हिन्दी के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह इस साल अस्सी वर्ष के
हो जाएँगे। उनकी साठ वर्षों से अधिक की लंबी काव्य यात्रा में आठ कविता - संग्रह
प्रकाशित हुए हैं। उनकी कविताओं से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है, जैसे हम चुने हुए शब्दों से रची गई किसी ऐसी अद्भुत भावपूर्ण
सृष्टि से रू - ब - रू हो रहे हों, जो यथार्थ की दुनिया से कतई अलग न हो। ‘अभी बिल्कुल अभी’ (1960) से लेकर उनके हालिया कविता - संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ (2014) तक की कविताओं में हमें उनकी ऐसी ही यथार्थपूर्ण कोमल कविताई का दिग्दर्शन
होता है, जिसमें कम से कम व सरल शब्दों में, जीवन का यथार्थ, समाज की सच्चाई,
राजनीति का कड़वापन, सभी कुछ, बड़े ही सटीक बिम्बों के सहारे, मन को सीधा उद्वेलित करते हुए, सपाटबानी से सायास एकदम दूर रहते हुए तथा काव्य - शिल्प के नए मानदंड गढ़ते हुए, कुछ यूँ कह दिया जाता है, जो हमारे दिलो - दिमाग पर छा जाता है। उनकी काव्य - पंक्तियाँ प्राय: या तो प्रातर्सूर्य की रश्मियों की भाँति अँधेरे को कोमलता से चीरते हुए हमारे
सामने अनुभूतियों का एक नया आलोक फैलाने आती हैं या फिर रात की निविड़ता को भंग करने
वाली चन्द्रमा की शीतल उजास जैसी गमकती हुई हमारे अन्तर्मन को चेतना से सराबोर कर जाती
हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस उम्र में भी उनके भीतर का कवि कहीं से भी थका हुआ नहीं
लगता और वे आज भी निरन्तर काव्य - रचना में संलग्न हैं, वह भी वर्तमान समय के यथार्थ - बोध, सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों, भाषायी विकास,
शिल्प की विशिष्टताओं आदि को अपनी कविताओं
में पूरी ताक़त के साथ समेटते हुए। उनके नए कविता - संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ की कविताओं पर केन्द्रित रहते हुए यहाँ उनकी आधुनिकता और परंपरा दोनों को एक साथ
अपने में समेट लेने की विशिष्टता एवं वैचारिक सान्द्रता का एक पाठकीय विवेक के साथ (क्योंकि विचारधारा से ओत - प्रोत आलोचकीय विवेक मेरे पास है नहीं) अवलोकन किया जा रहा है।
केदारनाथ सिंह मूलत: ‘दानों’ की महत्ता, ‘रोटी’ की चिन्ता, और ‘मानवीय संवेदनाओं’ की महक रेखांकित करने वाले कवि हैं। बीसवीं सदी के अंतिम तीन दशकों में मुक्तिबोध, धूमिल, नागार्जुन व त्रिलोचन जैसे बड़े कवियों
के समानान्तर एवं रघुवीर सहाय व कुँवर नारायण जैसे समकालीन कवियों के बरक्स उन्होंने
मुख्यत: इन्हीं तीनों बातों से जुड़कर हिन्दी काव्य - साहित्य को एक नया आयाम दिया। हालांकि यह कहते समय मैं
उनकी ‘बाघ’ जैसी कविता के एक अलग किस्म के विशिष्ट
महत्व को कम करके नहीं आंकना चाहता। जहाँ भी उनकी कविताओं में दानों का उल्लेख आया
है, वहाँ वे परम्परा की ओर जाते हुए, उद्गम की ओर बढ़ते हुए, किसी प्रवृत्ति या भावना के मूल की ओर जाने का प्रयास करते हुए दिखते हैं, जैसे - ‘पकते हुए दानों के भीतर / शब्द के होने की पूरी संभावना थी / मुझे लगा मुझे एक
दाने के अन्दर / घुस जाना चाहिए / पिसने
से पहले मुझे पहुँच जाना चाहिए / आटे के शुरू में’ (आवाज़ - 1976) या फिर – ‘नहीं/ हम मंडी नहीं जाएँगे/ खलिहान से उठते हुए/ कहते
हैं दाने/ जाएँगे तो फिर नहीं आएँगे/ जाते-जाते/ कहते जाते हैं दाने/ अगर आए भी/
तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे/ अपनी अन्तिम चिट्ठी में लिख भेजते हैं दाने’ (दाने –
1984) कहते समय। जहाँ भी रोटी की बात आती है तो उनका इशारा भूख की ओर होता है,
आर्थिक विषमता की ओर होता है, संघर्ष की ओर होता
है, जैसे – ‘वह पक रही है/ और आप
देखेंगे - यह भूख के बारे में/ आग का बयान है/ जो दीवारों पर लिखा जा रहा है’
(रोटी - 1978) या फिर – ‘रात को रोटी जब भी तोड़ना/ तो पहले सिर
झुकाकर/ गेहूँ के पौधे को याद कर लेना’ (कुछ सूत्र जो एक किसान बाप ने बेटे को दिए - 1986) कहते
समय। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति तो जैसी केदारनाथ सिंह की कविताओं में होती
और उसके लिए वे जैसे बिम्ब गढ़ते हैं, उसका आधुनिक हिन्दी - साहित्य में कहीं कोई
सानी नहीं, जैसे - ‘यह मां की आवाज़ है - मैंने कहा/ चक्की के अन्दर माँ थी’ (आवाज़ - 1976) अथवा - ‘उसका
हाथ/ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा/ दुनिया को/ हाथ की तरह नरम और सुन्दर होना
चाहिए’ (हाथ - 1980), या फिर - ‘है - अभी बहुत कुछ है
/ अगर बची है दूब … / बुदबुदाते हैं वे/
फिर गहरे विचार में/ खो जाते हैं पिता’
(अकाल में दूब - 1984) कहते समय।
केदारनाथ
सिंह की ज्यादातर कविताओं में बिम्ब प्राय: प्रकृति के उन अवयवों पर आधारित हैं, जिनके माध्यम से
कही गई बात पाठक या श्रोता के मन में बिना कोई रक़्तरंजित कर देने वाला आघात किए बड़ी
ही कोमलता के साथ उसके भाव - जगत में प्रवेश कर जाती है और उद्देश्यित मानवीय संवेदना
का गहराई तक संचार करती है। ‘बाघ’ में बाह्य
जगत की भयावहता बिम्ब के साथ ही जुड़ी है, अत: वह हमें एक अलग ढंग से सोचने पर मजबूर करती है और संवेदना से कहीं ज्यादा,
विचारों को उद्वेलित करने का काम करती है। अपनी कविता ‘रोटी’ (1978) की - ‘आप विश्वास
करें/ मैं कविता नहीं कर रहा/ सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहा हूँ’ या – ‘आप देखेंगे/
दीवारें धीरे - धीरे/ स्वाद में बदल रही हैं’ जैसी पंक्तियों में वे आने वाले
क्रांतिकारी बदलाव को भी कितनी कोमलता के साथ प्रस्तुत करते हैं। ‘छू लूँ किसी को? लिपट जाऊँ किसी से? मिलूँ/ पर किस तरह मिलूँ/ कि बस मैं ही मिलूँ/ और दिल्ली न आए बीच में’ (गाँव आने पर - 1994) जैसी पंक्तियों में भी वे इसी प्रकार की भावनात्मक कोमलता का संचार करते हैं। जब
वे अपनी ‘चींटियों की रुलाई’ (2001) कविता में - ‘मैं तो बस इस शहर की/ लाखोंलाख चींटियों की मूक रुलाई का/ हिन्दी में अनुवाद करना चाहता हूँ/ सुनो, क्या तुम सुन रहे हो उसे?’ अथवा ‘पानी की प्रार्थना’ (2001) कविता में - ‘समय
ही कुछ ऐसा है / पानी नदी में हो/ या किसी चेहरे पर/
झाँककर देखो तो तल में कचरा/ कहीं दिख ही जाता है’, या फिर ‘पानी था मैं’ (2001) कविता में – ‘कभी पानी था मैं/ बस इतना याद है/ कि एक दिन एक कटोरे से गिरा/ और ज़मीन ने मुझे पी लिया/ जबकि एक बकरी उदास ताकती रही मुझे’ कहते हैं, तब वे अपनी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए ऐसे अनूठे बिम्बों का इस्तेमाल कर रहे
होते हैं, जो हमें अन्यत्र कहीं नहीं दिखते। केदारनाथ सिंह का यह
अनूठा बिम्ब - विधान ही उन्हें श्रेष्ठ एवं मानवीय संवेदनाओं का बेजोड़
कवि बना देता है।
‘सृष्टि पर पहरा’
की कविताओं पर बात शुरू करते समय मैं
