आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, October 25, 2014

डॉ. प्रभाकर माचवे के साथ मसूरी में एक भेंट-वार्ता

(हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्‍यकार डॉ. प्रभाकर माचवे जब 1986 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के मेरे आधारभूत प्रशिक्षण कार्यक्रम के दौरान लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी, मसूरी में भाषण देने पधारे तो मुझे एकान्‍त में उनसे मिलने और समसामयिक साहित्‍यिक गतिविधियों एवं दिशाओं पर बातचीत करने का मौका मिला। मेरी उत्‍सुकता थी कि डॉ. माचवे से साहित्‍य के प्रति दिनों-दिन घटती जा रही जनाभिरुचि के विषय में उनके विचार जानूँ। वर्ष 1960 के बाद के काल में हिंदी कविता या कहा जाय तो नई कविता के प्रति कम होती जा रही जनाभिरुचि एक सतत चर्चा का विषय बनी हुई थी। प्राय: यह आरोप लगाया जाता रहा कि नये मूल्‍यों, नये प्रतीकों एवं नई अभिव्‍यक्‍ति की खोज के चलते 'नई कविता' निरंतर जनमानस से परे हटती चली गई। लोग आज भी सूर, तुलसी, कबीर आदि सदियों पुराने कवियों या प्रसाद, पंत, निराला जैसे दशकों पुराने कवियों को उसी चाव से पढ़ते हैं और उनके काव्‍य से एकात्‍मकता महसूस करते हैं, जैसे पहले करते थे। पर आज की कविता किसी भी व्‍यक्‍ति के हृदय पर एक लंबे समय तक अंकित रहने में समर्थ नहीं है। नई कविता के पोषक कहते थे कि साहित्‍य कालजयी होता है और नई कविता क्षणिक घटनाओं की शाश्‍वत अभिव्‍यक्‍ति  है। पर तर्क की कसौटी पर नई कविता इतनी प्रभावशाली नहीं दिख रही थी। डॉ. माचवे से इस बारे में जो विचार-विमर्श हुआ, उसमें उन्‍होंने इस समस्‍या को कई कोणों से परखने का प्रयास किया। यहाँ प्रस्‍तुत है, डॉ. प्रभाकर माचवे के साथ हिंदी साहित्‍य के तत्कालीन अस्‍तित्‍व पर की गई बातचीत का एक ब्यौरा।)

मैं: साहित्य में 'नई कविता' के उद्भव और विकास के बारे में आपकी क्या धारणा है?

