आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, June 22, 2013

जनतंत्र को और कारगर बनाएँ (21 मई 2013 को 'जनसंदेश टाइम्स' समाचार-पत्र में प्रकाशित) - फीचर

देश की आम जनता की लंबी प्रतीक्षा व भारत के चुनाव आयोग के अथक प्रयासों के बावजूद हमारे लोक-तंत्र को मजबूत, टिकाऊ व मूल्य-आधारित बनाने वाले जरूरी चुनाव-सुधार को अभी अमली जामा नहीं मिल पाया है. हमारा जनप्रतिनिधि अधिनियम लगभग 62 वर्ष पुराना है. इसमें दशकों से ऐसी व्यवस्थाएँ लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिनसे चुनाओं में मतदाताओं पर धन-बल, बाहु-बल एवं साम्प्रदायिक व जातिगत प्रभावों का कम से कम असर पड़े. किंतु चुनाओं पर इन सब बातों का असर कम होना तो दूर, इनका प्रभाव चुनाव दर चुनाव बढ़ता ही जा रहा है. भारत के सेवानिवृत्त कैबिनट सचिव श्री टी.एस.आर. सुब्रमनियम ने अभी हाल ही में कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है कि हिमाचल प्रदेश व गुजरात के पिछले विधान सभा चुनाओं में जीतने वाले प्रत्याशियों में से क्रमश: 65 तथा 74 प्रतिशत करोड़पति हैं. इसी प्रकार क्रमश: 21 तथा 31 प्रतिशत जीतने वाले प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके ऊपर आपराधिक मामले चल रहे हैं. धर्मनिरपेक्ष संसद व विधान सभाओं में जीतकर पहुँचने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है. इसी तरह से भारत जैसे समाजवादी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों के बीच बड़े-बड़े उद्योगपतियों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है. कुछ राज्यों में तो प्रत्याशियों द्वारा कार्यकर्त्ताओं को ही नहीं, सीधे वोटरों तक को पैसे बाँटने की शिकायतें मिलने लगी हैं. यह प्रवृत्तियाँ गंभीर चिंता पैदा करने वाली है, क्योंकि यह व्यापक संवैधानिक उद्देश्यों और उनका अनुपालन सुनिश्चित कराने वाली विधायिका के सदस्यों के निजी निहित स्वार्थों के बीच टकराव अथवा विरोधाभास का सृजन-सा करती हुई दिखती है.

            भारत का चुनाव आयोग एक लंबे समय से चुनाव-सुधारों को लागू करने की दिशा में यथाशक्ति अपने सीमित संसाधनों के सहारे अनेक प्रकार के कदम चुनाव दर चुनाव उठाता रहा है. यह सब बातें मुख्यतः चुनावों में होने वाली धाँधली तथा सत्ता-पक्ष द्वारा उठाए जाने अनुचित फायदों को रोकने से जुड़े हुए कदम रहे हैं. इसके लिए छपे हुए मतपत्रों व मतपेटियों की जगह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा. फोटोयुक्त मतदाता पहचान-पत्रों को लगभग पूर्ण रुप से जारी कराकर फर्ज़ी मतदाताओं की समस्या से करीब-करीब मुक्ति पा ली गई. मतदाताओं की फोटोयुक्त मतदाता-सूचियाँ भी देश में लगभग पूरी तौर पर तैयार हो चुकी हैं, जिनसे बोगस वोटिंग को ख़त्म करने में और भी ज्यादा मदद मिलेगी. मतदाता-सूचियों के सूक्ष्म पुनरीक्षण और लंबे समय तक घर पर न रहने वाले वोटरों की पहचान के माध्यम से भी फर्ज़ी मतदान को रोकने में सफलता मिली है. आदर्श चुनाव संहिता को लागू करने के मामले में चुनाव आयोग ने समय-समय पर उच्चतम न्यायालय की मदद ली है. आज यह भले ही कहा जाता हो कि आदर्श चुनाव संहिता नख-दंत-विहीन है, किंतु यदि देखा जाय तो वास्तव में राजनीतिक दल और खास तौर पर सत्ता-पक्ष को इस बात का काफी भय रहता है कि उसके ऊपर इस संहिता के उल्लंघन के आरोप न लगें. चुनाव आयोग की नोटिस मिलते ही केंद्र तथा राज्य सरकारें मतदाताओं को लुभाने वाली घोषणाएँ करने तथा अनैतिक रूप से अहम फैसले लेने से पीछे हट जाती हैं. सभा-स्थलों के आवंटन, अतिथि-गृहों के आरक्षण, सरकारी वाहनों के दुरुपयोग, अनर्गल बयानबाज़ियों, लोगों के जन-जीवन को प्रभावित करने वाले चुनाव-प्रचार के तौर-तरीकों आदि के प्रति जिला-प्रशासन भी काफी सजग बना रहता है. गैर-कानूनी हथियार रखने वालों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाइयों, चुनाव-प्रचार के दौरान काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए डाले जाने वाले छापों व नकदी लेकर चलने वालों पर शुरू की गई धर-पकड़ आदि का भी सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

