षा करने के प्रति भी सजग है। उसमें संघर्ष करने का भरपूर जज़्बा
है। उसमें ताकत भी है और हिम्मत भी। वह हर कदम पर अपने जेठ बनवारी की तिकड़मों का मुँहतोड़
जबाब देती है। उसकी सास को उस पर पूरा यकीन है। ससुर लड़ने से डरते हैं और बनवारी के
अत्याचार को सहने का प्रयास करते हैं, किन्तु सास कुच्ची का हौंसला बनाए रखती है। कुच्ची
ने सास के इलाज़ के समय रोज़ शहर के अस्पताल आते - जाते काफी दुनिया देख - समझ ली है।
अस्पताल की नर्स कुट्टी से उसे अपनी अस्मिता को बचाने का रास्ता मिलता है। वह माँ बनने
के अपने अधिकार को समझ लेती है और गर्भ धारण करती है। कुच्ची को गर्भवती देखकर गाँव
की औरतों में हड़कंप मच जाता है। परिवार की संपत्ति हड़पने की बनवारी की सारी चालों को
निष्फल करती चली आई कुच्ची को अब वह पंचायत में घसीटकर बदचलन साबित करने तथा अपने रास्ते
से हटाने की योजना बनाता है। गाँव की पंचायत के मुखिया लछिमन
चौधरी तथा उसके प्रमुख मार्गदर्शक बलई पांडे जैसे लोग उसकी योजना में पूरक बनते हैं।
किन्तु कुच्ची भी गाँव की राजनीति को बखूबी समझ लेती है और
अपने लिए समर्थन जुटाने हेतु पंचायत से
पहले स्वयं ही जाकर गाँव के विचारशील
बुजुर्ग धन्नू बाबा तथा दबंग महिला सुघरा ठकुराइन आदि से मिलती है। उसे सबसे बड़ा समर्थन मिलता है गाँव के पढ़े - लिखे धरमराज वकील का।
शिवमूर्ति की इस कहानी की पंचायत इन्हीं सब कारणों से भिन्न हो जाती है।
‘तिरिया चरित्तर’ की
पंचायत में सच नहीं सुना जाना था और विमली को दंडित होना ही था। भले ही वहाँ भी
मनतोरिया की माई जैसी स्त्री ने भरपूर प्रतिरोध किया था। लेकिन कुच्ची का समय
भिन्न है। शिवमूर्ति ने इस कहानी में स्त्री की सोच में, उसके चरित्र में, उसके साहस
में, उसकी राजनीतिक जागरूकता में, गाँव के सामाजिक परिवेश में, आसपास के समूचे
वातावरण में कालान्तर में आए बदलावों को बखूबी पकड़ा है और
कहानी को नया मोड़ दिया है। कुच्ची प्रतिरोध ही नहीं करती, बल्कि पंचायत की सोच
बदलने का भी प्रयास करती है। इस संघर्ष में उसे धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन जैसे
लोगों का साथ भी मिलता है। आज का गाँव शहर से उतना अलग - थलग भी नहीं है। बाहरी समाज भी गाँव की इस पंचायत के प्रति बखूबी आकृष्ट होता
है। पंचायत में गाँव के धरमराज वकील की महिला सहयोगियों तथा सरकारी
संस्थाओं से जुड़े महिला कार्यकर्ताओं की उपस्थिति इसका उदाहरण है। उनकी
उपस्थिति में पंचायत सरासर मनमानी नहीं कर सकती। इसलिए इस पंचायत में कुच्ची विमली
की तरह परास्त नहीं होती। वह विजयी होती है, भले ही पंचायत पूरी तरह से न्याय के
पक्ष में नहीं खड़ी दिखाई देती। अंत में बनवारी के बेटे विघ्न डालकर पंचायत को
निष्फल बना देते हैं, ताकि उल्टे उन्हीं के प्रतिकूल कोई निर्णय
न हो जाए। कुच्ची पंचायत से भले ही अपनी बात न मनवा पाई हो,
लेकिन पंचायत उसके ख़िलाफ़ भी कोई निर्णय नहीं ले पाती। वह अपनी कोख की स्वायत्तता
की बात मजबूती से समाज के सामने रखती है। वह माँ बनने के अपने अधिकार की रक्षा
करने में सफल होती है। कहानी के अंत में शिवमूर्ति पंचायत में “जागो रे जागो!
भागो रे भागो .... !” का शोर मचवाकर स्त्री की बदलती
स्थिति व समाज की सोच में आ रहे परिवर्तन की उद्घोषणा - सी करते दिखाई देते हैं। निश्चित
ही यह आने वाले समय की दस्तक है। यह इस बात की सूचना है कि स्त्री अब जाग चुकी है
और पुरुष समाज उसे दबाकर उसके साथ और ज्यादा अन्याय नहीं कर सकता। यहाँ स्पष्ट
संकेत है कि परिवर्तन की जो आँधी अभी यहाँ - वहाँ उठ रही है, वह आगे और व्यापक रूप
धारण करेगी तथा सभी कुछ बदलकर रख देगी।
स्त्री का उसकी अपनी
कोख पर कितना और किस तरह का अधिकार हो, शिवमूर्ति की यह कहानी इसी ज्वलन्त मुद्दे
पर केन्द्रित है। शिवमूर्ति इस मुद्दे पर समाज में व्याप्त उत्तर आधुनिक विमर्श को कहानी में एक कदम और आगे ले जाते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने यह विमर्श उन स्त्री - पात्रों के जरिए आगे
नहीं बढ़ाया है जो पढ़े - लिखे हैं, और स्त्री - समाज को परिवर्तन की राह पर आगे
बढ़ाने की मशाल थामे हुए हैं। यहाँ परिवर्तन की मशाल थामकर एक ऐसी स्त्री सामने खड़ी
होती है, जिसका कोई सहारा नहीं है। वह
न तो ज्यादा पढ़ी - लिखी है, न ही आधुनिकता के वातावरण में पली - बढ़ी है। उसके साथ
तो बस उसका आन्तरिक नैतिक एवं वैचारिक बल ही है। उसकी
सास उसके साथ है, लेकिन खुद उसी की प्रेरणा के
कारण। उसके भीतर परिवर्तन की यह चिन्गारी नर्स कुट्टी जैसी स्वतंत्र विचारों वाली
स्त्री की प्रेरणा से जगी है। वकील धरमराज, धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन जैसे
गाँव के आधुनिक सोच वाले लोगों से उसे ज्ञान तथा तार्किक बल मिला है। अत्याचारी जेठ
से उसे मुकाबला करना है। उसे सास - ससुर की संपत्ति हड़पे जाने से बचाना है। उसे
अपने दिवंगत पति बजरंगी का वारिस चाहिए। यह वारिस बजरंगी की बायोलॉजिकल संतान तो
हो नहीं सकती। लेकिन जिस किसी भी स्वीकार्य तरीके से वह गर्भ धारण करके माँ बन
सकती है और अपना वारिस पैदा कर सकती है, वह उसे अपनाने के