डॉ. प्रभाकर माचवे: साहित्‍य समाज की राजनीतिक एवं सामाजिक विचारधाराओं से जुड़कर ही चलता है। आधुनिक विश्‍व-राजनीति की सब से प्रमुख घटना रही है यूरोप में हुई फ्रांस की क्रांति। इस क्रांति के तीन प्रमुख संदेश थे - स्‍वतंत्रता, बंधुता एवं समानता। कालांतर में इन तीनों का विभिन्‍न देशों में विभिन्‍न प्रकार से पोषण हुआ। पाश्‍चात्‍य देशों जैसे अमेरिका आदि में स्‍वतंत्रता को अत्‍यधिक बढ़ावा मिला। पर समय के साथ-साथ इस स्‍वतंत्रता के मूल्‍य बदलते गए। व्‍यक्‍ति के व्‍यक्‍तित्‍व एवं कृतित्‍व की स्‍वतंत्रता धीरे-धीरे विकृत होकर ऐसा रूप धारण करती चली गई, जिसमें स्‍वतंत्रता का सबसे बड़ा मापदंड बना स्‍वच्‍छन्‍द यौनाचार। वर्तमान में वहाँ यह कुछ-कुछ कुंठा का कारण बनता जा रहा है। समानता को सहारा मिला चीन में। समाजवाद के जिस रूप को कम्‍युनिस्‍ट देशों ने अपनाया, उसमें हिंसा अनिवार्य थी। अत: मानवीय दृष्‍टिकोण से इसे भी एक विकृत रूप ही मानना पडे़गा। तीसरी दुनिया ने बढ़ावा दिया बंधुता को। एशिया के अधिकांश देशों में विचार-विनिमय अनिवार्य प्रक्रिया है। सह-अस्‍तित्‍व का जैसा अनुपालन यहाँ होता है और कहीं नहीं होता। जियो और जीने दो हमारे जीवन-दर्शन का मूल मंत्र है। पाश्‍चात्‍य सभ्‍यता में स्‍वयंप्रभुता की प्रवृत्ति है। दो में से एक ही स्‍थापित हो सकता है, दूसरे को जीवन-संघर्ष का शिकार होना है। स्‍वयं में सिकुड़ कर जीने की प्रवृत्ति तीसरी दुनिया में कम है। हम सहज ही दूसरों के अस्‍तित्‍व को स्‍वीकार करते हैं, और उसे मान्‍यता देते हैं। विश्‍व राजनीति की इन दिशाओं से साहित्‍य का गहरा लगाव है। स्‍वतंत्रता के पोषक पाश्‍चात्‍य जगत में, फ्रांस-क्रांति के बाद रोमांटिसिज्‍म (रीति-काव्‍य) को बढ़ावा मिला है। कम्‍युनिस्‍ट देशों में क्रांति-गीत रचे गए। प्रगतिशील लेखन ने 20वीं सदी के पूर्वार्ध में सम्‍पूर्ण यूरोप व एशिया को आंदोलित किए रखा। यह समूचा का समूचा काव्‍य जनता की भावनाओं से सीधे जुड़ा रहा। उन्‍हें ललकारता व दुलारता रहा। इसी के साथ-साथ तीसरी दुनिया के बंधुतापरक साहित्‍य-जगत में नवमानवतावादी दृष्‍टिकोण पनपने प्रारम्‍भ हुए। इस नियोह्यूमनिज़्म (नवमानवतावाद) का सीधा प्रभाव कविता पर पड़ा और श्रंगार व वीर रसों का तिरोभाव होने लगा। अब कवियों के लिए जो भावना शेष बची वह थी करूणा, जो मानवीय संवेदनाओं की मूल अभिव्‍यक्‍ति है। 'नई कविता' को उसे ही जितना संभव हो उतना विस्‍तृत करना है।

मैं: क्या करुणा का विस्तार सारे मानवीय सरोकारों को अपने में समेट सकता है?

डॉ. प्रभाकर माचवे: द्वितीय विश्‍व-युद्ध के वाद सम्‍पूर्ण विश्‍व के वैचारिक मूल्‍यों में काफी परिवर्तन हुआ। ईश्‍वर रहस्‍यमय व अदृश्‍य शक्‍तिमात्र के रूप में ग्राह्य नहीं रहा। इसके लिए ईश्‍वर के मानवीकरण  की शुरुआत हुई। मानव के उदात अस्‍तित्‍व में ही ईश्वर को प्रतिष्‍ठापित किया गया। करुण-भाव कविता का मुख्‍य आधार बना। करुणा मानवीय संवेदनाओं की संभवत: प्रथम अनुभूति है। ज्‍यों-ज्‍यों विज्ञान का विकास हुआ विश्‍व का आकार सिमटता चला गया, और काव्‍य का विस्‍तार-जगत बढ़ता चला गया। साहित्‍य ने समूचे विश्‍व की विशालता का अधिग्रहण किया। आज का कवि तमाम सामाजिक समस्‍याओं से सीधा जूझता है। इस सीधे संघर्ष में वह निश्‍चित ही अकेलापन महसूस करता है। इसका सीधा उदाहरण हैं – ‘आत्‍मनिर्वासन (राजीव सक्‍सेना), 'आत्‍मजयी (कुंवर नारायण), आत्‍महत्या से पहले (रघुवीर सहाय) आदि। इसके साथ ही साथ औद्योगीकरण का भी सीधा प्रभाव साहित्‍य पर पड़ा। इससे कुछ हद तक अमानवीयता की प्रवृति भी पनपी। मैटीरियलिस्‍टिक (पदार्थवादी) तत्‍व भी उभर कर कविता में सामने आए।

मैं: क्या विचारधाराओं के टकराव ने साहित्य को प्रभावित किया है?

