क्या कहा जा सकता है
अगर आप आमादा हो जाएँ
रेलवे स्टेशन की खुली बेंच पर बैठकर
मच्छरों से देह को नोचवाते हुए कविता लिखने पर,
ज़ाहिर है यह कविता
वर्षों पुरानी किसी प्रेयसी की याद में
लिखी जाने वाली कोई प्रेम-कविता तो होगी नहीं,
अपने प्रियतम की वापसी के इन्तज़ार में
घर में पलक-पांवड़े बिछाए बैठी
किसी नव-व्याहता कामिनी के
ख़यालों से भी जुड़ी हुई नहीं होगी यह कविता,
यह प्रेमी-जनों की कल्पनाओं में रमे हुए
भविष्य के किसी सुनहरे सपने की कविता भी नहीं होगी,
ऐसे में लिखी जाने वाली कविता
या तो मच्छरों के अनियन्त्रित रक्त-शोषण से जुड़ी हुई होगी,
या फिर इस बात से कि इन मच्छरों से मुक्ति कैसे पाई जाय,
या फिर इस यथार्थ से जुड़ी होगी कि
मच्छर अगर हैं तो नोचेंगे ही,
फिर क्यों न इन मच्छरों की प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर
एक ही समय पर, समान रुचि से
अपनी देह को नोचवाते हुए तथा
दूसरों की देह के रक्त को चूसते हुए
जीने का कोई तरीका सीखा जाय?
जो भी हो
कुछ अलग अंदाज़ तो होगा ही
मच्छरों के बीच बैठकर
अपनी देह नोचवाते हुए लिखी गई किसी कविता का।
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