आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Friday, November 12, 2010

पुनश्च

पुनश्च रोता हूँ
प्राप्त दुखों के लिए,
उससे भी ज्यादा
अप्राप्य सुखों के लिए।

पुनश्च हँसता-मुसकराता हूँ
प्राप्त खुशियों के लिए,
प्राप्य सुखानुभूतियों के लिए,
लेकिन शायद ही कभी खुश होता हूँ
अब तक अप्राप्त दुःखों के लिए।

अनवरत जारी रहना है
सुख-दुःख का आना-जाना
बदराए दिन में
धूप-छांव की भाँति,
यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी
कैसी विडंबना है कि
पुनश्च जारी रहता है निरन्तर
हमारा रोना-हँसना-मुसकराना,
साथ में यह भी कि
प्राप्त व प्राप्य सारे सुखों की खुशी
पल भर में ही भुलाकर
लंबे समय तक उद्यत रहता हूँ रोने को
किसी एक छोटे से दुख के लिए।

पुनश्च,
यही लगता है मुझे कि
समझ नहीं पाया शायद ठीक से
जीवन का गणित अनोखा अभी तक
दो और दो चार का जोड़ लगाते-लगाते।

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