आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, November 9, 2010

बित्ता भर धूप

संचित यह ठिठुरन है
मौसम भर की
कंपकंपाती तन-मन।

धूप है बस बित्ता भर,
दोनों हाथ समेटने पर भी
मुट्ठी तक न गरमाए।

कैसे कटे जीवन अब?

सक्षम है धूप यह
ओस की बूँद को सुखाने की तरह
बस प्राणों को उड़ा कर ले जाने में ही।

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