सबसे पहले तो यही रेखांकित करना चाहूँगा इस संग्रह की समस्त कविताएँ भाषा, शिल्प व वैचारिकता की दृष्टि से बीसवीं सदी के एक तपे - तपाए कवि द्वारा पूरी वैचारिक सतर्कता एवं आधुनिक सोच
के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के बाद लिखी गई कविताएँ हैं। बीसवीं सदी से इक्कीसवीं
सदी तक की यात्रा के पिछले दो दशकों में भारतीय समाज में बड़ा बदलाव आया है। यह दौर
भारत की वैज्ञानिक एवं तकनीकी प्रगति का दौर रहा है, विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी,
दूरसंचार एवं अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में। यह भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण
का भी दौर रहा है। वाणिज्य एवं व्यापार के भूमंडलीकरण के चलते पूरे विश्व में एक - दूसरे के ऊपर निर्भरता बढ़ी है और पूंजीवाद का बेतहासा
प्रसार हुआ है। अन्य चीज़ों के साथ - साथ कला एवं संस्कृति का भी बाज़ारीकरण
हुआ है। इन प्रवृत्तियों के चलते आर्थिक विषमता की खाईं भी अधिक चौड़ी हुई है, विशेष रूप से भारत में। सता - प्रतिष्ठान में भ्रष्टाचार ने जमकर पैर पसारे हैं और बिना जेब ढीली किए आम आदमी
की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। विज्ञान व तकनीकी के प्रसार ने मानवीय संवेदनाओं को
दरकिनार कर दिया है। सभी कुछ बाज़ार - केन्द्रित हो गया है। हर रिश्ता बाज़ार के हवाले हो गया है। भारतीय राजनीति में
साम्प्रदायिकता और जातिवाद का प्रभाव बढ़ा है और वास्तविक लोकतंत्र इस चक्रव्यूह में
अभिमन्यु की तरह फँसा हुआ लगता है। केदारनाथ सिंह अपनी सोच की आधुनिकता के संदर्भ में
इन सभी बदलावों के प्रभाव को स्वीकारते हुए अपने लेख ‘हिन्दी आधुनिकता का अर्थ’ में स्वयं कहते हैं, - ‘मेरी आधुनिकता
का एक बड़ा हिस्सा बेशक वैज्ञानिक और तकनीकी विकास के गर्भ से पैदा हुआ है परन्तु
विशेष ऐतिहासिक स्थिति की विडंबना यह है कि मेरी आधुनिकता के स्वरूप को निर्धारित
करने में वे वास्तविकताएँ भी एक ख़ास तरह की भूमिकाएँ निभाती हैं, जो आधुनिकता के
सुपरिचित दायरे से बाहर हैं।’ उनके इस नए संग्रह की तमाम कविताओं में इस बदली हुई सामाजिक - राजनीतिक पृष्ठभूमि से जुड़ी चिन्ताओं की अभिव्यक्ति है।
‘सूर्य : 2011’ शीर्षक कविता में – ‘मैं उसे इसलिए भी जानता हूँ/ कि वह ब्रह्मांड का / सबसे सम्पन्न सौदागर है/ जो
मेरी पृथ्वी के साथ/ ताप और ऊर्जा की तिजारत करता है/ ताकि उसका मोबाइल/ होता रहे
चार्ज’ कहकर वे व्यंग्यपूर्वक उस सर्वव्यापी बाज़ारवाद की प्रवृत्ति की ओर इशारा
करते हैं, जिसने पृथ्वी के सबसे बड़े हितैषी सूर्य को भी अपनी गिरफ़्त में लेने से
नहीं छोड़ा है।
‘विद्रोह’ कविता में आज की तथाकथित आधुनिकता के प्रति कवि
के मन में उपज रहे विद्रोह की अभिव्यक्ति हुई है। विज्ञान ने हमें बहुत कुछ दिया
है लकिन हम से बहुत कुछ छीना भी है। हमारे वन - बाग सब उजड़ रहे हैं। धरती की छाती
चीरकर उसका सारा स्वत्व अपहृत किया जा रहा है, वह भी कुछ समय की विलासिता के लिए। हमारी
सीमित सोच और प्रकृति के अनियंत्रित दोहन ने धरती को एक महाविनाश के कगार पर लाकर
खड़ा कर दिया है। इस कविता में हमारी स्वार्थी अंधवैज्ञानिकता व शोषण के विरुद्ध घर
के भीतर ही उठ खड़े हुए विद्रोह की बड़ी ही रोचक एवं व्यंग्यात्मक प्रस्तुति है, - ‘आज
घर में घुसा/ तो वहाँ अजब दृश्य था/ सुनिए - मेरे बिस्तर ने कहा - / यह रहा मेरा
इस्तीफा/ मैं अपने कपास के भीतर/ वापस जाना चाहता हूँ।’ बिस्तर ही नहीं घर की
कुर्सी और मेज़, आलमारी में बंद किताबें, दुम्बा भेड़ के बालों की कुल्लू से लाई गई
शॉल, टेलीविज़न और फोन, पानी तथा दरवाज़ा सभी विद्रोह कर देते हैं। सब अपने - अपने
घर लौट जाना चाहते हैं। नल से टपकता पानी तड़पकर कहता है, - ‘अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए/ इन बूँदों की आवाज़ - / कि अब हम/ यानी आपके सारे के सारे क़ैदी/ आदमी की जेल
से/ मुक्त होना चाहते हैं।’ इस विद्रोह का सामना कोई कैसे कर सकता है। इस विद्रोह
की आँच से बचने के लिए पलायन करते समय भी दरवाज़े की चेतावनी देखिए, - ‘अब जा कहाँ
रहे हैं - / मेरा दरवाज़ा कड़का/ जब मैं बाहर निकल रहा था।’ निस्संदेह इस कविता के
माध्यम से केदारनाथ सिंह यह स्पष्ट कर देते हैं कि वैज्ञानिक व तकनीकी ज्ञान पर
आधारित तथाकथित आधुनिकता का जो स्वांग चारों तरफ रचा जा रहा है, वे उससे सहमत
नहीं। आधुनिकता मानवीय संवेदनाओं व जनकल्याण की कसौटी पर खरी उतरने वाली और टिकाऊ
होनी चाहिए। वह शोषण को बढ़ावा देने वाली तथा विनाश की ओर ढकेलने वाली नहीं होनी
चाहिए।
केदारनाथ सिंह ने ‘ईश्वर को एक
भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव’ शीर्षक कविता में भारतीय समाज एवं राजनीति की तमाम
विसंगतियों की ओर बड़े ही कटाक्षपूर्ण तरीके से उँगली उठाई है। भारत की आबादी
बेतहासा बढ़ी है। लोगों का शहरों की ओर पलायन भी तेजी से हो रहा है। शहरों की हालत
यह है कि वहाँ न तो बच्चों के खेलने के लिए कहीं कोई खुली जगह बची हैं और न ही
वाहनों की पार्किंग के दबाव के चलते गलियों में कोई खाली कोना। ऐसे में वे ईश्वर
से - ‘यहाँ शहरों की गलियाँ/ अब पड़ रही
हैं छोटी/ इसलिए कुछ ऐसी जुगत करना/ कि पृथ्वी के बच्चे/ कभी - कभी क्रिकेट खेल
आएँ/ चाँद पर’ कहकर बड़े ही विनोदपूर्ण व व्यंग्यात्मक तरीके से आज की इस स्थिति पर
कटाक्ष किया है। वे ईश्वर का ध्यान भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद के वर्चस्व की
ओर भी खींचते हैं। उन्हें यह अहसास है कि चाहे जितना प्रयत्न किया जाय, समाज से इस
बीमारी को ख़त्म करना असंभव है। उन्हें इस बात का भी विश्वास नहीं कि ईश्वर भी मौजूदा
स्थिति में समाज को जातिवाद से मुक्त करा सकता है। इसीलिए वे इस समस्या के ख़ात्मे
के लिए मौजूदा भारतीय समाज को सुधारने का कोई उपाय करने के बजाय ईश्वर को भारतीय
समाज का पुनर्सृजन करने की सलाह देते हैं, - ‘भारत का सृजन/ अगर फिर से करना/ तो जाति -
नामक रद्दी को/ फेंक देना अपनी टेबुल के नीचे की/ टोकरी में।’ जातिवाद की समस्या
से अभिशप्त भारतीय समाज के संदर्भ में उनकी ‘हिन्दी आधुनिकता का अर्थ’ में कही गई
यह बात उनकी सोच का पूरा खुलासा करती है, - ‘मैं चाहूँ या न चाहूँ, अपने समाज में अपने सारे मानववाद के बावजूद, मैं एक
जाति - विशेष का सदस्य माना जाता हूँ। यह मेरी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है,
जिससे मेरे रचनाकार की संवेदना बार - बार टकराती है और क्षत - विक्षत होती है।
मेरी आधुनिकता में यह खरोंच भी शामिल है।’ केदारनाथ सिंह की इस प्रकार की
पंक्तियाँ पढ़ते समय मुझे वे आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता से परे एक नवाधुनिकता -
भरी सोच के कवि नज़र आते हैं।
‘ईश्वर को एक भारतीय नागरिक के