डॉ. प्रभाकर माचवे: स्‍वातंत्रयोत्‍तर हिंदी-साहित्‍य में दो प्रमुख विचारधाराएँ पनपीं। पहली विचारधारा के कवि अन्‍तर्मुखी रहे तथा दूसरी के बहिर्मुखी। बहिर्मुखी धारा के पोषक या तो अध्‍यात्‍मवादी हुए या फिर प्रगतिवादी। प्रगतिवाद की आवाज धीरे-धीरे शान्‍त होती चली गई और अधिकांश प्रगतिवादी कालांतर में अध्‍यात्‍मवादी हो गए। अज्ञेय जैसे अध्‍यात्‍मवादी जैन विचारधारा से प्रभावित हुए। अंतर्मुखी विचारधारा के कवि व्‍यक्‍तिपरक घटनाओं व संवेदनाओं के विश्‍लेषण में जुटे हैं। मन की संवेदनाओं को व्‍यक्‍त करना ही इनका उद्देश्‍य है। मनुष्‍य एवं समाज के संबंध किस तरह एकाकार हुए हैं आज का कवि इसे ही व्‍यक्‍त करना चाहता है।

मैं: क्या आज हम किसी कवि को इस काल का प्रतिनिधि कवि मान सकते हैं?

डॉ. प्रभाकर माचवे: आज के युग में किसी भी कवि को युग-प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। इसका कारण स्‍पष्‍ट है। आज का कवि हर छोटे से छोटे व्‍यक्‍ति को महत्‍व देता है। उसकी जीवन-गति को परखता है। उसकी मानसिक संवेदनाओं से जुड़कर कुछ लिखता है। इस तरह से हर कवि समाज के एक छोटे-से अंश का ही बिम्‍ब खींचता है। ऐसे में विभिन्न कवियों के बिम्‍बों को जोड़ने से ही समूचे समाज का बिम्‍ब बनता है। अत: आज का कोई एक कवि युग का प्रतिनिधित्‍व नहीं करता है, बल्‍कि आज की समूची कविता आज के युग का प्रतिनिधित्‍व करती है।


मैं: आज की कविता के संकट की पहचान आप किस रूप में करते हैं?

डॉ. प्रभाकर माचवे: आज का युग असाधारणीकरण का है। इसका प्रभाव कविता के कथ्‍य व रूप दोनों पर पड़ा है। कथ्‍य व रूप का यह असाधारणीकरण ही आज की कविता की सुग्राह्यता में कमी लाता है और उसे दुरूह बनाता है। अखबारी प्रेस का बढ़ता प्रभाव भी कविता को प्रदूषित कर रहा है। एक और प्रमुख बात यह है कि अब कविता जीविका का साधन नहीं रही है। कविता को कोई छापना नहीं चाहता है। व्यावसायिकता के इस अभाव में कविता या तो अंशकालिक (पार्ट-टाइम) हॉबी मात्र बनकर रह गई है या फिर धनोन्‍मुख हो गई है। धन की आवश्‍यकता ने कवियों की खेमेबाज़ी को बढ़ावा दिया है। आज कवियों के तमाम ग्रुप हैं - जैसे कम्‍युनिस्‍ट ग्रुप व मंचीय ग्रुप। नौकरशाही के निरंतर बढ़ते प्रभाव ने भी कविता की स्‍वतंत्रता को तरह-तरह से कुचला है। वर्तमान कविता के प्रसार में यह भी एक बड़ा संकट है।

मैं: कविता के भविष्य के बारे में आप क्या सोचते हैं?


डॉ. प्रभाकर माचवे: सच्‍ची कविता कालजयी होती है। वह सदैव जीवित रहती है। साधारण जनता को हो सकता है नई कविता अच्‍छी न लगे क्‍योंकि वह मनोरंजन नहीं करती। मंचीय कविता मात्र मनोरंजन का साधन भर है, अत: वह दीर्घजीवी नहीं हो सकती। नई कविता मानव के अस्‍तित्‍व एवं चिन्‍तन की पहचान है, और यदि वह इंगित की गई विसंगतियों से उबर सकी तो निश्‍चित रूप से शाश्‍वतजीवी सिद्ध होगी।  

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