लिए तैयार है। इस स्वीकार्यता के लिए यह जरूरी है कि
वीर्यदाता का नाम गुप्त रहे। गर्भ - धारण के अपने अधिकार को हासिल करने के लिए वह
हर तरह का जोख़िम उठाने को तैयार है, पूरे समाज से भिड़ने को तैयार है। जब सास उसकी
मंशा पर शंका व्यक्त करती है, तो वह मजबूती के साथ कहती है, - “किसी का नाम
धरना जरूरी है क्या अम्मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं
है?” उसे गर्भवती देखकर जब चतुरा अइया उसकी दोनों बाहें पकड़कर झिंझोडते हुए फुसफुसाती है - “कैसे बोल रही है रे? किसी ने भूत प्रेत तो नहीं कर दिया? तेरे जेठ
बनवरिया को खबर लगी तो पीस कर पी जायेगा” तो वह
निर्भीकता से जबाब देती है, - “जेठ से क्या मतलब अइया? मैं उनकी कमाई खाती हूँ क्या? उनका चूल्हा अलग, मेरा अलग।”
जब भरी पंचायत में कोख
पर अधिकार का मुद्दा गरमाता है तब बलई पांडे कुच्ची को परंपरा और नैतिकता के नाम पर कुलटा साबित करने का प्रयास करता है।
वह हज़ारों साल पहले याज्ञवल्क्य मुनि द्वारा प्रदिपादित विरासत के
कानून तथा उसकी प्रचलित टीकाओं का उल्लेख करते हुए अपने ज्ञान के भंडार का
प्रदर्शन करने लगता है। वह यह दावा भी करता है कि पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर
लाल नेहरू ने भारत के वर्तमान उत्तराधिकार, विवाह, गोदनामा आदि से संबन्धित कानून याज्ञवल्क्य
मुनि के उन्हीं प्राचीन सिद्धान्तों के आधार पर ही बनवाए हैं। वह कुच्ची पर अनपढ़
होने तथा कानून के न जानने का आरोप लगाते हुए उसे यह कहकर धमकाता है कि कानून बड़े -
बड़े को मुर्गा बना देता हैं और जब चाँपता है तो मुँह से फिचकुर निकल आता है। लेकिन
कुच्ची बलई के पांडित्य - प्रदर्शन से डरने वाली तो है नहीं। गर्भ - धारण के अधिकार पर वह साफ़ बोल देती है, - “हम बैपारी तो हैं नहीं कि
घाटा - नफ़ा जोड़कर सौदा करें।” फिर वह, - “कानून में चाँपने की बात भी लिखी
है महराज?” जैसा चुटीला प्रतिप्रश्न करके बलई तथा बनवारी दोनों को ही मुलज़िम बनाकर
सामने खड़ा कर देती है। चर्चा के अंत में पंचायत में मौजूद
बाह्य स्त्री - शक्ति भी कुच्ची के समर्थन में आ खड़ी होती है। वहाँ बाजार से आयी
महिलाओं के बीच से जब एक लड़की उसके समर्थन में खड़ी होकर बोलती है, - “याज्ञवल्क्य
कब के मर मरा गए लेकिन उनका बनाया फंदा अभी भी औरतों के गले में फँसा हुआ है। वक्त
आ गया है कि मरे हुओं का कानून मरे हुओं के साथ दफन कर दिया जाए। ऐसा कानून बने
जिससे हम भी जिंदा लोगों की तरह जिंदा रह सकें। हम सब अपनी इस बहादुर बहन के साथ
हैं” तब सारी पंचायत निरुत्तर हो जाती है। इस प्रकार पंचायत में बलई का
दकियानूसी कानून धरा का धरा रह जाता है और जीतता है बस कुच्ची का कानून। संपूर्णता
में देखा जाय तो भारत में हो रहे पारंपरिक व जातीय खाप पंचायतों के अन्यायपूर्ण व
अमानुषिक फैसलों के विरुद्ध समाज में बढ़
रहे अविश्वास और आक्रोश को एक नई दिशा देती है यह कहानी। यहाँ शिवमूर्ति ने कुच्ची
के जरिए कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर की चौखट से बाहर निकाल उस पर भरी
पंचायत में बहस कराकर उसे एक सामाजिक बहस का मुद्दा बनाने का प्रयास किया है और
यही उनकी इस कहानी की खास अहमियत है।
आलोचक वैभव सिंह अपने लेख ‘वर्तमान कहानी और सर्जनात्मकता की चुनौती’ (बहुवचन 37; अप्रैल - जून
2013) में कहते हैं, - ‘दूसरों के अनुभव का हिस्सा बनना, उनकी दृष्टि को ग्रहण
करना और अपने अहं के पार जाकर दूसरों के मर्म को छूना ही वह जरूरी प्रक्रिया है जो
किसी कहानीकार को बड़ा बनाती है।’ शिवमूर्ति इस दृष्टि से बहुत बड़े कथाकार हैं।
अपने पैतृक गाँव तक उनकी आवाजाही निरन्तर होती रहती है। गाँव की सामाजिक, राजनीतिक
व आर्थिक स्थित से वे बहुत नजदीक से वाक़िफ हैं। अपनी कथा के वृतान्त व पात्रों का
चयन वे गाँव के वास्तविक जीवन से करते हैं। इसीलिए कहानियों में उनके पात्र एकदम
सजीव लगते हैं। ‘कुच्ची का कानून’ में भी शिवमूर्ति ने अपने गाँव के सामाजिक
यथार्थ का अधिग्रहण किया है। अपनी अनुभव संपन्न दृष्टि से उन्होंने गाँव की एक
साधारण स्त्री को एक बड़े परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाली नेत्री के रूप में प्रस्तुत
किया है। जिसने आधुनिकता के आसमान में एक पल भी मुक्त सांस न ली हो, गाँव की
एक ऐसी साधारण व पारंपरिक सोच वाले परिवार की नवविवाहित
विधवा कुच्ची के भीतर कोख के अधिकार की संरक्षा करने तथा आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ने
जैसा उत्तराधुनिक विचार अचानक कहाँ से पैदा हो जाता है! शिवमूर्ति ने इसके लिए
कहानी में एक बड़ा ही स्वाभाविक धटनाक्रम सृजित किया है। कुच्ची के भीतर आए
परिवर्तन का ट्रिगर प्वांन्ट कहानी के उस संवाद में छिपा है, जो सास के इलाज़ के
समय जिला अस्पताल में कुच्ची और वहाँ की नर्स कुट्टी के बीच में होती है। शिवमूर्ति
द्वारा रचित यह संवाद अद्भुत है और शिवमूर्ति की कथा - यात्रा में आए नए मोड़ को उद्घाटित करने वाला है, -
“बच्चा एक फ्रेंड से ‘गिफ्ट’ लिया। उसके साथ महीने भर सोया और बच्चा मिल
गया। फ्रेंड बोला - शादी बनाएगा? हम बोला - नहीं। हसबैंड
बनते ही ‘लभर’ डेमन बन
जाता। डेमन समझती?”