कुछ सुझाव’ कविता के अंतिम चरण में जब केदारनाथ सिंह
का व्यंग्यात्मक लहज़ा चरम पर पहुँच जाता है, तब वे पृथ्वी के विनाश की अटकलबाज़ियों
की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, - ‘सुझाव तो ढेरों हैं / पर जल्दी - जल्दी में/ एक
अंतिम सुझाव/ इधर मीडिया में विनाश की अटकलें/ बराबर आ रही हैं/ सो पृथ्वी का
कॉपीराइट सँभालकर रखना/ यह क्लोन - समय है/ कहीं ऐसा न हो/ कोई चुपके से रच दे/ एक
क्लोन - पृथ्वी’। इस प्रकार वे पुन: बाज़ारवाद की उस भयावह विश्वव्यापी प्रवृत्ति
की के प्रति अपनी चिन्ता व्यक्त करते हैं, जिसने ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र को भी
पूरी तरह जकड़ लिया है। आज वैज्ञानिक शोध व नई तकनीकी खोजें मनुष्य - कल्याण के लिए
न होकर बाज़ार पर पर कब्ज़ा जमाने के लिए होने लगी हैं। नए रसायनों व तकनीकों का
पेटेन्ट कराकर कंपनियाँ पूरी दुनिया को लूट रही हैं। हर बात का कॉपीराइट होता है,
ताकि दूसरा कहीं उसे चुराकर अपने नाम से बाज़ार में न बेंच दे। इसके मूल में
अन्तर्निहित चिन्ता यही है कि आज हर चीज़ बिकाऊ है और जो चीज़ बिकाऊ नहीं है वह
बेकार है। केदारनाथ सिंह ने यहाँ पृथ्वी की क्लोनिंग की संभावना और उसका व्यापारिक
लाभ उठाए जाने की संभावना को ध्यान में रखते हुए ईश्वर को जिस तरह से उसका
कॉपीराइट संभालकर रखने की सलाह दी है, वह दरशाता है कि वे आज की दुनिया की
समस्याओं के प्रति कितने सजग व कितने मुखर हैं। वे इस बात से भी चिन्तित दिखते हैं
कि विज्ञान के स्वार्थपूर्ण उपभोग ने लोगों को गैर - संवेदनशील बना दिया है। वे ‘विज्ञान और नींद’
कविता में बड़े ही व्यंग्यात्मक लहज़े में कहते हैं, - ‘विज्ञान के अंधेरे में/ अच्छी नींद आती है।’
मुझे सबसे महत्वपूर्ण बात यह लगती है कि आज की व्यावसायिक
आपाधापी व बाज़ारवाद के ख़तरों के बीच भी केदारनाथ सिंह मौलिकता को बचाए रखने तथा
अपने अस्तित्व को संरक्षित करने का प्रयास करना नहीं छोड़ना चाहते। तभी तो ‘ईश्वर को एक भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव’ में
वे - ‘बनारस को रहने देना/ वरुणा और गंगा के बीच के/ दियारे में’ तथा - ‘इस उलट -
फेर में बस इतना ध्यान रहे/ मेरा छोटा - सा गाँव/ कहीं उजड़ न जाय/ और दलपतपुर -
चट्टी की बुढ़िया की बकरी/ लौट आए घर’ कहकर पूरी मार्मिकता के साथ ईश्वर से अपनी
ज़मीन, अपना अस्तित्व बचाए रखने की माँग करते हैं। एक तरह से इन पंक्तियों के माध्यम
से वे भूमंडलीकरण की संस्कृति एवं दुनिया में व्याप्त होती जा रही सर्वग्रासी
उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को जारी रखने की मुनादी करते हैं। ‘घास’ कविता में भी - ‘जब तुम सो जाते हो/ वह पीटती है तुम्हारे दरवाज़े/ कभी देखना
गौर से/ शायद तुम्हारे मोबाइलों में दिख जाएँ/ कुछ धुँधले - से 'मिस्ड कॉल' कहकर
वे मोबाइल फोन की मिस्ड कॉल जैसे आधुनिकतम बिम्ब के माध्यम से अपनी उसी मौलिकता को
बचाए रखने की, अपने खोते जा रहे अस्तित्व को पहचानने एवं सँजोकर रखने की संवेदना
को अभिव्यक्त करते हैं। ‘बबूल के नीचे सोता बच्चा’ कविता में वे एक कदम
और आगे बढ़ते हुए एक मजदूरनी के सोते हुए बच्चे को बिम्ब बनाकर आज की वैज्ञानिक
उपलब्धियों और तथाकथित विकास पर खुश होने वालों को चेतावनी देते हुए कहते हैं, - ‘दिल्ली
से कह दो/ हरिकोटा से कह दो/ दुनिया के सारे राडारों से कह दो/ एक अभी - अभी बना
अन्तरिक्षयान सो रहा है/ बबूल के नीचे’। वे यही नहीं रुकते, वे उस मजदूर स्त्री की
पूरी पीड़ा को, उसकी गरीबी से जुड़ी पूरी संवेदना को आगे की इन पंक्तियों में बड़ी ही
मार्मिकता के साथ आधुनिकता का पर्याय बन गई इस रॉकेटयुगीन मानवीय निस्संगता से जोड़
देते हैं, -
‘नहीं
… नहीं …
अभी
उल्टी गिनती शुरू मत करो
अभी
उड़ने में देर है
माँ
अभी व्यस्त है सोहनी में
दूध
अभी गरम हो रहा है
पसीने
की आँच पर
बनिहारी
अभी मिलेगी
छह
घण्टे बाद …’
केदारनाथ सिंह अपनी विरासत से
मुक्त होकर केवल वर्तमान में नहीं जीना चाहते। उनके लिए उद्गम बहुत महत्वपूर्ण है।
वे अच्छी तरह जानते हैं कि नदी चाहे जितनी बड़ी हो, उसमें चाहे जितना जल हो, लेकिन
उसका अस्तित्व तभी तक है जब तक पर्वत - शिखर पर स्थित उसका मूल संरक्षित है। उसके
जल का गुण उसके उद्गम से जुड़ा होता है। जो ग्लेशियर उसके उद्गम का स्रोत है, उसके पिघलते
ही नदी का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। वह केवल बरसाती जल को बहाकर ले जाने वाली
एक राह भर रह जाएगी। बाकी समय वह शुष्क एवं दुनिया के लिए बस एक बाधा के रूप में
ही नज़र आएगी। मौलिकता की खूबसूरती प्रच्छिन्न भले ही हो, किन्तु वह अद्भुत होती है
और जिजीविषा की संवाहक होती है। जहाँ मूल संरक्षित बना रहता है, वहीं वास्तविक
विकास होता है। ‘कपास के फूल’ कविता में - ‘पर क्या कभी सोचा है आपने/ वह जो आपकी कमीज़ है/ किसी खेत
में खिला/ एक कपास का फूल है/ जिसे पहन रखा है आपने’ कहकर वे बड़ी ही खूबसूरती के
साथ वर्तमान और अतीत के रिश्ते को जोड़ते हैं। ‘पाँव’ कविता में वे - ‘चीन के एक म्यूज़ियम में/ मैंने
सदियों पुराना एक पाँव देखा था/ जो न जाने कितने सौ वर्षों से/ चल रहा था पड़े -
पड़े’ जैसी बात कहकर वे विरासत की ताक़त की मुनादी करते हैं। अतीत की यह ताक़त ही है
जो मनुष्य के वर्तमान को रास्ता दिखाती है और उसे मजबूती के साथ आगे की ओर बढ़ने के
लिए प्रेरित करती है। केदारनाथ सिंह के शब्दों में अन्तर्निहित अर्थ को समझें तोथम
यह कह सकते हैं कि यदि अतीत में कहीं कोई मजबूती रही है तो वह बेज़ान होकर पड़ी नहीं
सकती, वह हमारे साथ वर्तमान में भी कदम से कदम मिलाकर चलेगी। अतीत की ताक़त ही हमें
वर्तमान में सही रास्ते से भटकने नहीं देती। हमारा वर्तमान उसी इबारत को पढ़ता है
जो अतीत में लिखी गई है। ‘पाँव’ की निम्न पंक्तियों में वे इस बात को बड़े ही प्रभावी
ढंग से रेखांकित करते हैं, -
‘कभी
पढ़ना ध्यान से -
रास्ते
वे पंक्तियाँ हैं
जिन्हें
लिखकर
भूल
गए हैं पाँव’
परम्परा को सहेजकर रखने का
आह्वान जिस तरह से केदारनाथ सिंह की कविताओं में आया है, वह शायद ही अन्यत्र कहीं
दिखे। बड़े ही सहज बिम्बों के माध्यम से उन्होंने अतीत को पहचानने, उसकी महत्ता की
पड़ताल करने तथा उसकी उपलब्धियों को रेखांकित करने की बात की है। ‘अगर इस बस्ती से
गुज़रो’ शीर्षक कविता में - ‘वो जो दिख रहा है सामने एक पुराना - सा पेड़/ उसकी छाल को जरा - सा कुरेदकर
देखना/ उसके नीचे दबी हैं कई कहानियाँ/ जाने कितने चरित्र’, कहकर उन्होंने इस ओर
एक गंभीर संकेत किया है। परम्परा की यह थाती कहीं दूर नहीं छिपी है। वह हमारे आस -
पास ही है, जैसा कि यहाँ सामने के पुराने पेड़ के संदर्भ से स्पष्ट है। इस विरासत
को पहचानना दुरूह भी नहीं है, जैसा कि यहाँ छाल को जरा - सा कुरेदने की बात कहकर
