छोटी-छोटी बच्चियों
तक पर निर्मम बलात्कार की खबरों के आने का सिलसिला जारी है. स्त्रियों के विरुद्ध
अत्याचार हर तरह की सीमाएँ पार कर रहा है. लूट-पाट, चोरी, डकैती, हत्या जैसे तमाम
जघन्य अपराध भी बदस्तूर हो रहे हैं. कहीं कोई भी सुरक्षित नहीं. न कोई शहर, न कोई कस्बा, न कोई गाँव. कमोवेश देश के हर राज्य का यही माहौल है. ऐसे में अपराधों को
रोकने की नाकामी का ठीकरा पुलिस के सिर फूटना लाज़मी है. जनाक्रोश का निशाना भी
पुलिस को ही बनना है. लेकिन हमारी पुलिस ऐसी क्यों है? उसकी अक्षमता और उसमें व्याप्त संवेदनहीनता एवं
लाचारी का जिम्मेदार कौन है? इस सब पर राजनीतिक हलकों
में कम ही विचार होता है. सत्तापक्ष हो या विपक्ष सब चाहते हैं कि पुलिस उनके
इशारों पर नाचे. उनके समर्थकों को किसी आपराधिक जाँच में फँसने से बचाए रखे. जब भी
कोई बड़ी घटना होती है और पुलिस की लापरवाही, साँठ-गाँठ या
राजनीतिक हस्तक्षेप की बात सामने आती है तो पुलिस और सत्ताधारी पार्टी की
लानत-मलानत के साथ-साथ देश में पुलिस सुधारों को लागू किए जाने की चर्चा भी जोर
पकड़ने लगती है. किंतु थोड़े दिनों के बाद फिर सब वैसे का वैसा ही हो जाता है और
मीडिया तथा न्यायालय भी जैसे फिर किसी बड़ी घटना का इंतज़ार करने लगते हैं.
देश का पुलिस अधिनियम अंग्रेज़ी जमाने का है.
ब्रिटिश हुकूमत के आते ही 1861 में यह लागू हुआ. आज़ादी के बाद भी किसी भी राज्य
में इसमें कोई व्यापक बदलाव लाने की कोशिश नहीं की गई. वर्ष 1979 में गठित
राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पहली बार इस अधिनियम में परिवर्तन लाए जाने की पुरजोर
सिफारिश की. लेकिन सरकारें खामोश रही. आखिरकार, वर्ष 1996 में दो
सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक, प्रकाश सिंह व एन.के. सिंह
पुलिस सुधारों को लागू किए जाने की माँग की जनहित याचिका लेकर उच्चतम न्यालालय
पहुँचे. उच्चतम न्यायालय ने मामले की पड़ताल के लिए वर्ष 1998 में रिबेरो समिति
गठित की जिसने वर्ष 1999 में न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी. उसके बाद पद्मनाभैया
समिति ने इस रिपोर्ट का अध्ययन करके वर्ष 2000 में अपनी संस्तुतियाँ न्यायालय के
समक्ष रखीं. इस पर सोली सोराबजी की अध्यक्षता में नए पुलिस विधेयक का मसौदा तैयार
करने के लिए एक समिति बनी. अंत में दस साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उच्चतम
न्यायालय ने प्रकाश सिंह केस में अपना निर्णय देते हुए देश में पुलिस सुधारों को
लागू किए जाने के बारे में एक सात-सूत्री फार्मूला रखा. इसके तहत सभी राज्यों में
राज्य सुरक्षा आयोग गठन किया जाना, पुलिस महानिदेशक की
नियुक्ति योग्यता के आधार पर एवं पारदर्शी तरीके से न्यूनतम दो वर्ष के लिए करना, जिले तथा थाने के स्तर पर पुलिस प्रभारियों को
न्यूनतम दो वर्ष का सेवाकाल देना, पुलिस विभाग में
कानून-व्यवस्था तथा अपराध-अंवेषण की जिम्मेदारियों को अलग करना, पुलिस उपाधीक्षक के नीचे के स्तर के अधिकारियों
के तबादलों, तैनातियों, प्रोन्नतियों आदि
से जुड़े फैसलों के लिए राज्य स्तर पर एक पुलिस सेवा बोर्ड का गठन किया जाना, राज्य व जिले के स्तर पर पुलिस अधिकारियों के
विरुद्ध होने वाली शिकायतों की जाँच आदि के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किया
जाना तथा केंद्रीय पुलिस संगठनों के मुखियाओं के चयन आदि के लिए केंद्र के स्तर पर
एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जाना आदि शामिल था.