“मरद की जरूरत तो पड़ती है न। कुच्ची
मुस्करायी।”
“जरूरत पड़ने पर मरद मिल सकता।
जरूरत पड़ने पर बच्चा मिल सकता। सैंडिल खटखटाकर जाती हुई कुट्टी मुड़कर मुस्कराते
हुए बोली - मरद नहीं, हसबैंड ख़तरनाक होता।”
कुच्ची के युवा मन में नर्स
कुट्टटी की बातें सुनकर अचानक आ धमके वैधव्य
के कारण नि:संतान रह जाने तथा नि:संतानता के कारण पारिवारिक संपत्ति व सामाजिक
वजूद खो देने की स्थिति पैदा होने की पीड़ा असह्य हो उठती है।
वह मन ही मन इस स्थिति से निपटने का निर्णय ले लेती है। उसे ससुर से किसी भी तरह
के समर्थन की उम्मीद नहीं। वह निस्वार्थ मन से सास की सेवा करती है। जब पैर ठीक हो
जाने पर सास अस्पताल से घर लौट आती है, तब वह उससे बनवारी की
बुरी नज़र और उसके इरादों का खुलासा करती है। सास को बहू पर पूरा भरोसा है। वह सिर्फ़
उससे सहानुभूति ही नहीं जताती, बल्कि ऊँच - नीच समझाने के बाद उसके साथ संघर्ष में
जुड़ने को भी तैयार हो जाती है, किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट कर देती है कि मोर्चा
कुच्ची को ही सँभालना है। कहानी में कुच्ची और सास के बीच रात को सोने के पहले हुआ
यह संवाद भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध निरन्तर
कुचली जा रही स्त्री के द्वारा विद्रोह का बिगुल कैसे बजाया जाय, उसका उत्तम उदाहरण है, -
‘थोड़ी देर तक बिसूरने के बाद रंज
डूबी आवाज में कहा था बहू ने – “ए अम्मा! मन करता है
एक, दो बेटे पैदा कर डालूँ जो बड़े होकर इसके ‘उसमें’ डंडा डाले।”
बूढ़ी चोट खाई बहू के मन के उबाल को
समझ रही थी। शांत स्वर में समझाया था – “यही काम तो औरत नहीं कर सकती बिटिया।”
“औरत ही तो कर सकती है अम्मा। मर्द
थोड़े कर सकता है।”
“ऐसा मत कर डालना मेरी बच्ची। गाँव
रहने नहीं देगा। बनवरिया जीने नहीं देगा।”
“अभी कहाँ जीने दे रहा है अम्मा।
इसीलिए तो जरूरी है।”
“जरूरी तो बहुत है बिटिया लेकिन क्या
कर सकते हैं। हमारा ‘टैम’ निकल
गया।”
कुच्ची भय, प्रताड़ना और यौनिक शोषण का
अपमान झेलने वाली एक अबला विधवा का जीवन नहीं जीना चाहती। वह अपनी अस्मिता बचाने के
लिए, अपने हक़ को हासिल करने के लिए, अपने परिवार की संपत्ति की रक्षा के लिए, अपने
मातृत्व की पूर्णता के लिए संघर्ष करना चाहती है। घर में बीड़ी जलाने के लिए आग माँगने
के बहाने घुस आए लालची व लंपट जेठ बनवारी का कुच्ची अकेलेदम जिस साहस के साहस के साथ
सामना करती है, वह रोमांचकारी है। वह अपने हाथ में हँसिया तान लेती
है और उसे हवा में लहराते हुए बनवारी को ललकारती है - “बाप
की तरह लगते हो और राल चुआते शरम नहीं आती?” जब बनवारी उसे - “पहले मेरी बात तो सुनो कुच्चन! मुझे दुश्मन क्यों समझती हो? मैं दोनों को रख लूँगा। इस घर में तुम राज करो। उस घर में सुलछनी। कहीं
जाने की जरूरत क्या है?” कहकर प्रलोभित करने की कोशिश
करता है तो वह - “कान खोल कर सुन लो। हमारी राहें जुदा हैं और जुदा रहेंगी। फिर
कभी मेरी राह काटने की कोशिश किए तो अपने और तुम्हारे खून की धार एक कर दूँगी।”
कहकर अपना इरादा तथा संकल्प दोनों स्पष्ट बता देती है। कुच्ची सास से बनवारी द्वारा परिवार की ज़मीन हड़पने के प्रयासों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने
के अपने इरादों का जिन शब्दों में इज़हार करती है, वे कथाकार शिवमूर्ति के चिर - परिचित
कथा - शिल्प का एक बेहतरीन नमूना हैं, - “लेकिन मैं उसे लीलने दूँगी तब न। सिंघी मछली बन कर उसके गले में अटक जाऊँगी। उसकी आंत में हाथ डाल
कर अपनी जमीन निकालूँगी। अब मैं आप लोगों को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाली। जैसे आप
लोग उनके माँ - बाप थे वैसे ही मेरे हैं।” उसकी आवाज़ क्रमश: ऊँची होती गयी - “ख़बर करवा दीजिए मेरे बाप को कि अब कुचिया की जिंदगी अपने सास ससुर की सेवा
में कटेगी। करे जितनी बदनामी करना चाहे यह पापी।” इसी तरह जब उसे भरी पंचायत
के बीच पंचों के निर्णय को मानने की अग्रिम सहमति के लिए बाध्य किया जाता है, तो वह
यह जानते हुए कि बनवारी पंचों को अपने पक्ष में करने के लिए सुबह से ही उन्हें गुड़
खिला - खिलाकर पानी पिलवा रहा है, बड़ी ही बेबाकी से उनकी निष्पक्षता को शक के दायरे
में ला देती है, - “बचन तो दे दिए बाबा कि पद मानेंगे। अगर पंच
दूसरे फरीक का गुड़ खाकर कहने लगें कि कुच्ची की आंख फोड़
दो, कान काट लो तो कैसे मानेंगे?” पंचायत में होने
वाली बहस के बीच उसकी यह स्पष्ट घोषणा सभी पंचों को सकते में डाल देती है, - “ऐ आजी!” कुच्ची खड़ी होती है - “कुंती माई डर गयीं, अंजनी
माई डर गयीं, सीता की माई डर गयीं,
लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।”
कहानी में स्त्री - संघर्ष की यह उड़ान
कुच्ची तक ही सीमित नहीं है। उसने अपनी बूढ़ी सास के भीतर भी संघर्ष का पर्याप्त जज़्बा
जगा दिया है। ससुर रमेसर डरपोक हैं। वे भतीजे से झगड़ा नहीं बढ़ाना चाहते। वे बूढ़ी पत्नी
को भी लड़ने से रोकते हैं। वे बहू पर बिना वजह झगड़ा बढ़ाने का आरोप लगा बैठते हैं। बूढ़ी
सास बहू पर लगे इस आरोप को बर्दाश्त नहीं कर पाती। वह बिफर उठती है। यहाँ पति से कहा
गया उसका एक - शब्द पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर हथौड़े मारने जैसा है, - “क्या बकते हो?” बूढ़ी गुस्से से फुफकारी – “झगड़े की जड़ बहू है कि तुम्हारा वह कसाई भतीजा,
जिसके मुँह में लगाम नहीं है। जो हमारी खेती बारी और घर दुवार पर ही नहीं बहू पर
भी दाँत गड़ाए बैठा है। बहू तो इस घर में ब्याह कर आयी है।
उसी का तो सब कुछ है। अभी उसे पहुँचा दोगे तो मुझे पकड़ कर जंगल तुम ले चलोगे? रोटी तुम सेकोगे? मेरे ठीक होने के बाद वह अपनी
मरजी से जाना चाहेगी तो शौक से बेटी की तरह विदा करेंगे और रहना चाहेगी तो घर की
मालकिन बना कर रखेंगे। उसे कौन निकाल सकता है? ऐसी बात मुँह
से निकाली कैसे? कहाँ का गुस्सा कहाँ उतार रहे हो? चीलर के डर से कोई कथरी फेंक देता है?”