स्पष्ट किया गया है। इसी कविता में वे - ‘अगर रास्ते में दिख जाय/ कोई पड़ा हुआ
ठीकरा/ उठा लेना उसे/ हो सकता है उसमें छिपा हो/ कोई नया हड़प्पा’ कहकर यह और भी
ज्यादा स्पष्ट कर देते हैं कि हमारी धरोहर हमारे आस - पास की साधारण चीज़ों में ही हर
तरफ बिखरी हुई है, बस हम उसे पहचान नहीं पाते, उसकी उपेक्षा करते हैं, उसे खोते
चले जाते हैं, उसे सँभालने और संरक्षित करने का कोई प्रयास नहीं करते। संभवत: कवि
इस तरफ इशारा करना चाहता है कि हमारी मौलिक अथवा पारम्परिक ताक़त हमारे भीतर ही
छिपी हुई है, जरूरत है तो बस उसे पहचानने की और उसके सहारे अपने को मजबूत बनाने और
सही रास्ते पर आगे बढ़ने की। परम्परा को सहेजने का यह संकेत कहीं भी रूढ़ियों अथवा
विसंगतियों को संरक्षित करने से संबद्ध नहीं है।
‘जाऊँगा कहाँ’ कविता में
केदारनाथ सिंह थोड़ी भावुकता - भरे अंदाज़ में इस बात को रेखांकित करते हैं कि अतीत
कभी मिटता नहीं। वह वर्तमान में ही छिपा रहता है। वह वर्तमान में कुछ इस तरह घुला
- मिला रहता है कि उसे अलग से पहचानना मुश्किल होता है। हर जगह उसकी एक अदृश्य
उपस्थिति होती है। वह बड़ी स्पष्टता के साथ कहता है, - ‘जाऊँगा कहाँ/ रहूँगा यहीं’। वह एक विडंबना - भरी
अभिव्यक्ति के साथ कहता है, - ‘किसी किवाड़ पर/ हाथ के निशान की तरह/ पड़ा रहूँगा’।
वह बड़ी ही संवेदना के साथ कहता है, - ‘किसी पुराने ताखे/ या सन्दूक की गन्ध में/
छिपा रहूँगा मैं’। केदारनाथ सिंह की इस कविता को पढ़ते - पढ़ते वास्तव में रोमांच हो
आता है। ऐसा कवि तो वास्तव में कभी मिट जाने वाले अतीत का हिस्सा बन नहीं सकता। वह
हमेशा ही हमारे उस गौरवशाली अतीत का ही हिस्सा बनेगा, जो हमेशा याद किया जाएगा और
वर्तमान को उद्वेलित और उत्प्रेरित करता रहेगा। वह बार - बार हमारे बीच लौटता
रहेगा और अपनी उपस्थिति का अहसास कराता रहेगा, जैसा कि कवि ने स्वयं इस कविता में
कहा है, -
‘देखना
रहेगा
सब जस का तस
सिर्फ़
मेरी दिनचर्या बदल जाएगी
साँझ
को जब लौटेंगे पक्षी
लौट
आऊँगा मैं भी
सुबह
जब उड़ेंगे
उड़
जाऊँगा उनके संग …’
केदारनाथ सिंह की कविताओं में परम्परा
की महत्ता तथा उसकी ताक़त का अहसास कराए जाने के साथ - साथ आधुनिकता की आहट और परम्परा से होने वाली उसकी टकराहट का भी विशिष्ट चित्रण है।
जब परम्परा आधुनिकता से टकराती है तो जहाँ जरूरी होता है, वहाँ परम्परा ठहर जाती
है और आधुनिकता को अपने ढंग से परिस्थितियों को बदलने देती है। इसी से परम्परा और
आधुनिकता के बीच एक तालमेल बनता है। यह तालमेल सार्वकालिक है, अर्थात पहले भी होता
रहा है और आगे भी होता रहेगा। जीवन में दोनों का अपना - अपना महत्व है। ‘बैलों का
संगीत - प्रेम’ शीर्षक कविता में - ‘शहर की ओर जाते हुए/ अपनी बीहड़ आज़ादी में/ सड़क के किनारे/ ठिठक गए थे बैल/ बगल
के खेत में ट्रैक्टर के चलने का/ संगीत सुनते हुए’ कहकर वे इसी ओर संकेत करते हैं। शहर की ओर जाते समय सड़क के किनारे बैलों का
ट्रैक्टर का संगीत सुनते हुए ठहर जाना एक अद्भुत बिम्ब है जो परम्परा और
आधुनिकता के बीच के द्वंद को बखूबी चित्रित करता है। इस द्वंद में पीड़ा भी है और सौन्दर्य
भी है। पीड़ा कुछ खो देने की है और सौन्दर्य परम्परा के प्रति अन्तर्निहित प्रेम का
है। तभी तो उन्होंने आगे लिखा है, - ‘कितना त्रासद था/ कितना मुग्धकारी/ बैलों का वह संगीत -
प्रेम’। यह प्रेम द्वन्द्व से घबराता नहीं, वह अपने को उसके लिए समर्पित करता है,
जिसमें उसका विश्वास है। ‘यह मेरे संगीत का समय है - / मैंने स्वयं से कहा/ और
ठिठक गया मैं भी’ कहकर कवि स्वयं को अपने समय के प्रति, अपने विश्वास के प्रति, अपने
विचार के प्रति समर्पित करता है। इसी तरह ‘गमछा और तौलिया’ कविता में जब केदारनाथ सिंह - ‘तौलिया गमछे से कह रहा था/ तू हिन्दी
में सूख रहा है/ सूख, / मैं अंग्रेज़ी में कुछ देर/ झपकी लेता हूँ’ कहते हैं, तब भी
वे परम्परा और आधुनिकता के बीच के इसी प्रकार के द्वंद्व तथा उनके बीच बिठाए जाने
वाले सामंजस्य की ओर इशारा कर रहे होते हैं।
परम्परा
और आधुनिकता के बीच की टकराहट में हमेशा सब कुछ बदल ही नहीं जाता। हर आदमी समाज
में अपने - अपने तरीके से जीता है, अपने - अपने तरीके से सोचता है और अपने तरीके
से आगे की दिशा निर्धारित करता है। कुछ लोग परम्परा का हाथ पकड़कर जीते हैं और कुछ
अपने अतीत को भुलाकर समय के साथ आगे निकल जाते हैं। ‘समय से पहली मुलाकात’ शीर्षक कविता में केदारनाथ
सिंह ने कहा है - ‘अब किससे पूछूँ/ यह मेरा तो नहीं/
आखिर किसका समय है/ जो बजता रहता है मेरी घड़ी में?’ यहाँ कवि अपने समय को
खो देने की पीड़ा को अभिव्यक्त करता है। उसकी घड़ी में जो समय बज रहा है वह उसका
नहीं है। वह यह भी नहीं जानता कि वह किसका समय है। आज का समय ऐसा ही है, जहाँ व्यक्ति अपनी परम्परा से कटा हुआ है। अपने को पूरी तरह बदल भी
नहीं पाया है। उसका अपना कोई स्थापित संस्कार नहीं बन पाया है। वह कहीं बीच में ही
त्रिशंकु - सा लटका हुआ है। वह संकर संस्कृति का प्रतीक है। वह समय के संधिकाल
में जी रहा है। समय की संकरता का यह दायरा विस्थापन के विस्तार के साथ - साथ व्यापक
होता चला जाता है। ‘देश और घर’ कविता में केदारनाथ सिंह विस्थापन के कारण पैदा
हुई इस संकरता से जूझने की स्थिति का बड़ी ही संवेदना के साथ चित्रण करते हैं। इस
कविता में - ‘हिन्दी मेरा देश है/ भोजपुरी मेरा घर/ घर से निकलता हूँ/ तो चला जाता
हूँ देश में/ देश से छुट्टी मिलती है/ तो लौट आता हूँ घर’ जैसी पंक्तियों के
माध्यम से वे अपनी भाषायी संकरता की विडंबना का उल्लेख करते हैं। उनका जन्म
भोजपुरी प्रदेश में हुआ है, इसलिए भोजपुरी उनका घर है। किन्तु समय ने उन्हें
अपने घर से उठाकर देश भर में घुमा दिया है, इसलिए वे देश के हो गए हैं, जहाँ उनकी
भाषा हिन्दी है। लेकिन उन्होंने भोजपुरी का वह घर कभी खाली नहीं किया है। इसी से
वह द्वन्द्व शुरू होता है जिसका ‘बैलों का संगीत
- प्रेम’ में जिक्र है। कभी वे हिन्दी में
रमते हैं तो कभी भोजपुरी के घर लौट जाते हैं। इस आवाजाही में वे बार - बार कुछ
खोते और कुछ पाते रहते हैं। अपनी इस पीड़ा को वे ‘देश और घर’ में - ‘इस आवाजाही में/ कई बार घर में चला आता
है देश/ देश में कई बार/ छूट जाता है घर’ कहकर अभिव्यक्त करते हैं। उन्हें यह
आशंका है कि इस संकरण की प्रक्रिया में वे किसी एक के नहीं हो पा रहे
हैं और दोनों को ही खोए दे रहे हैं। अपनी इस विडंबना को वे इन शब्दों में
अभिव्यक्त करते हैं, -
‘मैं दोनों को प्यार करता
हूँ
और देखिए न मेरी मुश्किल
पिछले साठ बरसों से
दोनों में दोनों को
खोज रहा हूँ’
मनुष्य जहाँ - जहाँ भी जाता है, अपने
पारम्परिक परिवेश को, उसकी गंध को, उसकी अच्छाइयों - बुराइयों को अपने संग समेटे