            लेकिन चुनाव-सुधार के यह सारे प्रयास कभी-कभी ऐसे ही लगते हैं, जैसे कैंसर के मरीज़ को बुखार की दवा देकर ठीक करने की कोशिश की जा रही हो. वास्तव में भारतीय लोकतंत्र को पटरी पर लाने के लिए जिस तरह की कड़वी घुट्टी की जरूरत है, वह राजनीतिक दलों को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में व्यापक संशोधन करके ही पिलाई जा सकती है. धन-बल, बाहु-बल तथा धार्मिक, जातीय व वर्गीय शक्ति का भरपूर इस्तेमाल कर रहे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि क्या विधायिका के माध्यम से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाले ऐसे संशोधनों के लिए कभी तैयार होंगे? आज की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि विखंडित जनादेश के चलते किसी भी दल के पास यह शक्ति नहीं है कि वह अपने कतिपय सदस्यों की आपत्तियों को दरकिनार करके चुनाव-सुधारों की दृष्टि से व्यापक जनहित अथवा देश-हित में कोई बड़ा फैसला लेने की ओर कदम बढ़ाएँ. आज ज्यादातर चुनाव बहु-कोणीय होते हैं. जीतने वाला प्रत्याशी कुल डाले गए मतों में से 50 प्रतिशत मत भी नहीं पाता है और जीत जाता है. इसी प्रकार बहुदलीय चुनावों के चलते विभिन्न राज्यों तथा केंद्र में साझा सरकारें बनने की परम्परा स्थापित हो गई है. इन सरकारों में प्राय: भिन्न-भिन्न विचारधाराओं और नीतियों वाले दल शामिल होते हैं, जिससे सरकार को नीतिगत निर्णय लेने में काफी कठिनाइयाँ आती है और कई बार मतैक्य के अभाव में देश-हित के कई महत्वपूर्ण फैसले लटके ही रह जाते हैं. केंद्र के स्तर पर यह समस्या तब और ज्यादा गंभीर लगने लगती है, जब हम देखते हैं कि सरकार में शामिल किसी राज्य विशेष के क्षेत्रीय दल की जिद के चलते पूरी की पूरी केंद्र सरकार देश-हित के किसी अहं एवं व्यापक फैसले को लेने में असमर्थ हो जाती है. ऐसे मामलों में राष्ट्र-हित पर सता बचाने का हित भारी पड़ता है. कुछ मौकों पर तो मंत्रिमंडल के क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री तक की इच्छा या निर्देशों का अनुपालन करने से विमुख नज़र आते हैं. क्या चुनाव-सुधारों का दायरा कभी इन सब समस्याओं से निपटने की ओर भी आगे बढ़ेगा?

            चुनाव-सुधारों के विशेषज्ञ भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव देते आए हैं. 1972 की संसदीय समिति सहित विभिन्न समितियाँ समय-समय पर चुनाव में धन-बल का प्रभाव कम करने तथा अच्छे व ईमानदार प्रत्याशियों को बिना पैसा खर्च किए चुनाव लड़ने हेतु सक्षम बनाने के लिए चुनाव-प्रचार के खर्च का वहन सरकार द्वारा किए जाने की व्यवस्था बनाने की सलाह देती रही हैं. लेकिन ऐसा कोई विधान तो अभी दूर ही लगता है. जघन्य अपराधों के आरोपियों को चुनावी-प्रक्रिया से दूर रखने का बात भी अभी दूर की कौड़ी लगती है. विधायिका के मौजूदा सदस्यों को सजा मिलने के बाद भी अपील या पुनर्विचार की याचिका लंबित रहने तक अयोग्य नहीं माने जाने तथा राजनीतिक दलों द्वारा विधिक व्यवस्था के विपरीत सरकारी कंपनियों या विदेशी स्रोतों से धन प्राप्त किए जाने के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों के समक्ष दायर की गई जनहित याचिकाओं के फैसले निश्चित ही अहं होंगें. सबसे बड़ी बात तो यह देखने की होगी कि क्या जनप्रतिनिधि अधिनियम में संशोधन करके राजनीतिक दलों को अंदरूनी तौर भी अपने पदाधिकारियों तथा प्रत्याशियों के चयन के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने पर मजबूर किए जाने की भी कोई व्यवस्था बनेगी या वे फिर वर्तमान की भाँति ही आगे भी कुछ विशेष राजनीतिक परिवारों या व्यक्तियों की गिरफ़्त में ही बनी रहेंगी. मुझे तो यह भी लगता है कि केंद्र सरकार को छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों की धींगामुश्ती से मुक्त रखने तथा संविधान के मुताबिक संघ की सूची में शामिल विषयों पर राष्ट्र-हित में सरलता से बड़े फैसले लेने या कानून निर्मित करने हेतु सक्षम बनाने के लिए जनप्रतिनिधि अधिनियम में केवल राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को ही संसदीय आम चुनाव लड़ने लिए योग्य बनाए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों, अन्य पंजीकृत दलों तथा निर्दलीय प्रत्याशियों को राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों के कंधे से कंधा भिड़ाकर केवल राज्य विधान-सभाओं के चुनाव लड़ने तक ही सीमित कर दिया जाय. इससे एक तरफ तो केंद्र में राष्ट्रीय हितों की व्यापक व संतुलित चिंता करने वाली राष्ट्रीय मान्यता-प्राप्त दलों की अपेक्षाकृत मजबूत सरकारें बनेंगी, वहीं दूसरी तरफ राज्यों में राष्ट्रीय दलों, क्षेत्रीय दलों या उन दोनों की मिली-जुली संघीय गणराज्य को मजबूत करने वाली तथा स्थानीय जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने वाली सरकारें बनेंगी. लेकिन हमारे मौजूदा राजनीतिक वातावरण में क्या राष्ट्र-हित में कोई भी दल इस तरह की किसी पहल के बारे में सोचेगा?

(लेखक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं किन्तु यह उनके निजी विचार हैं)            


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