उच्चतम न्यायालय के
आदेश पर वर्ष 2008 में गठित जस्टिस के.टी. थॉमस समिति द्वारा
की गई निगरानी व कोर्ट से समय-समय पर राज्यों को सीधे मिली डाँट-फटकार के बावजूद
वर्ष 2006 से लेकर आज तक केरल के अतिरिक्त किसी भी राज्य सरकार ने इन पुलिस सुधारों
को लागू करने के लिए कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं बनाई है, भले
ही जबानी जमा-खर्च के लिए तरह-तरह के प्रशासनिक आदेश निकालकर सुधारों की कुछ हद तक
खानापूरी कर ली हो. केरल सरकार द्वारा वर्ष 2011 में लागू किए गए नए पुलिस अधिनियम
में अनेक ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो आम आदमी को अपार राहत देने वाले हैं. इस
अधिनियम में प्रावधानित पुलिस के कर्त्तव्यों में ही यह बात शामिल है कि पुलिस का
काम किसी भी ख़तरे से लोगों की रक्षा करना, किसी भी प्राकृतिक
या मानव-जनित आपदा, विनाश या दुर्घटना से प्रभावित लोगों की
मदद करना, लोगों के बीच सामन्य रूप से एक सुरक्षा की भावना
पैदा करना तथा सार्वजनिक स्थलों व सड़्कों पर पाए जाने वाले असहाय व निराश्रित
लोगों, विशेष रूप से स्त्रियों व बच्चों की देख-भाल की
व्यवस्था एवं सहायता करना भी है. इस अधिनियम के तहत लोगों को यह अधिकार दिया गया
है कि वे किसी भी समय थाने में प्रवेश कर सकते हैं और पुलिस से समस्त न्यायसंगत
सेवाएँ प्राप्त कर सकते हैं. साथ यह भी कि कोई भी व्यक्ति किसी भी समय थाने के
प्रभारी से मिल सकता है और अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता है या मामलों की सूचनाएँ दे
सकता है तथा बिना किसी स्पष्ट कारण के थाने का प्रभारी उसकी सूचना लेने से मना
नहीं कर सकता. इस कानून के तहत गठित राज्य सुरक्षा आयोग में राज्य के गृह व कानून
मंत्रियों के साथ-साथ विपक्ष के नेता, उच्च न्यायालय के एक
सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा तीन गैर-सरकारी सदस्यों को भी रखा गया है. इसके तहत
पुलिस कर्मियों के आचरण से सम्बंधित विशेष प्रावधान भी किए गए हैं जिनके अधीन
पुलिस कर्मियों द्वारा अनावश्यक बल-प्रयोग किए जाने, लोगों
से दुर्व्यवहार किए जाने, गाली-ग़लौज़ किए जाने, असहिष्णुता दिखाए जाने, विशेष रूप से अपराध-पीड़ित स्त्रियों, बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों व विकलांगों से, आदि की मनाही है. अधिनियम में हर थाने में एक सामाजिक संपर्क समिति गठित
किए जाने की भी व्यवस्था की गई है. यह समितियाँ इलाके में पुलिस सेवाओं की सामान्य
प्रकृति वाली उभरती हुई आवश्यकताओं को चिन्हित करेंगीं और क्षेत्र में सुरक्षा
बनाए रखने के लिए कार्य-योजना बनाएँगीं. इनके माध्यम से इलाके में अपराधों की
रोकथाम तथा सुरक्षा के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया जाना भी प्रावधानित
है. अधिनियम में राज्य-स्तर पर उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा
जिले के स्तर पर एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत
प्राधिकरण गठित किए जाने का प्रावधान भी किया गया है. इस अधिनियम के तहत घूसखोर
पुलिस अफसर को सात साल तक की तथा लोगों को अनावश्यक छापामारी, ज़ब्ती, गिरफ्तारी आदि के माध्यम से तंग करने वाले
पुलिस अधिकारी को तीन साल तक की सज़ा दिए जाने की भी व्यवस्था है. साथ ही महिलाओं
के साथ छेड़खानी, बदसलूकी व चित्र तथा वीडियो लेकर तंग करने
वालों को तीन साल तक की सज़ा दिए जाने का भी प्रावधान है.
स्पष्ट है कि पुलिस-सुधार से जुड़ी जनहित
याचिकाओं, विभिन्न समितियों व माननीय न्यायालय की चिंताओं के केंद्र में पुलिस की प्रशासनिक व्यवस्था की खामियाँ, तबादलों व तैनातियों में होने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप तथा भ्रष्ट व
निरंकुश अधिकारियों के ख़िलाफ प्रभावी कार्रवाई न हो पाने की समस्या जैसे मसले ही
रहे हैं. इनकी चिंताओं में आम आदमी, शिकायती, पीड़ित, स्त्री-दलित-दुर्बल वर्ग, समाज में फैलती जा रही अराजकता कहीं नहीं है. आँकड़ों में कुछेक को छोड़कर
सभी राज्यों में पुलिस-सुधारों की प्रगति संतोषजनक है और उच्चतम न्यायालय के आदेशों
का सत्तर से अस्सी फीसदी तक अनुपालन हो गया बताया जाता है. लेकिन वास्तव में
स्थिति दिनो-दिन बिगड़ती ही जा रही है. सच यही है कि उच्चतम न्यायालय के सात-सूत्री
मार्गनिर्देश बहुत देरी से आए हैं तथा काफी लम्बे समय से उपेक्षा के शिकार हैं. आज
ये मार्गनिर्देश नाकाफी भी हैं. आज इनसे आगे बढ़कर केरल के पुलिस अधिनियम की तर्ज़
पर सभी राज्यों में तत्काल कुछ किया जाना अनिवार्य लगता है. अब देखना यह है कि बढ़
रहे अपराधों तथा भ्रष्टाचार के लिए लोग सिर्फ पुलिस को कोसते ही रहेंगे या फिर जरूरी
पुलिस-सुधारों को लागू कराने के लिए भी कोई जनांदोलन चलाएँगे.
(लेखक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं किन्तु
यह उनके निजी विचार हैं)
No comments:
Post a Comment