हुए चलता है। वह जहाँ भी रहता है, परम्परा अदृश्य रूप से उसके साथ बनी रहती है। वह
परम्परा की खुशबू को बचाए रखने की कोशिश करता है। उस पर गर्व महसूस करता है। ‘भोजपुरी’ शीर्षक कविता में जब केदारनाथ
सिंह - ‘कभी आना मेरे घर/ तुम्हें सुनाऊँगा/ मेरे झरोखे पर रखा एक
शंख है यह/ जिसमें धीमे - धीमे बजते हैं/ सातों समुद्र’ कहते हैं, तो वे अपनी गौरवशाली
भाषायी परम्परा के प्रति अपने इसी प्रकार के लगाव को व्यक्त कर रहे होते हैं।
व्यक्ति कभी भी अपनी मौलिक पहचान को, अपनी अस्मिता को खोना नहीं चाहता। लेकिन विस्थापन
और समय के परिवर्तन के साथ वह धीरे - धीरे उससे विलग होता चला जाता है। परम्परा
उसके वर्तमान में चुपके से कहीं खो जाती है। केदारनाथ सिंह की कविता ‘काली सदरी’
इस दृष्टि से अत्यधिक उल्लेखनीय है। इस कविता में वे - ‘बरसों पहले/ इस महानगर में जब पहली बार आया था/ मेरे
बदन पर एक कुर्ता था/ जिसे गाँव के बूढ़े दर्ज़ी ने सिला था/ कुर्ते में एक जेब भी
थी छोटी - सी/ जिसमें मकई के लावा की/ गन्ध भरी थी/ वह मेरे साथ - साथ रही कई
हफ़्तों तक/ इस महानगर में’ कहकर दिल्ली में अपने साथ सँजोकर लाई गई अपनी विरासत का
जिक्र करते हैं। आगे इस कविता में वे अपनी काली सदरी और उसके धागों में छिपकर
कस्बे से आई हुई धूल का जिक्र करते हुए - ‘और हाँ - मेरे सफ़ेद कुर्ते पर/ एक काली
सदरी भी थी/ जिसके धागों में छिपी थी/ एक छोटे - क़स्बे की ज़रा - सी धूल/ मैंने
कोशिश बहुत की/ कि वह ज़रा - सी धूल/ मेरे संग - संग बची रहे महानगर में/ पर पता
नहीं कैसे/ धीरे - धीरे झरती रही वह/ झरती रही मेरी पहचान/ मेरी देह से धीरे - धीरे/
और एक दिन मैंने पाया/ अब मेरी पहचान/ 88/3 दिल्ली है’ कहकर अपनी उस अस्मिता के
दिल्ली में खो जाने की पीड़ा का बयान करते हैं। इसमें अपनी पहचान के खो जाने का,
उसके बदल जाने का दर्द छिपा है। विस्थापन की यह पीड़ा, यह वास्तविकता, यह परिणति
सार्वभौमिक है, केदारनाथ सिंह की अकेले की नहीं है।
समय के
साथ भले ही भौतिक परिदृश्य बदल जाता है, निमित्त बदल जाते हैं, पात्र बदल जाते
हैं, लेकिन परम्परा की गूँज नहीं बदलती। वह अदृश्य रूप से हमारे बीच अपनी उपस्थिति
का अहसास कराती रहती है। केदारनाथ सिंह ‘निराला
की आवाज़’ कविता में - ‘कोई आधी सदी बाद/ कल गया था देखने/ शहर बनारस का वह
पुराना स्कूल/ मंच नहीं था/ श्रोता नहीं थे/ कोई शब्द नहीं था/ सिर्फ़ एक - /
'पत्रोत्कंठित' पेड़ वहाँ खड़ा था/ और निराला बोल रहे थे’ कहकर इसी सच्चाई की ओर
इशारा करते हैं। आज निराला हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके बोल फिर भी हमारे कानों
में गूँजते हैं। केदारनाथ सिंह परम्परा की इस गूँज को सँजोए रखने का आह्वान करते
हैं। ‘एक लोकगीत की अनु - कृति’ में मंगल
मांझी की गायकी को याद करते हुए वे परम्परा के प्रति अपने अमिट प्रेम को इन शब्दों
में व्यक्त करते हैं, - ‘किसी को प्यार करना/ तो चाहे चले जाना सात समुंदर
पार/ पर भूलना मत/ कि तुम्हारी देह ने एक देह का/ नमक खाया है।’ कविता - संग्रह की
शीर्षक कविता ‘सृष्टि
पर पहरा’ में विरासत के मिटते जा रहे अस्तित्व को और उसे बचाए रखने के लिए
संघर्षरत चंद लोगों की महत्ता को एक सूखते हुए विशाल झरनाठ वृक्ष पर हिलते - डुलते
पत्तों जैसे अद्भुत बिम्ब के माध्यम से वे बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सामने रखते
हैं, - ‘जड़ों की डगमग खड़ाऊ पहने/ वह सामने
खड़ा था/ सिवान का प्रहरी/ जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस - / एक सूखता हुआ लम्बा
झरनाठ वृक्ष/ जिसके शीर्ष पर हिल रहे थे/ तीन - चार पत्ते।’ केदारनाथ सिंह की
दृष्टि में परम्परा को जीवित रखने का, अस्मिता को बचाए रखने का, अस्तित्वहीनता से
उबारने का यह संघर्ष उल्लेखनीय है। इस संघर्ष के पीछे कोई विशाल समूह नहीं है,
शक्ति नहीं है, लेकिन फिर भी उद्देश्य की दृष्टि से, जिजीविषा की भावना की दृष्टि
से, साहस की दृष्टि से, प्रेम और समर्पण की दृष्टि से यह संघर्ष महान है, - ‘कितना
भव्य था/ एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर/ महज़ तीन - चार पत्तों का हिलना।’ कितना
विशिष्ट है यहाँ कवि का यह कहना, -
‘उस
विकट सुखाड़ में
सृष्टि
पर पहरा दे रहे थे
तीन
- चार पत्ते।’
‘सृष्टि
पर पहरा’ कविता - संग्रह में वरिष्ठ कवि एवं कथाकार उदय प्रकाश को याद करते हुए
केदारनाथ सिंह द्वारा लिखी गई ‘मंच और मचान’ शीर्षक कविता भी शामिल है। इस कविता में एक
पुराने वट - वृक्ष के काटे जाने का वर्णन है। वह वट - वृक्ष वर्षों से जीती -
जागती हमारी संस्कृति का प्रतीक है। वह परम्परा का प्रतीक है। वह एक धरोहर है।
वह कितने ही जीव - जन्तुओं का पारिस्थितिक केन्द्र है। वह उनका घर है। उस वृक्ष
पर बौद्ध भिक्खु चीना बाबा रहते हैं, जिनका स्थान धरती से ऊपर है। उनका लोगों के
हृदय में स्थान है। वह वृक्ष ही चीना बाबा का घर है, अर्थात वह लोगों की भावनाओं
का भी हृदय - स्थान है। जब वह पेड़ काटा जा रहा है तो वह घर उजड़ रहा है। उसकी
संस्कृति और परम्परा उजड़ रही है। लोगों की भावनाएँ आहत हो रही हैं, लेकिन फिर
भी पेड़ काटा जा रहा है। पेड़ ऊपर से मिले हुक़्म के तहत काटा जा रहा है। यह विकास
के नाम पर होने वाले विनाश का प्रतीक है। यह अद्भुत बिम्ब सत्ता के अहंकार व
अंधेपन की ओर इशारा करता है। उसकी नासमझी और गैर - संवेदनशीलता दरशाता है। कविता
में सत्ता का यह केन्द्र देश के प्रधानमंत्री तक विस्तृत है। हुक़्म
प्रधानमंत्री का है, इसलिए पेड़ का कटना टल नहीं सकता। जो कुछ उजड़ रहा है वह गाँव
वालों का है। सता – प्रतिष्ठान को उससे कोई मतलब नहीं। पेड़ के उजड़ जाने के बाद
भी वह घर, वह धरोहर, वहाँ की परम्परा वहीं की वहीं है, यह अहसास होना अद्भुत है। यह एक अद्भुत चेतना और संवेदना का संचार
करने वाली स्थिति है। इस कविता की ये पंक्तियाँ, - ‘कि अचानक/ जड़ों के भीतर एक कड़क - सी हुई/ और लोगों ने देखा कि
चीख़ न पुकार/ बस झूमता-झामता एक शाहाना अंदाज़ में/ अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद/
सिर्फ 'घर'
- वह शब्द/ देर तक उसी तरह/ टंगा रहा हवा में/ तब से कितना
समय बीता/ मैंने कितने शहर नापे/ कितने घर बदले/ और हैरान हूँ मुझे लग गया इतना
समय/ इस सच तक पहुँचने में/ कि उस तरह देखो/ तो हुक़्म कोई नहीं/ पर घर जहाँ भी
है/ उसी तरह टंगा है’, वर्तमान समय में चारों तरफ व्याप्त विस्थापन की त्रासदी को
पूरी तरह से प्रतिध्वनित करती है।
केदारनाथ सिंह परम्परा की
उपेक्षा और उसके विद्रूप से व्यथित होते हुए ‘अगर इस बस्ती से गुज़रो’ कविता में एक
ऐसा बिम्बात्मक पोर्ट्रेट खींचते हैं, जो स्मृतियों को झकझोरता हुआ सीधा दिल की
दीवार पर टंग जाता है। यह बस्ती एक तरफ अतीत की याद दिलाती है तो दूसरी तरफ