यहाँ एक ही झटके में स्त्री के साथ घटित होने वाली अनेक प्रकार की
वंचनाओं का प्रश्न उठाया गया है। बहू के अधिकार का प्रश्न, घर के भीतर तथा बाहर के
कामों को निपटाने में उसकी भूमिका का प्रश्न, अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने
की उसकी स्वतंत्रता का प्रश्न। चीलर के डर से कथरी फेंक देने जैसे मुहावरे का
प्रयोग करके शिवमूर्ति ने यहाँ भाषा को भी अद्भुत निखार दिया है।
शिवमूर्ति ने ‘कुच्ची का कानून’ में पंचायत
को एक तरह के शास्त्रार्थ की वेदी की भाँति प्रस्तुत किया है। यहाँ शास्त्रार्थ का
विषय किसी निगूढ़ आध्यात्मिक दर्शन अथवा धार्मिक विचार के निष्पादन से जुड़ा नहीं है।
यहाँ विचारणीय विषय एक विधवा स्त्री के कोख के अधिकार से जुड़ा है। माँ बनने के उस विधवा
के संकल्प से जुड़ा है। यहाँ वह विधवा एक सामान्य अबला है। वह धर्म - शास्त्रों की ज्ञाता
नहीं है, किन्तु उसका व्यावहारिक ज्ञान प्रबल है। उसकी साधारण बुद्धि में असाधारण तर्कशीलता
समाहित है। यहाँ पंचों का समूह रूढ़ियों का पक्षधर है, परम्परा का अंधपोषक है। पितृसत्तात्मक
व्यवस्था को बनाए रखने में उसका अपना निहित स्वार्थ है। वह किसी बात को तर्क की कसौटी
पर नहीं कसना चाहता। कुच्ची के लिए आशा की किरण केवल धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन
जैसे लोग हैं, जिनकी पक्षधरता तो स्पष्ट नहीं किन्तु न्यायप्रियता असंदिग्ध है। इसीलिए
कुच्ची उनसे पंचायत में आने का विशेष रूप से अनुरोध करती है। कुच्ची पंचायत के सामने
अपने हर कृत्य को तर्क की कसौटी पर कसती हुई सामने रखती है। गर्भधारण की आवश्यकता के
बारे में उसके पास, - “मेरा आदमी तो एक बार मर कर फुरसत पा गया
लेकिन मुझे बेसहारा समझ कर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं
मरते मरते थक गयी तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ” जैसा मजबूत
तर्क है। पुनर्विवाह न करने के बारे में, - “दूसरी शादी कर लेती
तो मेरे सास - ससुर बेसहारा हो जाते बाबा। इनको बेसहारा छोड़कर जाते नहीं बना।
मेरा रिश्ता मेरे आदमी तक ही तो नहीं था” जैसा उसका
तर्क भी दमदार है। उसकी कोख पर दूसरी शादी करने तक केवल बजरंगी का ही हक़ है यह कहे
जाने पर, - “मरे हुए आदमी के काम तो यह कोख आ नहीं सकती बाबा।
उनके मरने के बाद किसका हक बनता है? … मेरी कोख पर मेरा हक
कब बनेगा?” जैसे उसके प्रतिप्रश्न पंचायत को निरुत्तर कर देने लायक हैं।
किन्तु प्रश्न पूछ रहे बलई बाबा तो शास्त्रार्थ में उसे परास्त करने की ठाने हैं, सो
वे निरुत्तर कैसे रह सकते हैं। जब वे उस पर, - “बजरंगी के घर का हक हकूक भी लेगी और हराम का बच्चा भी पैदा करेगी, ऐसा कैसे होगा?” जैसा प्रश्न दागकर उसे फिर से कटघरे में खड़ा करने
का प्रयास करते है तो वह, “वे तो जन्माने के लिए अब सरग से
लौटकर आने से रहे और अकेले मैं जनमा नहीं सकती थी” जैसी बात कहकर विलक्षण
प्रत्युत्पन्न मति का प्रदर्शन करती है। पंचायत में बलई बाबा के साथ होने वाला आगे
का संवाद और भी खरा - खरा है, -
“तो तूने हराम की औलाद से बजरंगी का
वंश चलाने की ठानी है। वाह!”
“उनका चले न चले। मेरा तो चलेगा।”
“अरे मूर्ख, वंश माँ से नहीं बाप की
बूँद और नाम से चलता है।
“ऐसा क्यों है बाबा? पेट में तो नौ महीना सेती है महतारी। बाप तो बूँद देकर किनारे हो जाता
है।”
बलई बाबा पंचायत में
तरह - तरह के तर्क - वितर्क करते हैं। कुच्ची हर प्रश्न का तर्कपूर्ण तरीके से
मुँहतोड़ जबाब देती है। अपनी होने वाली संतान के हक़ के बारे में उसका यह सटीक जबाब
देखिए, - “आपने तो गजब का कानून बताया बाबा। दूसरे का पैदा किया हुआ गोद ले लूँ
तो उसे सब कुछ मिल जाएगा और अपनी कोख से पैदा करूँगी तो उसे कुछ भी नहीं मिलेगा।
जो मेरी कोख से पैदा होगा उसका आधा चाहे जिसका हो लेकिन आधा खून तो मेरा होगा। गोद
वाले बच्चे में तो मेरे खून की एक बूँद भी नहीं होगी। दोनों में से मेरा ज्यादा
सगा कौन हुआ?” जब पंचायत उसके गर्भ - धारण को पौराणिक आख्यानों में
वर्णित कौशल्या, कुन्ती आदि के गर्भ - धारण से भिन्न व निम्नतर सिद्ध करने तथा उसके
कृत्य को व्यभिचार की श्रेणी में माने जाने के लिए तर्क करती है तो कुच्ची बड़ी सादगी
से कहती है, - “खीर - हलुआ खाने और सुमिरन करने से रानी महारानियों
के पैदा होते होंगे पंचो! उनकी मदद करने तो देवता - पित्तर सब दौड़ पड़ते हैं।
लेकिन हमारे जैसों की मदद करने वाला तो कोई मानुख पुरुख ही होगा।” और जब पंचायत कुच्ची से उसके मन में बस गए उस मददगार मानुख पुरुख का भेद
जानना चाहती है तो वह बड़ी ही साफ़गोई से उत्तर देती है, - “हर औरत के मन में कोई
न कोई पुरुख बसता है। कभी वह उसे पा जाती है कभी नहीं पाती। नहीं पाती तो जिसे
पाती है, उसी में रम जाती है। मेरे मन में पहले से नहीं बसा था लेकिन जरूरत पड़ी
तो बसाना पड़ा।” कुच्ची के इस कथन में स्पष्टवादिता के अलावा विद्रोह की सूचना
भी है, अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की तैयारी का संकेत भी है और स्त्री की सोच में आ रहे
परिवर्तन की बानगी भी है।
पंचायत की चर्चा में निष्पक्षता
के साथ अपनी बात रखने वाले गाँव के सम्मानित बुजुर्ग धन्नू बाबा कुच्ची से
सहानुभूति रखते हैं। वे धर्म - शास्त्रों के ज्ञाता है, अत: गाँव वालों को उनकी
बातों पर भरोसा रहता है। वे कुच्ची को मानते हैं तथा उसके बल, स्वभाव तथा सौन्दर्य के प्रशंसक भी हैं। उनकी दृष्टि में कुच्ची को ‘बेइज्ज़त’
करके सारा गाँव ‘बेइज्ज़त’ हो जाएगा। शिवमूर्ति के शब्दों में कुच्ची को नि:संतान
विधवा के रूप में देखकर बाबा को उतना ही दु:ख होता है, जितना सोलह आने मालियत वाले
खेत को परती पड़ा देखकर होता है। धन्नू विनोदी स्वभाव के हैं,
अत: मन की बातों को मजाकिया लहजे में कह जाते हैं। जब कुच्ची
