पिछले मंगलवार को सुबह
टहलते समय मेरे मोबाइल पर एक अपरिचित नंबर से कॉल आई, "गाँव में रहने वाला एक किसान हूँ. दबंग पड़ोसी ने मेरे
ट्रैक्टर पर कब्ज़ा कर लिया है. उस पर चढ़ा बैंक का कर्ज़ धीरे-धीरे बढ़कर चार लाख से
ऊपर पहुँच गया है. सब जगह शिकायतें कर लीं. कहीं कोई सुनवाई नहीं. अख़बार में आपका लेख
पढ़ा. मोबाइल नंबर भी था इसलिए सोचा आप ही को फोन करूँ. शायद आप ही मेरी समस्या का
कुछ समाधान करा दें?" आम आदमी इसी तरह से हताश और परेशान
होकर अपनी समस्याओं का हल तलाश रहा है. उसकी सुनने वाला कोई नहीं. पैसे वाला थैली
के सहारे अपना सारा काम करा लेता है. रसूख वाला वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों के
साथ उठता-बैठता है, सो उसका काम भी नहीं रुकता. लेकिन गरीब व
साधारण जन-गण के लिए न्याय का दरवाज़ा प्रायः बंद ही रहता है. वह खटखटाने से भी
नहीं खुलता. ऐसी व्यवस्था में भला इनके मन का अधिनायक कौन हो
सकता है? बकौल रघुबीर सहाय आज सबसे बड़ा प्रश्न ही यही है कि
इस प्रजातांत्रिक देश में 'फटे सुथन्ने वालों' का 'भारत-भाग्य-विधाता' कौन
है? सोचने की बात यही है कि ये सामान्य जन इस तरह की लाचारी
के साथ कब तक जी सकते हैं? नई पीढ़ी में शिक्षा का प्रसार हो
रहा है. जागरूकता फैल रही है. सब्र का प्याला छलकने वाला है. इसके पहले कि
प्रतिगामी शक्तियाँ इस मौके का फायदा उठाकर लोगों की निराशा और आक्रोश को नकारात्मक
दिशा में मोड दें, सरकारी-तंत्र को सजग हो जाना चाहिए. अब वक्त
आ गया है कि देश की व्यवस्था प्रजातांत्रिक-प्रणाली के मर्म को पहचाने और अपनी सारी
क्षमता उन लोगों को न्याय दिलाने की तरफ केन्द्रित करे,
जिनका साथ देने वाला कोई नहीं है.
ऐसा नहीं कि व्यवस्था का इस तरफ ध्यान नहीं गया है. जन-सेवाओं को समयबद्ध
रूप से उपलब्ध कराने के लिए केंद्र तथा कुछ राज्य सरकारों ने लगभग डेढ़ दशक पहले ही
नागरिक-संहिताएँ बनाने की शुरुआत कर दी थी. लेकिन इनका अनुपालन स्वैच्छिक था अतः
वे प्रयास ज्यादा सफल नहीं हुए. केंद्र सरकार ने वर्ष 2005 में 'सेवोत्तम' पद्धति की शुरुआत की. सैद्धांतिक रूप से
यह बहुत अच्छा मॉडल था लेकिन यह सामान्य जनता से ज्यादा जुड़ नहीं पाया. यदि 'सेवोत्तम' जैसे मुश्किल शब्द के स्थान पर 'उत्तम सेवा' जैसा सरल नाम होता तो शायद यह लोगों को
ज्यादा भाता. वर्ष 2007 में भारत सरकार ने केंद्रीकृत लोक शिकायत निवारण व
मॉनीटरिंग प्रणाली की शुरुआत की लेकिन यह एक वेब-आधारित पोर्टल पर आश्रित होने के
कारण गरीब व कम्प्यूटर तक पहुँच न रखने वाले लोगों के बीच ज्यादा उपयोगी नहीं सिद्ध
हो पाया. कुछ कमी इसके प्रचार-प्रसार में भी रही. लेकिन इसी बीच कुछ राज्य सरकारों
ने क्रांतिकारी पहल करते हुए जन-सेवा गारंटी कानून लागू करने शुरू किए. पहला कानून
वर्ष 2010 में मध्य प्रदेश में बना. पिछले दो वर्षों में बिहार, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, केरल,
उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड आदि राज्यों में भी ऐसे जन-सेवा गारंटी कानून बने हैं. लेकिन कोई
भी कानून बनना अपनी जगह है, उसका प्रभावी ढंग से लागू होना
अपनी जगह. उसमें पहला कदम यानी कौन सी सेवाओं को गारंटी के तहत लाया जाय, यही सबसे ज्यादा निर्णायक पहलू है. यदि ऐसा करते समय कुछ महत्वपूर्ण
सेवाएँ दायरे से बाहर रख दी गईं तो समझिए कि पूरा कानून ही निष्प्रभावी हो जाएगा.