वर्तमान समय का लाचार चेहरा भी उजागर करती है। इस चेहरे की झुर्रियाँ सैकड़ों वर्ष
पुरानी है। उसकी पीड़ा चिरन्तन है। जब वे इस कविता में, - ‘वैसे तो रास्ता थोड़ा टेढ़ा होगा/ पर वो जिधर से आ रही
है/ एक आटाचक्की के चलने की आवाज़/ उस सँकरी गली से जरूर होते जाना/ वहाँ चक्की पर
एक झुका हुआ चेहरा दिखेगा तुम्हें/ उसने इतने समय से/ और इतना देखा है दानों की हड्डियों
को चूर - चूर होते/ कि वह ख़ुद तुम्हें लगेगा एक दाने की तरह/ अपनी बारी के इंतज़ार
में’ कहते हैं, तब वे बस्ती के चक्की वाले के झुके हुए निरीह चेहरे के बहाने आज के
समय की सम्पूर्ण त्रासदी का बयान - सा करते हुए लगते हैं। दानों की हड्डियों को
चूर - चूर होते देखने का बिम्ब अद्भुत है। यहाँ दाने समस्त शोषित मनुष्यों का
प्रतीक हैं। वह चक्की वाला उनके पिसने का साक्षी भी है और निमित्त भी। विडंबना यह
है कि आज वह ऐसे समय में हैं, जहाँ वह खुद भी दानों की तरह ही पीसा जाने वाला है।
कवि हमें इस बस्ती से गुजरते समय यह सब देखने का आह्वान करता है। वह हमें उस बस्ती
की संवेदना को कैमरे में क़ैद करके अपने साथ ले जाने का आह्वान करता है। ‘अब यहाँ
तक आए/ तो मेरी गुज़ारिश है/ गफ़ूर मियाँ से जरूर मिलते जाना/ और कैमरा हो तो लेते
जाना/ उनकी शतायु झुर्रियों का एक फोटो/ बस इस बस्ती की एक छोटी - सी भेंट होगी/
तुम्हारे लिए’ कहकर कवि हमसे यह अपेक्षा करता है कि हम इस संवेदना की थाती को अपने
पास सँजोकर रखें।
‘अगर इस बस्ती से गुज़रो’ कविता
में केदारनाथ सिंह का स्त्री - विमर्श भी मुखर होकर सामने आया है। इस बस्ती में एक
निर्भीक व खुद्दार स्त्री भी उपस्थित है, जो अब उसके अतीत का एक हिस्सा है। वह उस
बस्ती की परम्परा के संदर्भ में एक विद्रोही तत्व है। वह उस बस्ती के पुरुषवादी
समाज से लड़ती - भिड़ती रही है, किन्तु आज इस दुनिया में नहीं है। उसके अस्तित्व का
चित्रण इस कविता में इस प्रकार से हुआ है, - ‘थोड़ा आगे जाने पर/ एक छोटा - सा जर्जर घर तुम्हें
मिलेगा/ कुछ समय पहले तक/ उसमें एक बुढ़िया रहती थी - / मर्दों की दुनिया से लड़ती -
झगड़ती/ एक निपट अकेली खुद्दार और/ वह इस बस्ती की सबसे दमदार आवाज़ थी।’ कवि उस
स्त्री की संघर्षशीलता को एक यादगार के रूप में सँजो लेना चाहता है। उसे आने वाली
पीढ़ी के लिए एक प्रेरणा - स्रोत के रूप स्थापित करना चाहता है। इसीलिए वह हमें यह
संदेश देता है, - ‘जरा सोचना इस पर/ क्या यह संभव नहीं कि उस घर को/ कर दिया जाय
घोषित/ एक राष्ट्रीय धरोहर।’ निश्चित ही इस संदेश के माध्यम से केदारनाथ सिंह उस
स्त्री के संघर्ष को, उसकी चेतना को, उसकी शक्ति को एक राष्ट्रव्यापी भावना का
केन्द्र बना देना चाहते हैं। जब तक यह चेतना देश के कोने - कोने में फैली हज़ारों -
हज़ार बस्तियों तक नहीं फैल जाती तब तक इस देश के पुरुष - प्रधान समाज में व्याप्त
स्त्रियों के शोषण, उन पर होने वाले अन्याय और अत्याचार का सिलसिला, उन्हें कदम -
कदम पर हाशिए पर धकेल दिए जाने की कोशिशें थमने वाली नहीं हैं। केदारनाथ सिंह की
कविताओं में इस तरह का स्त्री - विमर्श अन्यत्र कम ही नज़र आता है, अत: निश्चित ही
यह कविता उनके रचना - संसार में एक विशिष्ट स्थान ग्रहण करेगी।
‘सृष्टि
पर पहरा’ में शामिल केदारनाथ सिंह की कविताओं में जगह - जगह प्रतिरोध के मजबूत स्वर
भी हैं, जो उनकी पहले की कविताओं की तुलना में यहाँ और भी ज्यादा बुलन्द हुए हैं। शायद
यह समय का तकाज़ा है और अनुभव का भी। अंदाज़ - ए - बयां तो निराला है ही। कहीं -
कहीं प्रतिरोध की प्रखरता मुक्तिबोध, धूमिल अथवा नागार्जुन को भी पीछे छोड़ देती
है, लेकिन शब्दों की पूरी सौम्यता के साथ। ‘चुप्पियाँ’ कविता में जब वे कहते हैं,
- ‘मैंने एक बुजुर्ग से सुना था/ कि
चुप्पियाँ जब भी बढ़ती हैं/ अँधेरे में नदी की तरह/ चुप हो जाता है एक पूरा
राष्ट्र/ भूल जाता है अपनी भाषा/ और एक फूल के खिलने से भी/ दरक जाते हैं पहाड़’,
तब सचमुच हमारी निस्संगता का पहाड़ दरकने लगता है। और जब वे आगे यह जोड़ देते हैं, -
‘ऐसे में मित्रो,/ अगर बोलता है एक कुत्ता/ बोलने दो उसे/ वह वहाँ बोल रहा है/
जहाँ कोई नहीं बोल रहा’, तब वे आज के समय की नि:शब्दता की त्रासदी पर भरपूर कटाक्ष
कर रहे होते हैं। इसके विरुद्ध उठने वाली किसी भी तरह की आवाज़ उन्हें स्वागत योग्य
लगती है। आज के माहौल में समाज में ऐसा ही हो रहा है। फ़िल्मों में हमें नायक की
जगह खलनायक अच्छे लगने लगे हैं, क्योंकि वे सौ ग़लत तरीकों से ही सही, अन्याय का
प्रतिरोध करते दिखते हैं। नेताओं में हमें तेज - तर्रार बाहुबली अच्छे लगने लगे
हैं, क्योंकि वे सारे अनैतिक आचरण के बावजूद अपने वोटरों के बीच रॉबिनहुड बनकर
उपस्थित होते हैं। ऐसा वातावरण तभी सृजित होता है, जब पूरा राष्ट्र अपनी भाषा भूल
जाता है, चुप्पी में डूब जाता है। किसी भी अन्याय का, शोषण का, अत्याचार का विरोध
नहीं होता। केदारनाथ सिंह निस्संदेह यहाँ कुत्ते के बोलने का एक वैकल्पिक प्रतिरोध
के तौर पर ही स्वागत करते हैं, वांछित प्रतिरोध तो उस फूल के खिलने में निहित है,
जो पहाड़ को दरका दे।
मेरी दृष्टि में ‘एक ठेठ किसान के सुख’ इस संग्रह की एक बहुमूल्य
कविता है। आज किसान का शोषण सर्वत्र हो रहा है। खेती घाटे का सौदा हो गई है, फिर भी
छोटी से छोटी जोत का किसान भी इसी इरादे
से खेती करता रहता है कि ज़मीन से उसे खाने के लिए कुछ तो मिलेगा ही। वह अपनी
पुश्तैनी ज़मीन से बेदखल नहीं होना चाहता। उसकी ज़मीन छीनने को हज़ारों ताकतें लगी
हुई हैं। जगह - जगह भू - माफिया उसकी ज़मीन पर निगाह गड़ाए बैठे हैं। वे एन - केन -
प्रकारेण उसकी ज़मीन हड़प लेना चाहते हैं। उसे ज़मीन का वाज़िब मूल्य भी नहीं देना
चाहते। उससे कौड़ी के दाम ज़मीन खरीदकर सैकड़ों गुना कीमत वाले आवासीय समुच्चय व
शॉपिंग माल बनाए जा रहे हैं। निरीह किसान प्रतिरोध भी नहीं कर पाता। उससे सादे कागज़ों
पर दस्तख़त लेकर अभिलेख तैयार कर लिए जाते हैं। व्यवस्था ज़मीन हड़पने वालों के साथ
खड़ी दिखाई देती है। ऐसे में प्रतिरोध की चेतना और साहस कहाँ से पैदा हो? इस कविता
में किसान के भीतर वह साहस एक साँप की चमकती हुई आँखों को देखकर पैदा होता है। ‘आज
नरकट की पत्तियों में/ उसने एक साँप की चमकती हुई/ आँखें देखीं/ उसने जोखिम में
देखी/ एक अद्भुत सुन्दरता/ और कुछ पल अवाक/ देखता रहा उसे’ कहकर केदारनाथ सिंह इस
साहस के पैदा होने का अद्भुत बिम्ब खींचते हैं। साहस के पैदा होते ही किसान
विद्रोही हो जाता है, - ‘वह कचहरी गया/ वहाँ उसके सामने रखा गया/ एक सादा काग़ज़/
कहा गया - 'यहाँ … यहाँ … / एक दस्तख़त करो' और यह विद्रोह उसे चेतन बना देता है, -
‘उसने इनकार किया/ और उसे लगा/ वह दस गुना/ बीस गुना/ सौ गुना और ज़िन्दा हो गया!’