उन्हें पंचायत में आने के लिए मनाने जाती है तो वे बड़े ही विनोदपूर्ण तरीके से उसके
नाम की उत्पत्ति ‘कुचवती’ शब्द से हुई बताकर उसके चित्त को प्रसन्न एवं तनावमुक्त
कर देते हैं। कुच्ची पंचायत से पहले लगातार तीन दिन तक बाबा के पास बैठती है और शास्त्रोक्त
नियमों तथा समस्या का सामना करने के व्यावहारिक पहलुओं का ज्ञान प्राप्त करती है।
बाबा कुच्ची को पति की सहभागिता के बिना ही माँ बनने वाली तमाम सुप्रसिद्ध पौराणिक
पत्नियों के प्रसंगों का इन शब्दों में स्पष्ट उल्लेख करके
उसका मनोबल ऊँचा बनाए रखने में मदद करते हैं, - “कोई बात नहीं। तू पहली औरत
थोड़े है जो इस तरह माँ बनी है। जब से यह दुनिया बनी है, ऐसे अनगिनत बच्चे पैदा होते रहे हैं। एक से बढ़कर एक प्रतापी, एक से बढ़कर एक महारथी।” बाबा उसे कर्ण, हनुमान, सीता, पाँचों पांडवों आदि की पैदाइश के किस्से सुनाते
हुए कहते हैं, - “तू पहली औरत है जो कह रही है कि अपनी जरूरत से पैदा कर रही हूँ।
ऐसा सोलह आने का सच कौन बोल पाया है आज तक?” निश्चित ही शिवमूर्ति
ने इस कहानी में इन पौराणिक प्रसंगों की एक नए यथार्थबोध के साथ नूतन व्याख्या ही नहीं
की है, बल्कि यह सिद्ध करने की भी कोशिश की है यदि हम इन सब प्रसंगों में वर्णित स्त्रियों
के विवाहेतर गर्भ - धारण को, उनके मातृत्व को, उनसे जनित संतानों के अधिकारों को स्वीकार्य
एवं संरक्षण योग्य मानते हैं, तो फिर कुच्ची के गर्भधारण को हेय कैसे मान सकते हैं,
इसके लिए उसका अपमान कैसे कर सकते हैं, उसके चरित्र को तो इन श्रेष्ठ पौराणिक माताओं
के चरित्र से भी अच्छा माना जाना चाहिए। निश्चित ही जब कुच्ची भरी पंचायत में, - “कुंती माई डर गयीं, अंजनी माई डर गयीं, सीता की माई डर गयीं, लेकिन बालकिसन की माई डरने
वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।” कहकर गरजती है, तो उसके पीछे
धन्नू बाबा का दिया हुआ नूतन नैतिक अवबोध ही उसे बल प्रदान कर रहा होता है, उसे निर्भीक
बना रहा होता है।
भारतीय गाँवों की
अधिकांश सामुदायिक पंचायतों की यही विडंबना है कि वे प्राय: पहले से ही विवाद से संबन्धित दबंग अथवा जबर व्यक्ति या परिवार के पक्ष में झुकी हुई होती हैं और उसी के पक्ष में निर्णय करती हैं। उनके नीति - न्याय के
सिद्धान्त भी अक्सर परंपरागत मान्यताओं अथवा रूढ़ियों द्वारा संचालित होते हैं और
पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं। शिवमूर्ति ‘कुच्ची का कानून’ में जिस पंचायत का
ताना - बाना बुनते है, वह भी इस स्थिति का अपवाद नहीं है। यहाँ भी पंचायत का
मुखिया लछिमन चौधरी शुरू से ही बनवारी के पक्ष में खड़ा है। जब उसे कुच्ची के
तर्कों की काट नहीं समझ में आती तो वह उसकी संतान के हक़ के संबन्ध में एक नए
सिद्धान्त को सामने रखकर अपनी टाँग अड़ाने की कोशिश करता है,
- “मेरे विचार से तो बीज ही प्रधान है। खेत किसी का हो, जो बोया जाएगा वही पैदा होगा। आम के बीज से आम। बबूल के बीज से बबूल।
बोया बीज बबूल का, आम कहाँ से होय?” लेकिन यह कुच्ची का सौभाग्य है कि पंचायत में उसके अधिकार की अनुशंसा
करने वाली गाँव की संघर्षशील व खरी - खरी कहने वाली पूर्व प्रधान सुघरा ठकुराइन भी
मौजूद हैं। लछिमन चौधरी द्वारा प्रतिपादित बीज के अधिकार के सिद्धान्त को सुघरा
ठकुराइन एक ही झटके में यह कहकर भोथरा कर देती हैं, - “सवाल यह नहीं है कि क्या
बोने से क्या पैदा होगा। इसे तो पीछे बैठ कर हँस रहा वह बग्गड़ भी जानता है। …… सवाल
यह है कि फसल पर हक किसका होगा? एक आदमी अपने खेत में
गेहूँ बो रहा है। उसके बीज के कुछ दाने बगल के जौ के खेत में छिटक कर चले गए। फसल
तैयार होने पर साफ पता चल रहा है कि गेहूँ के पौधे बगल वाले के बीज से पैदा हुए
हैं। तो क्या गेहूँ के खेत वाला जौ के खेत में उगे गेहूँ के उन पौधों पर अपना हक
जता सकता है?” सुघरा के इस तर्कपूर्ण प्रश्न से बाजी लछिमन चौधरी के हाथ
से निकल जाती है। सुघरा से भिड़ने का साहस पंचों में नहीं है, क्योंकि उसने पूर्व में
अपनी पारिवारिक संपत्ति के विवाद में पुरुष वर्चस्व को तोड़ने के लिए काफी संघर्ष किया
हुआ है। बलई पांडे को तो वे भरी पंचायत में ही पराई औरत को रात भर घर में बंद करके
रखने का प्रत्यारोप लगाकर चित्त कर ही देती हैं। लछिमन चौधरी को चुप कराने की रही
- सही कसर धन्नू बाबा गाँव में 'लमेर' संतानों की स्वीकार्यता होने की बात उठाकर पूरी
कर देते हैं। उनका इशारा स्पष्ट है कि चूँकि चौधरी खुद बर्मी माँ की लमेर औलाद है,
किन्तु गाँव वालों ने कभी उसके असली बाप के बारे में प्रश्न नहीं उठाया है, इसलिए वह
कुच्ची के गर्भ से जुड़े पुरुष की असलियत का खुलासा किए जाने की जिद नहीं कर सकता।
सुघरा ठकुराइन पंचायत में कुच्ची के बहाने
भारतीय स्त्री की वर्तमान स्थिति को चर्चा के दायरे में लाने की कोशिश करती हैं। वे
पौराणिक काल से समाज में स्थापित पुरुष - वर्चस्ववादी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाती
हैं। सदियों के अन्याय के विरुद्ध उनका यह प्रहार बहुत ही तीखा है, -
“कुच्ची ने न सही, लेकिन हजारों
साल से इस देश में पैदा हो रही औरतों ने जरूर सबक सीखा है। उसी सीख से उनका कलेजा
पत्थर का हो गया है। उसी का डर दिखाकर वे आज भी भेड़ के झुंड की तरह हांकी जा रही
हैं। लेकिन यह बताइये कि गौतम मुनि ने अपनी सारी मर्दानगी अपनी ही औरत पर ही क्यों
दिखायी? सूने घर में घुसकर जिसने छल से अकेली औरत की इज्जत
लूटी उसका तो आप कुछ उखाड़ नहीं पाये। वह मूँछ ऐंठता मुस्कराता सामने से निकल
गया। उल्टे खिसियाहट मिटाने के लिए अपनी ही छली गयी पत्नी को पत्थर बना दिया। यह
कैसा इंसाफ है? इसमें औरत के सीखने के लिए क्या है?” सुघरा का यह वक्तव्य कहानी का बहुत ही