दूसरे निर्णायक चरण में यह भी बेहद महत्वपूर्ण है कि सरकारी-तंत्र अपनी सोच में
परिवर्तन लाकर चिन्हित जन-सेवाओं को गारंटीशुदा तरीके से लोगों को उपलब्ध कराने
में तत्पर हो. इसका मतलब यह भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि जो जन-सेवाएँ किसी कारण
से अधिसूचित नहीं की गई हैं, उन्हें मुहैया कराने की तरफ कोई
ध्यान ही न दिया जाय. अब देखना यही है कि अगले चरण में इन सभी राज्यों में बने
कानूनों के तहत लोगों को कौन-कौन सी जन-सेवाएँ समयबद्ध रूप से प्रदान किए जाने की एक
सुदृढ़ व्यवस्था स्थापित होती है और इससे इन सेवाओं के क्षेत्र में व्याप्त
भ्रष्टाचार में कितनी कमी आती है.
वर्ष 2011 में जब जन-लोकपाल बिल के आंदोलन ने जोर पकड़ा तो
केंद्र सरकार ने भी समय की आवश्यकता को समझते हुए बड़ी तत्परता के साथ नागरिक माल
और सेवाओं का समयबद्ध परिदान और शिकायत निवारण अधिकार विधेयक, 2011 तैयार किया और उसे संसद के सामने पेश कर दिया. मेरी समझ
में सरकारी-तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने तथा तथा सार्वजनिक सेवाओं को
जनोन्मुख बनाने की दृष्टि से यह विधेयक लोकपाल विधेयक से ज्यादा महत्वपूर्ण है. लेकिन
समस्या यह है कि जिस जनाकांक्षा को भुनाकर और अन्ना हजारे को आगे कर कुछ तथाकथित
समाज-सेवियों ने जनलोकपाल-व्यवस्था को देश से भ्रष्टाचार मिटाने की संजीवनी बूटी
बनाकर पेश किया, उसी जनाकांक्षा को ताख पर रखकर वे स्वयंभू
नेता इस सेवा-गारंटी देने वाले और शिकायत निवारण अधिकार देने वाले बिल की बात ही
नहीं करते. जाहिर है कि वे शायद जनलोकपाल के बहाने कुछ और ही हासिल करना चाहते हैं. लोगों की समस्याओं का शीघ्र निवारण हो यह उनका लक्ष्य नहीं है. वे शायद
सत्ता-केंद्रों पर परोक्ष रूप से गैर-सरकारी संगठनों का दबदबा कायम करने के निहित
उद्देश्य से ही उस आंदोलन को लेकर सामने आए और भाग्य से व्यवस्था के प्रति
आक्रोशित आम जन उनके साथ खड़ा दिखाई दिया और टी. आर. पी. के भूखे मीडिया ने उनका
साथ दे दिया. सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो तब हुआ जब अन्ना हजारे ने विधिक प्रक्रिया की
नासमझी का परिचय देते हुए माल व सेवा-गारंटी तथा शिकायत निवारण का अधिकार देने
वाले केंद्रीय बिल में प्रावधानित
अपील-निस्तारण जैसी अनिवार्य व्यवस्थाओं की खुले-आम आलोचना कर दी, जिससे यह मामला और भी ठंडा पड़ गया.
भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए लोकपाल जैसी एक संस्था केंद्र
में तथा हर राज्य में जरूरी है. लेकिन इस संस्था के बहाने निहित स्वार्थ वाली शिकायतों
के जरिए तथाकथित जन-सेवकों व गैर-सरकारी संगठनों की दूकान न चल निकले इसका ध्यान
भी सरकार को रखना ही होगा, भले ही ऐसे स्वार्थी तत्व उसकी कितनी ही
आलोचना करें. नागरिक माल और सेवाओं का समयबद्ध परिदान और शिकायत निवारण अधिकार
विधेयक, 2011 का केवल यही फायदा नहीं है कि इससे लोगों को
केंद्र सरकार की चिन्हित सेवाएँ समयबद्ध तरीके से मिलेंगी,
बल्कि इससे पूरे देश में एक समान व्यवस्था के तहत राज्य सरकारों की चिन्हित सेवाओं
की गारंटी की भी व्यवस्था स्थापित होगी और साथ ही पूरे देश के लोगों को केंद्र तथा
राज्य सरकार की सेवाओं के संदर्भ में अपनी शिकायतों के निवारण का अधिकार भी
मिलेगा. संभवतः आम आदमी के लिए सूचना के अधिकार के बाद यह देश का एक सबसे बड़ा
परिवर्तनकारी कानून होगा जिसे शीघ्र लागू किया जाना चाहिए.
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