प्रतिरोध की इस चेतना में ही उस क्रांति के बीज छिपे हैं, जो किसी मरे हुए समाज को
ज़िन्दा कर सकती है।
‘बाज़ार में आदिवासी’ कविता में
भी स्वाभिमान, प्रतिरोध और चेतना के संवाहक आदिवासी का चित्रण करते समय केदारनाथ
सिंह ने उसके आने - जाने के तरीके की उपमा साँप की गति से दी है, - ‘भरे बाज़ार में/ वह तीर की तरह आया/
और सारी चीज़ों पर/ एक तेज़ हिकारत की नज़र फेंकता हुआ/ बिक्री और खरीद के बीच के/
पतले सूराख़ से/ गेहुँअन की तरह अदृश्य हो गया/ एक सुच्चा/ खरा/ ठनकता हुआ जिस्म।‘
यहाँ बाज़ार की चीज़ों के प्रति जो हिक़ारत का भाव है, वही उसकी ठनक का आधार है। आगे
जब केदारनाथ सिंह, - ‘कहते हैं वह ठनक अबूझमाड़ में/ रात - बिरात/ अक्सर सुनाई पड़ती
है’ लिखते हैं तब स्पष्ट हो जाता है कि उनका इशारा किस तरफ है। उन्हें यह ठनक
अत्यधिक प्रिय लगती है, भले ही वे इसके शास्त्र को नहीं समझते। तभी तो वे कहते
हैं, - ‘मिला कोई गायक/ तो एक दिन पूछूँगा/ संगीत की भाषा में/ क्या कहते हैं इस
ठनक को?’ लेकिन ऐसा नहीं है कि वे स्वयं इस ठनक से बहुत दूर हैं। फर्क़ यही है कि
उन्हें ख़ून - ख़राबा पसन्द नहीं। हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने मुझे
बताया कि उन्हें नक्सलियों की चेतना अच्छी लगती है, लेकिन उनका हिंसात्मक तौर -
तरीका पसन्द नहीं। हिंसा के विरोध को वे अपना जातीय गुण मानते हैं। उनके भीतर की
इस संवेदना का विस्तार हमें ‘एक पुरबिहा का आत्मकथ्य’ कविता में दिखता है, जो हमें चौंका देता है, - ‘इस समय यहाँ हूँ/ पर ठीक इसी समय/ बग़दाद में
जिस दिल को/ चीर गई गोली/ वहाँ भी हूँ/ हर गिरा ख़ून/ अपने अँगौछे से पोंछता/ मैं
वही पुरबिहा हूँ/ जहाँ भी हूँ।’ हर पीड़ित व प्रताड़ित के पक्ष में खड़ा, हर गिरे ख़ून
को अपने अँगौछे से पोछने को तैयार पुरबिहा महात्मा गाँधी की विरासत की एक हिस्सा
है। या शायद यह भी हो सकता है कि चंपारन जैसे क्षेत्र की यात्रा करते - करते गाँधी
जी को भी अहिंसा की यह बेमिसाल जातीय चेतना किसी पुरबिहा से ही मिली हो।
केदारनाथ सिंह अपनी कविताओं में हर जगह सामान्यजन के
पक्ष में ही खड़े दिखते हैं। ‘घास’ कविता में वे अपनी इसी जन - पक्षधरता को - ‘कवि, / अपनी पंक्तियों के बीच घूमने - टहलने दो उसे/ वहाँ
जो भी खाली है/ उसे भर देगी वह’ कहकर सामने
लाते हैं। घास सर्वव्यापी है। वह सर्वहारा का प्रतीक है। उसमें यह क्षमता भी है कि
सारी विषमताओं से जूझती हुई कहीं भी पनप सकती है। उन्होंने घास की संघर्षशीलता का
जो बिम्ब उसके द्वारा छोटी - सी पत्ती का बैनर उठाए जाने का उल्लेख करके खींचा है,
वह अद्भुत है। उन्होंने - ‘कभी - कभी लगता है/ और पिछले कुछ समय से/ कुछ
ज्यादा ही लगता है/ कि आदमी के जनतंत्र में/ घास के सवाल पर/ होना चाहिए लम्बी एक
अखंड बहस/ पर जब तक वह न हो/ शुरुआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ/ कि अगले चुनाव
में/ मैं घास के पक्ष में/ मतदान करूँगा/ कोई चुने या न चुने/ एक छोटी - सी पत्ती
का बैनर उठाए हुए/ वह तो हमेशा मैदान में है’ कहकर एक साथ कई तरह के समसामयिक
राजनीतिक मुद्दों की ओर इशारा किया है। सबसे प्रमुख मुद्दा तो यही है कि क्या जनतंत्र
के सरोकारों के केन्द्र में सर्वहारा, सामान्यजन या आज की भाषा में कहें तो आम
आदमी अथवा हाशिये पर पड़ा आदमी ही होना चाहिए। वे इस पर अखंड बहस किए जाने की बात
करते हैं। दूसरा मुद्दा यह कि जनपक्षधरता सिर्फ़ बहस तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। आम
आदमी के संघर्ष को पहचाना चाहिए और उसको नेतृत्व करने का मौका दिया जाना चाहिए।
तीसरा यह कि परिवर्तन के लिए दूसरों का मुँह देखते रहने के बजाय उसकी शुरुआत खुद
से ही करनी चाहिए, भले ही कोई साथ खड़ा हो या न खड़ा हो। अगले चुनाव में घास के पक्ष
में मतदान किए जाने की घोषणा करके केदारनाथ सिंह लोक - चेतना के प्रति अपनी
प्रतिबद्धता को निस्संदिग्ध रूप से अभिव्यक्त कर देते हैं।
‘लौटते हुए बगुले’ कविता में केदारनाथ सिंह ‘मनरेगा’
योजना की निरर्थकता की ओर इशारा करते हुए आज की व्यवस्था पर जमकर चुटकी लेते हैं।
इस कविता के खेतिहर मजदूर मनरेगा से अनभिज्ञ हैं, और आज भी मालिक से आधी - चौथाई
मजूरी पाकर शोषण का शिकार हो रहे हैं। वे श्वेत पंखों वाले निर्दोष बगुलों की तरह
हैं जो रोज़ सुबह काम पर निकल जाते हैं और शाम को खाली हाथ ही घर लौटते हैं। यहाँ
इन मजदूरों के लिए गोरे बगुलों के रूपक का प्रयोग करके केदारनाथ सिंह ने अपने हृदय
की परिशुद्ध भावना को अपनी कविता में उड़ेल दिया है। अन्यथा शरीरिक दृष्टि से मजदूर
हमेशा काले - कलूटे तथा धूल - मिट्टी व पसीने से सने हुए ही चित्रित किए जाते हैं।
यहाँ यह गोरापन उनके चित्त का गोरापन है। यह उनकी शारीरिक नहीं, सांस्कारिक
निर्मलता का प्रतीक है। उन्हें अज्ञान ने धोखे में डाल रखा है, - ‘बेचारे बगुले/
गोरे जरूर हैं/ पर क्या जानें वे मनरेगा - सनरेगा।‘ उन्हें जो कुछ मिल रहा है वे
उसी में संतुष्ट हैं, - ‘गए थे जाने कितनी दूर/ और कीड़ा - केंचुआ/ जो भी मिल गया/
उसी की गठरी भीतर सँभाले/ शाम को लौट रहे थे खेत मजूर …।’ इन खेतिहर मजदूरों की
पीड़ा को भद्र समाज नहीं समझता। वह उनकी संवेदना से कटा हुआ है और इस शोषण के मर्म
से बिल्कुल ही पृथक है। इस कविता की शुरुआती पंक्तियों में एक बच्ची के सवाल -
जबाब के माध्यम से केदारनाथ सिंह ने समाज की इस स्थिति को बड़े ही रोचक ढंग से
चित्रित किया है, - ‘ऊपर से उड़ा जा रहा था/
बगुलों का एक झुंड/ कि मेरे सामने बैठी उस बच्ची ने पूछा/ अंकल, क्या बगुले
अंग्रेज़ी बोलते हैं/ क्यों बेटा! / भला बगुले अंग्रेज़ी क्यों बोलेंगे/ बच्ची ने