महत्वपूर्ण अंश है। इसमें भारतीय समाज की स्थापित पुरुषवादी मान्यताओं के विरुद्ध
एक जागरूक एवं संघर्षशील स्त्री द्वारा किया गया तीखा आक्रमण है। परम्परा का
विखंडन है। उसकी निरर्थकता का उद्घोष है। इसमें स्त्री को नई दिशा में बढ़ने का
आह्वान है।
कोख पर स्त्री के अधिकार जैसे मुख्य मुद्दे
से इतर भी इस कहानी में बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारी संवेदना को भीतर तक आंदोलित करता
है। वैसे भी शिवमूर्ति की किसी भी कहानी में हम गाँव के उस रूप को देखने की अपेक्षा
रखते हैं, जो यथार्थ के बहुत ही करीब होता है। उसमें रूमानी या काल्पनिक कुछ नहीं होता।
जो खोटा है, सो खोटा है। जो टेढ़ा - मेढ़ा या कुरूप है, सो वैसा ही है। एक लंबे अरसे
से मैं शिवमूर्ति की कहानियों को ग्रामीण समाज के यथार्थ के सत्यापन का एक निमित्त
मानता आया हूँ। हमारे गाँवों का वह यथार्थ ‘कुच्ची का कानून’ में भी प्रत्यक्ष झलकता
है। हाँलाकि इस कहानी में शिवमूर्ति ने स्त्री के निजी संघर्ष से आगे जाकर गाँव की
दशा और दिशा पर निगाह डालने की ज्यादा कोशिश नहीं की है, फिर भी एक सशक्त कथाकार होने
के नाते वे उस परिवेश को एकदम नज़रंदाज़ भी नहीं कर पाए हैं। कहानी के एक महत्वपूर्ण
पात्र व पंचायत के प्रमुख नीति - न्यायकर्ता बलई बाबा के लेटने का यह दृश्य ही देखिए,
- ‘बलई बाबा खा पीकर रात के अंधेरे में द्वार से थोड़ा हटकर
पाकड़ के पेड़ के नीचे मूंज की चारपाई पर बिना कुछ बिछाए लेटे हैं। नंगे बदन।
पसीने से लथपथ। धोती को ऊपर तक खींचकर लंगोट की शक्ल दे दिया है। बाध पर पीठ रगड़
- रगड़कर खुजला रहे हैं। हाथ का बना बेना डुला कर मच्छर भगा रहे हैं।’
हमारे गाँवों का जीवन आज भी यही है, पसीने में लथपथ, आधुनिक सुख - सुविधाओं से वंचित,
पेड़ों की छाँव में जीता हुआ। इसी तरह का एक और रोचक दृश्य तब सामने आता है, जब कुच्ची
ससुराल से विदा होने को तैयार होती है। उसके पिता शादी में दिया हुआ सारा गहना - गीठी सास को सौंप कर हिसाब - किताब चुकता करने में लगे हैं, ताकि बाद में कोई तकरार न पैदा हो। ऐसे में कुच्ची की निगाह जिस सच्चाई
पर जाकर अटकती है, वह दृश्य बड़ा ही मार्मिक है, - "इतनी
भीड़ देख कर बाहर बंधी भैंस खूंटे के चारों तरह पगहे को
पेरते हुए चोकरने लगी। यह भैंस भी गौने में उसके साथ मायके से आयी थी। उसके ‘आदमी’ को गवहीं खाने के नेग में दिया था उसके बप्पा
ने। तो क्या उसके साथ भैंस को भी लौटना होगा?" ग्रामीण जीवन के ये
सहज बिम्ब शिवमूर्ति की कहानी को पाठक के दिल के बहुत करीब ले आते हैं, उसे अत्यधिक
सुग्राह्य बना देते हैं।
शिवमूर्ति की इस कहानी
में देश की व्यवस्था अथवा राजनीतिक स्थिति की ज्यादा चीड़ - फाड़ करने का स्कोप नहीं
है, लेकिन जहाँ भी इसका मौका मिला है, उन्होंने इसे गँवाया नहीं है। कुच्ची जब
पाँव में फ्रैक्चर हो जाने पर सास को जिला अस्पताल ले जाती है, तो वह भारत की लचर
एवं भ्रष्ट स्वास्थ्य व्यवस्था से दो - चार होती है। वहाँ गाँव के देवर लगने वाले
धरमराज वकील की मदद से किसी तरह दबाव बनवाकर वह सास को अस्पताल में एडमिट तो करा ले जाती है, लेकिन इलाज़ की गाड़ी तब भी ठीक से आगे नहीं बढ़ती। शिवमूर्ति ने कहानी में जिला अस्पताल की दुर्दशा का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है, - “सही कहा था नर्सिंग होम के दलाल ने।
पैसा न पाने के चलते डाक्टर तीन दिन तक आपरेशन टालता रहा। सबेरे कहता कि कल
करेंगे। कल आता तो फिर कल पर टाल देता। देर होने से मवाद पड़ जाने का डर था।
वार्डब्वाय और नर्स पहले दिन से ही डरा रहे थे कि यमराज से झगड़ा करके पार नहीं
पाओगे तुम लोग, देहाती भुच्च। एक इंच भी पैर छोटा हो
गया तो जिंदगी भर भचकते हुए चलेगी बुढ़िया। देवर से कहो कि अपना रुआब कचेहरी में
ही दिखाए। इस बार आ गया तो हाथ पैर तुड़ाकर इसी वार्ड में भर्ती होना पड़ेगा।” यह हमारे सरकारी अस्पतालों का नग्न यथार्थ है। जहाँ देखो, मरीज़ों की अपार
भीड़। कहीं कोई पुरसाहाल नहीं। समय पर
इलाज़ और सेवा उसी को मिलती है, जिसका कोई जान - पहचानवाला हो अस्पताल में। नहीं तो पर्चा
बनवाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने, टेस्ट करवाने, रिपोर्ट लेने, दवा इशू करवाने आदि
में दिन - दिन भर लाइन लगाए रहो। अस्पताल में जैसे पूरे समाज का रोगी चेहरा एकमुश्त
सामने आ जाता है। मरना - जीना तो अस्पताल में रोज़ का खेल है।
किसी को किसी के मरने की कोई चिन्ता नहीं। सब एक रोटीन का हिस्सा है।
कहानी में शिवमूर्ति
अस्पताल के बहाने समाज की रुग्णता पर भी एक बिहंगम दृष्टि डालते हैं। आज लोग तरह -
तरह की बीमारियों से मर रहे हैं। जो नहीं मर रहे हैं, वे मार दिए जा रहे हैं।
सहिष्णुता विचारों से फ़ना हो गई है। रिश्ते टूट रहे हैं। स्त्री - पुरुष के
रिश्तों में भी कोई भावनात्मक लगाव नहीं। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियाँ रोज़
पीटी जा रही हैं, ज़िन्दा जलाई जा रही हैं। कहीं दहेज के लिए, कहीं बेटी जनमने के
लिए। जिला अस्पताल के वार्ड का यह वर्णन करते समय शिवमूर्ति एक कथाकार नहीं, किसी जघन्य अपराध के केस के चश्मदीद गवाह बने नज़र आते हैं,
- “बेड नं0 7 बर्न बेड है। यह भी सबेरे - सबेरे अपना चादर तक़िया बदल कर तैयार
हो जाता है। इस पर आने वाली औरतों में ज्यादातर नवब्याहताएँ होती हैं। किसी की
गोद में साल भर की बच्ची, किसी की गोद में छ: महीने
की। वह बेड भी शायद ही कभी खाली रहता हो। जहर खाने वालियों की मुक्ति तो उसी दिन
हो जाती है लेकिन जलने वालियाँ चार - पांच दिन तक पिहकने के बाद मरती हैं। कभी - कभी
पूरा शरीर संक्रमित होने में हफ़्ते दस दिन लग जाते हैं। कितनी बहू बेटियाँ हैं इस
देश में कि रोज जलने और ज़हर खाने के बाद भी खत्म होने को नहीं आ रही हैं?”
