आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, July 17, 2011

कामना

हवाएं यूं भी कभी चलेंगी
मेरी कामनाओं के अनुकूल
कभी सोचा ही न था।

सहलाती परितप्त तन को
बहलाती तृषित मन को
सरसराकर गुजरतीं बदन छूकर
उस आह्लादकारी मंथर गति से
जिसे अब तक कभी महसूसा न था।

लग रहा मुझको कि जैसे
देखकर मेरी प्रबल प्रतिबद्धता को
हो गई हैं ये हवाएं
स्वयं ही मेरे वशीकृत।

जी करे
कर दूँ सभी सांसें समर्पित
अब इन्हीं के नाम अपनी।

जी करे
भर लूँ इन्हीं को
श्वास-कोषों में संजो कर
ताज़गी ताउम्र पाने के लिए मैं।

जी करे
उड़ जाउँ इनके संग ही
अब उस क्षितिज तक
जहाँ नभ से टूट कर
टपका अभी था एक तारा
कामना की पूर्ति का बन कर सहारा।

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