उतनी ही सरलता से उत्तर दिया/ गोरे हैं न, इसलिए!’ मेरी समझ में इन पंक्तियों में
यह व्यंग्य भी निहित है कि हम आज भी गोरेपन को आभिजात्य और श्रेष्ठ मानते हैं और काले
या सांवलेपन को हेय। आज भी भारत के हर मां - बाप को अपने बेटे की शादी के लिए
सिर्फ़ गोरी - चिट्टी लड़की ही चाहिए और बेटी के लिए भी केवल लंबा और गोरा लड़का ही। इस
बच्ची के बयान के माध्यम से केदारनाथ सिंह ने हमारे भद्र समाज की अविकसित और तंग
मानसिकता पर जो मार्मिक चुटकी ली है, वह अद्भुत है।
केदारनाथ सिंह हिन्दी के उन गिने - चुने वरिष्ठ कवियों
में से हैं, जो कविता की वर्तमान स्थिति से न तो दुखी हैं और न उसके भविष्य के
प्रति निराश। उनसे जब भी बात होती है, वे नए व युवा कवियों की कविताओं पर बात करते
हैं। वे हमेशा उस उम्मीद का जिक्र करते हैं, जो उन्होंने कविता के भविष्य के बारे
में पाल रखी है। वे सदैव परिवर्तन की बात पर बल देते हैं। कविता में समय के अनुरूप
जो बदलाव आना चाहिए, वे उसके प्रबल पैरोकार हैं। ‘शोध’ कविता में वे कवियों को
अपेक्षित बदलाव की तैयारी के लिए अपने में गहरी समझ पैदा करने का आह्वान करते हैं,
- ‘और मुझे रुकना होगा वहीं/ उस भाषा का अध्ययन करने के लिए/
जो मछलियाँ बोलती हैं/ बहते हुए जल से/ और वह विलाप जो गूँजता है उनकी आँखों से/
चमक में और वह तकनीक/ जो बाज़ार करता है इस्तेमाल/ उनके जल से/ जाल तक पहुँचने की
यात्रा में।’ आज के आलोचकों द्वारा कविता को मृतप्राय घोषित कर दिए जाने की बात से
वे कतई सहमत नहीं और इस संबन्ध में वे अपना मंतव्य इस संग्रह की ‘कविता’ शीर्षक कविता में स्पष्ट रूप से प्रकट
करते हैं, - ‘और वह आज भी ज़िन्दा है/ मृत्यु की सारी घोषणाओं के बाद/ लोग
अब भी उसे सुनते हैं।’ उनका मानना है कि कविता की सार्थकता जिनके लिए है, वही
कविता के आराधक होते हैं। आज की कविता की मुख्यधारा प्रतिरोध की है, हाशिए पर पड़े
वंचित, दलित स्त्री समाज की पीड़ा व संघर्ष की है। तभी तो वे ‘कविता’ में कहते हैं,
- ‘पता लगा लो - जो मारे जाते हैं जंगलों में/ उन युवा होठों पर/ अक्सर होती है
कोई न कोई कविता।’ उनकी दृष्टि में आज की कविता का सामान्य स्वभाव विद्रोह का है
और वह किसी प्रलोभन, किसी दबाव, किसी प्रकार के दमन के आगे झुके बिना पूरी जीवंतता
के साथ आगे बढ़ रही है। ‘कविता में वे - ‘ज़िन्दा है वह/ सिर्फ़ पता बदल गया है/ चिट्ठियाँ
अब भी आती है/ उसके नाम/ डाकिये परेशान हैं/ सरकारें परेशान – / कि क्या करें -
क्या करें इस कविता का/ कि हवा दो/ पानी दो/ टैक्स में दे दो चाहे जितनी छूट/ पर
वोट माँगने जाओ/ तो कभी अपने पते पर मिलती ही नहीं/ जाने कैसी बनैली प्रजाति की लतर
है/ किसी राष्ट्रीय उद्यान में/ खिलती ही नहीं’ कहकर आज की कविता के इस स्वभाव को
बखूबी स्पष्ट करते हैं।
अंतत: निष्कर्ष के तौर पर मैं केदारनाथ सिंह के ही शब्दों में यह
कहना चाहूँगा कि वे आज के समय में सचमुच ही सृष्टि पर पहरा देते कविता के झरनाठ
वृक्ष के चंद पत्तों में से एक हैं। उनके यहाँ सीखने के लिए बहुत कुछ है। उनकी
रचनाशीलता अभी बूढ़ी नहीं हुई है और हमें सिखाने के लिए वे अभी और भी बहुत कुछ रचने
वाले हैं। उनकी कविताओं का बिम्ब - विधान निराला है। उनके अद्भुत बिम्ब शब्दों की
शक्ति को कई गुना बढ़ा देते हैं। उनके बिम्ब हमारे आस - पास ही उपस्थित और हमारे
जीवन से गहराई से जुड़ी चीज़ों से संबद्ध होते हैं। वे कविता में इस तरह से घुले -
मिले होते हैं कि हम उन्हें किसी भी तरीके से उनकी पंक्तियों से विलग नहीं कर
सकते। उनके बिम्ब शब्दों की आत्मा में पैठे हुए - से लगते हैं। केदारनाथ सिंह ने
स्वयं ही कहा है, - ‘कविता में बिम्ब की बुनावट
महत्वपूर्ण है, बिम्ब की प्रमुखता नहीं।’ वे अपनी कविताओं में इस सिद्धान्त को
पूरी तरह से अपनाकर चलते हुए दिखते हैं। आधुनिकता की दृष्टि से केदारनाथ सिंह
हमेशा संकीर्ण वैज्ञानिक आधुनिकता अथवा सामाजिक व राजनीतिक चेतना तथा परम्परा के
प्रति नकार की भावना से सम्पन्न उत्तरआधुनिकता से ऊपर उठकर सोचने वाले कवि के रूप
में दिखाई पड़ते हैं। उनकी कविता हमें परम्परा के श्रेष्ठ सोपानों पर टिके रहने का आह्वान
करती हुई, नवाधुनिकता के उस ठोस प्रस्थान - बिन्दु तक पहुँचाती है, जहाँ मानवीय
चेतना अपने प्रखरतम उत्ताप के साथ हमारे जीवन - संघर्ष को सही दिशा में आगे ले
जाने के लिए प्रेरित करने लगती है। यह नवाधुनिकता उस टकराहट अथवा उस सामंजस्यीकरण
से उपजी प्रतीत होती है, जो उनके भीतर के शहर तथा गाँव, वर्तमान तथा अतीत, मौलिक
तथा नवार्जित के बीच निरन्तर चलता रहता है। यह नवाधुनिकता देशज है, पश्चिम से
प्रभावित नहीं। उन्होंने अपने लेख ‘हिन्दी आधुनिकता का अर्थ’ में स्वयं कहा है, -
‘मेरी आधुनिकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का सम्बन्ध किस तरह घटित होता है, इस
प्रश्न की विकलता मेरे भाव - बोध का एक अनिवार्य हिस्सा है। ये दोनों मेरे भीतर
हैं और दोनों में जो एक चुपचाप सहअस्तित्व है, उसका सन्तुलन हमेशा एक जैसा बना
रहता है। इससे भारतीय कवि के भीतर एक नए ढंग का भाव - बोध विकसित होता है, जो
पश्चिम से काफी भिन्न है।’ ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित केदारनाथ सिंह की ही
पीढ़ी के कवि कुँवर नारायण ने कहा है, - ‘बदलते संदर्भों में मनुष्य के सबसे कम
उद्घाटित या विलुप्त होते, जीवन - स्रोतों की खोज और भाषा में उनके संरक्षण की
क्षमता शायद आज भी कविता की सबसे बड़ी ताक़त है।’ कविता की यह ताक़त हमें केदारनाथ
सिंह की इन इक्कीसवीं सदी की कविताओं में सबसे अधिक समृद्ध रूप में परिलक्षित होती
है और समय के इस कठिन दौर में भी हमें उम्मीद और आश्वस्ति से भर देती है।
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