यह एक ऐसा प्रश्न है जो किसी को भी हिलाकर रख दे। लेकिन संवेदनाविहीन हो चुके इस समाज
में ऐसे सवालों की किसे परवाह है? लोग हताश होकर धड़ाधड़ आत्महत्या कर
रहे है। स्त्रियों के लिए तो आत्महत्या जैसे जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने का
सबसे सरल उपाय बन चुकी है। शिवमूर्ति अस्पताल के इमरजेन्सी
वार्ड के उस बेड का वर्णन भी दिल को कचोट लेने वाले अंदाज़ में करते हैं, जहाँ
स्त्रियाँ सिर्फ़ मृत्यु की सांस लेने के लिए ही लाई जाती हैं, - “इस बेड का नाम
ही है - ‘प्वाइज़न बेड’ ज़हर
खाकर आने वाली औरतों के लिए रिज़र्व। रोज इसी समय कोई न कोई आती है, बिना नागा। सिर्फ औरतें। आदमी एक भी नहीं। सब बीस - पच्चीस साल की उम्र
वाली। ज्यादातर ‘सल्फ़ास’ खाकर। गाँव
देहात के घरों में वही सहज उपलब्ध है।” कुच्ची के भीतर स्त्री के अधिकार
की संचेतना और आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करने की दृढ़ इच्छाशक्ति इन्हीं सब दृश्यों की
भयावहता के बीच से पैदा हुई है।
शिवमूर्ति देशज शब्दों से अँटी हुई जिस
तेज - तर्राक एवं सुग्राह्य भाषा एवं विशिष्ट कथा - शिल्प के लिए जाने जाते हैं, ‘कुच्ची
का कानून’ भी उसी को अपने में समेटे हुए है। फर्क़ है तो बस इतना ही कि इसमें उनकी पूर्व
की कहानियों की तुलना में वैचारिक उत्ताप कुछ ज्यादा है। संवादों में तर्कशीलता का
प्राचुर्य है। पारंपरिक मान्यताओं के कारण पैदा हुई स्त्री की दयनीय स्थिति के ख़िलाफ़
विद्रोह का स्वर भी कुछ ज्यादा ही बुलन्द है। कहीं - कहीं हास्य और व्यंग्य का भी उत्तम
पुट है, जो कहानी की रोचकता को काफी बढ़ा देता है। गाँव का धूर्त पंच बलई पांडे जब बनवारी
को चाचा की संपत्ति हथियाने के लिए कुच्ची के शरीर पर काबिज होने की दुर्बुद्धि बाँट
रहा होता है, उस अवसर के लिए शिवमूर्ति जिस तरह की चलताऊ भाषा का प्रयोग करते हैं,
उसका एक नमूना देखिए, - “उसे मर्द चाहिए,
मर्द मिल जाएगा। तुम्हें प्रापर्टी चाहिए, प्रापर्टी मिल
जाएगी। रमेसर दोनों परानी को रोटी चाहिए, उनकी रोटी पक्की
हो जाएगी। सबका उखड़ा कूल्ह बैठ जाएगा।” बलई की सलाह के
परिणामों पर विचार कर रहे बनवारी की चिन्ता को शिवमूर्ति कहानी में जिस बिम्बात्मक
भाषा में अभिव्यक्त करते हैं, वह भी अद्भुत हैं, - “दो औरतों के बीच पड़ा मर्द
वैसे ही जलता है जैसे देशी भट्ठे की ईंट। धुआं निकलने का रास्ता भी नहीं मिलता।” पंचायत
के संबन्ध में गाँव में व्याप्त हलचल का वर्णन करने के लिए शिवमूर्ति द्वारा
प्रयुक्त हास्य रस में सनी इस मजेदार भाषा को भी देखिए, - “छिनारा की पंचायत तो
गोपियों की रासलीला वाली कथा से भी ज्यादा ‘रसदार’
होती है। इसलिए घर का कामकाज जल्दी - जल्दी निबटाकर औरतों का झुंड
उमड़ता चला आ रहा है। सास - बहू, बूढ़ी - जवान सभी। बेटियों
और बहनों को छोड़कर। गोद में, साथ में बच्चे। उनके हाथ में
दालभात या मैगी की कटोरी, बहुएँ घूंघट में हैं तो क्या।
बोलने की हिम्मत न सही, सुनने से कौन रोक लेगा? नए - नए जवान हो रहे लड़के भी शरमाते और एक दूसरे की आड़ में मुँह छिपाते
चले आ रहे हैं।”
शिवमूर्ति ग्रामीण क्षेत्र के आम बोलचाल
के शब्दों, मुहावरों व कहावतों का धड़ल्ले से प्रयोग करके अपनी भाषा को अत्यन्त स्वाभाविक,
सुग्राह्य एवं रोचक बना देते हैं। उनकी भाषा के इन गुणों को इस लेख में प्रयुक्त ‘कुच्ची
का कानून’ के तमाम उद्धरणों में देखा जा सकता है। यहाँ इस कहानी के कुछ ऐसे विशिष्ट
उद्धरणों की ओर ध्यान आकर्षित करना समीचीन प्रतीत हो रहा है, जो अन्यत्र नहीं दिए जा
सके हैं, किन्तु इनके बिना उनकी भाषा के रोचक व प्रभावशाली वैविध्य का अवलोकन अधूरा
है। जब पंचायत में बनवारी कुच्ची के ऊपर गर्भ - धारण के बहाने
छिनारा का का मजा लेने का आरोप लगाता है तो वह जिन शब्दों में उसे प्रत्यारोपित कर
लताड़ती है, वह शिवमूर्ति की प्रवाहपूर्ण सशक्त भाषा का एक अद्भुत नमूना है, - "पंचो, इसने मुझे अरहर की मधु समझ लिया था कि जब
चाहेगा उँगली डुबो कर चाट लेगा। जब दाल नहीं गली तो गांव से
भगाने के लिए ‘ऊधमबांह’ जोत रहा है। यह
समझता है कि गांव के लोग ‘बच्चा’ हैं।
उन्हें गुड़ खिलाकर फुसला लेगा। पद में यह मेरा जेठ लगता है। कायदा है कि जेठ
अपनी भयहु की परछायी भी बचा कर चलेगा। सीधे छूने का तो सवाल ही नहीं। लेकिन ‘उनको’ मरे तीन महीने भी नहीं हुए थे कि इसने धोखे से
मेरी ‘छाती’ पकड़ लिया। जब मेरी सास
अस्पताल में थीं तो बुरी नीयत से मेरे सूने घर में घुस आया। बाल तो इसके आधे सफेद
हो गए लेकिन दिल अभी तक काला है। मुझे पटाने के लिए महारानी बना कर रखने का लालच
दे रहा था। पूछिए इस कपटी से, सच है कि झूठ? इसी पंचायत में इसका फैसला भी होना है।" धन्नू बाबा पंचायत में लछिमन चौधरी द्वारा कुच्ची
से किए जा रहे ऊटपटांग के सवालों की धार की कुंद करने के लिए जिस तरह की व्यंग्यपूर्ण
भाषा में बात रखते हैं वह भी बेजोड़ है, - “जो
त्रेता में हो सकता है वह कलजुग में क्यों नहीं हो सकता? त्रेता में तो खाने से ठहरा। द्वापर में तो सुमिरन करने भर से ठहर गया।
इस रफ्तार से कलियुग में देख लेने भर से ठहर सकता है।”
इस व्यंग्य के निहितार्थ भी बहुत बड़े हैं। पंचायत में शरारती तत्व भी मौजूद होते
ही हैं। शिवमूर्ति उनके मुँह से धन्नू बाबा का मज़ाक उड़ाने वाली बेलगाम भाषा का
प्रयोग भी करते हैं, - “बहुत खुलकर कुच्ची का पक्ष ले रहे हैं बाबा। कहीं आड़े
- ओटे चखा तो नहीं दिया?” इन उद्धरणों के आधार पर कुल मिलाकर यही कहा जा
सकता है कि शिवमूर्ति भाषा के बादशाह हैं और उनकी कहानियों को पढ़ना भाषा के अद्भुत
संसार से गुजरना है।
शिवमूर्ति की कहानियों में प्राय: राजनीतिक
विमर्श नहीं होता है। होता भी है तो यह स्थानीय प्रशासन व ग्रामीण निकायों के स्तर
की जातीय अथवा वर्गीय उठापठक या दांव - पेंचों के चित्रण तक ही सीमित रहता है।
किन्तु ‘कुच्ची का कानून’ में शिवमूर्ति ने सीमित मात्रा में ही सही किन्तु खुले
राजनीतिक विमर्श को भी समाविष्ट किया है। जब पंचायत में नेहरू जी द्वारा बनवाए गए विरासत
के कानून की बात उठती है, तब कुच्ची - “मुझे तो विश्वास नहीं होता कि पंडित
जवाहरलाल ऐसा अंधा कानून पास कराए होंगे। फोटू में तो बहुत ‘गऊ’ आदमी लगते हैं” कहकर ऐसे
स्त्री - विरोधी कानून के विरुद्ध बहुत ही करारा राजनीतिक व्यंग्य करती है। इसी तरह पंचायत
में जब बनवारी धन्नू बाबा पर अनपढ़ होने का आरोप लगाकर उन पर चुप रहने का दबाव बनाता
है तब वे उसे अनपढ़ों की बुद्धिमानी का सम्मान करने की सीख देते हैं। वे इसके लिए देश
में सत्तर के दशक में लगे आपातकाल के विरुद्ध गैर पढ़ी - लिखी आम जनता द्वारा दिखाए
गए साहस का हवाला देते हुए बड़ा ही महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य देते हैं, - "जब तुम माँ के पेट से निकले नहीं थे तो इस देश में
इमरजेंसी लगी थी। तब बडे़ - बड़े पढ़े लिखों के गले में पड़ा फंदा अँगूठा छाप लोगों ने ही काटा था। पढ़े लिखे लोग तो डर के मारे बिल में घुस
गए थे।" स्पष्ट है कि धन्नू बाबा को पता था कि
आपातकाल के बाद हुए चुनाव में डर के मारे बलई पोलिंग सेन्टर पर न जाकर दिन भर अरहर
के खेत में छिपकर बैठा रहा था। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विमर्श पंचायत में हुए
संवाद के उस हिस्से में परिलक्षित होता है, जहाँ सुघरा ठकुराइन अपनी खुद की संपत्ति
के विवाद, मुकदमेबाज़ी एवं परधानी आदि के अनुभव के आधार पर कहतीं हैं, - "जो जमींदारी विनाश कानून हमारे यहां सन् 52 में लागू हुआ वह सिर्फ मर्द को
पहचानता है। खेत का सारा मालिकाना वह मर्द को देता है। औरत सरकार की नजर में गोबर
का छोत है। किसान की जमीन हड़पने का कानून तो सरकारें मिनटों
में पास कर देती है। बाई रोटेशन पास कर देती है। लेकिन औरत
मर्द के बीच मालिकाना हक बांटने का कानून पास करने की फुरसत आज तक किसी सरकार को
नहीं मिली। ऐसा हो जाता तो 'बनवारियों' की पैदाइस बन्द हो जाती।"
मैंने अपने एक पूर्ववर्ती आलेख में लिखा था कि शिवमूर्ति की कहानियाँ मुख्यतः स्त्री -
विमर्श की कहानियाँ हैं, किन्तु उसके केन्द्र में आज की पढ़ी - लिखी, जागरूक, पुरुष
समाज से बराबरी का दर्जा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती, सामाजिक व बौद्धिक स्तर
पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक
अधिकारों के लिए सतर्क, भद्र - लोक की नारी नहीं है। उनका स्त्री -
विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, भौतिक ताप
व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग - द्वेष, पारिवारिक क्लेश आदि पर केन्द्रित
है, जो दूर - दराज के गाँवों में घर - जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन
गुजार रही हैं। ‘कुच्ची का कानून’ की स्थिति निश्चित ही थोड़ी - सी
भिन्न है। कुच्ची पढ़ी - लिखी अथवा वर्ग - चेतना से संपन्न न होने के बावजूद बाह्य
समाज से बहुत कुछ सीखकर अपने भीतर संघर्ष एवं तर्कशीलता की विशिष्ट क्षमता पैदा
करती है। यहाँ संघर्ष केवल जीने के अधिकार, मान - सम्मान अथवा संपत्ति की रक्षा के
लिए नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कोख की स्वायत्तता जैसे विशिष्ट मुद्दे को
लेकर है, एक नवविवाहित विधवा के माँ बनने के अधिकार को लेकर है। यहाँ उद्देश्य नए
सामाजिक मूल्यों की स्थापना का है। यहाँ परम्परा के प्रति विद्रोह की स्थिति है।
इसमें लक्ष्य पारम्परिक सिद्धान्तों के पुनर्मूल्यांकन एवं नूतन मूल्यों के
प्रतिपादन का है। इसमें स्त्री के अधिकारों से संबन्धित स्थापित मान्यताओं एवं
भारत के वर्तमान कानूनों की न्यूनताओं को पुरजोर तरीके से सामने रखकर स्त्री की
अस्मिता की रक्षा के लिए वांछित व्यवस्था की स्थापना की वकालत की गई है। इस कहानी
के माध्यम से शिवमूर्ति निश्चित की स्त्री - विमर्श को एक नई दिशा प्रदान करते हैं
और नारी - मुक्ति आंदोलन को एक नया आयाम प्रदान करते हैं। कार्ल मार्क्स ने ‘द
होली फैमिली’ में कहा है, - ‘मानव मुक्ति का स्वाभाविक पैमाना है कि नारी मुक्ति
किस हद तक पहुँची।’ इस दृष्टि से यह कहानी मानव मुक्ति का आख्यान है। निश्चित ही शिवमूर्ति
हमारे समय के मानव मुक्ति के एक बड़े आख्याता है और उनकी यह नई कहानी ‘कुच्ची का
कानून’ साहित्य के मानव मुक्ति प्रवर्तन के महत उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में
मील का एक नया पत्थर।