आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, October 25, 2014

डा. जगदीश गुप्त से नैनीताल में हुई बतकही

(‘नई कविता के सर्जक और साधक डा. जगदीश गुप्‍त से वर्ष 1985 में अनायास ही नैनीताल में मेरी भेंट हुई जब वे वहाँ स्थित तत्कालीन उत्तर प्रदेश के प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्‍थान में प्रशिक्षुओं को संबोधित करने आए। उन्हें तल्लीताल बस स्टैण्ड से लेकर संस्थान तक लाने की मेरी ही ड्यूटी लगी। जब तक उनका सामान बस से उतरवाकर मैं संस्थान की गाड़ी में रखवाता, तब तक झील के किनारे के चबूतरे पर बैठकर उन्होंने अपने राइटिंग पैड के पन्नों पर दो रेखाचित्र बना डाले। एक वहाँ खड़े एक कुली का, दूसरा वहाँ से गुजर रही दो खूबसूरत लड़कियों का। यही नहीं उन्होंने पाँच मिनट के भीतर रचे गए वे दोनों चित्र मुझे भेंट कर दिए। मैंने देखा कि दोनों चित्रों पर बगल में बड़ी ही कलात्मक मुद्रा में 'प्रिय उमेश चौहान को सप्रेम भेंट' भी लिखा था। इतने सुन्दर रेखाचित्र, इतनी जल्दी रचे जाते देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया और उन्हें मुझे भेंट किए जाते देखकर गदगद। शाम को संस्थान के अतिथि-गृह में उनके साथ बैठकर साहित्यिक चर्चा का संयोग भी मिला। छ: सौ वर्षों के इतिहास में हिंदी-साहित्‍य भारतीय समाज को क्‍या दे पाया? कितना आगे बढ़ा? कितना प्रासंगिक एवं अर्थमय बना? कई सारे प्रश्‍न बातचीत के विषय बने। नई कविता  की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता पर भी बातचीत हुई। उसी साल लखनऊ के 'स्वतंत्र भारत' दैनिक समाचार-पत्र में छपी वह बातचीत यहाँ प्रस्तुत है।)
                                
मैं: आप साहित्य और संस्कृति के बीच किस तरह का अन्तर्सम्बन्ध पाते हैं?

डा. जगदीश गुप्‍त: साहित्य संस्‍कृति का संरक्षक है। संस्‍कृति केवल विलास या सामयिकता की वस्‍तु नहीं है, बल्कि वह आत्‍म-संस्‍कार का हेतु है, अखंड है एवं शाश्‍वत है। संस्‍कृति स्‍थायी मूल्‍यों को स्‍थापित करती है। साहित्‍य जीवन से संबद्ध है, क्‍योंकि इसमें लयात्‍मकता है एवं तरलता है। संस्‍कृति परमुखापेक्षी नहीं है, एवं आरोपित भी नहीं है। संसार को अपने आप की परख जब आ जाए, जब उसमें सहज भाव का समावेश हो जाए, तब संस्‍कृति पुष्‍ट हो जाती है।
मैं: हिन्दी-साहित्य के विकास में आप किस काल को महत्वपूर्ण मानते हैं?

डा. जगदीश गुप्‍त: हिन्‍दी साहित्‍य के ऐतिहासिक उन्‍मेष पर दृष्टि डालते पर भक्ति-साहित्‍य ही श्रेष्‍ठतम दिखता हैं। भक्ति साहित्‍य मन की शुद्धता पर बल देता है और शुद्ध मन ही आनन्‍द का निकेत है। यह विचार-धारा विश्‍व के अन्‍य साहित्‍यों में अनिवार्य या सिद्धान्‍त रूप में नहीं है। भारतीय साहित्‍य सृजन की कल्‍पना है। हमारे देशज भाव दर्शन के लिए हैं,  प्रदर्शन के लिए नहीं। अन्‍तर्दृष्टि-सम्‍पन्‍न अनुभव भारतीय साहित्‍य की विशेषता है।

मैं: विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच आप हिन्दी का स्थान कहाँ पाते हैं?

डा. जगदीश गुप्‍त: हिन्‍दी भाषा अन्य समस्‍त भारतीय भाषाओं से अधिक सामर्थ्‍यवान एवं पुष्‍ट है। हर साहित्‍य किसी न किसी भाषा में रचा जाता है और हिन्‍दी भी उनमें से एक है। उसका अन्‍य भारतीय भाषाओं से अलगाव संभव नहीं है। इसमें आदर्श की चेतना परिव्‍याप्‍त है। आदर्श की कसौटी आचरण है, उपदेश देना नहीं। प्रेमचंद का यथार्थवाद आदेर्शोन्‍मुख यथार्थवाद है। गांधीवाद से प्रेमचन्‍द का अलगाव आदर्शवाद की इति नहीं थीं, उसका तत्‍व अप्रत्‍यक्ष रूप से सामने आता है।

मैं: हिन्दी के योगदान का मूल्यांकन आप किस प्रकार से करेंगे?

डा. जगदीश गुप्‍त: हिन्दी सबको अपने में आत्‍मसात करने में सक्षम है। यह लोगों को एकात्‍म करने की भाषा है, अत: राष्‍ट्रीयता की चेतना का आधार स्‍तम्‍भ हिन्‍दी ही है। हिन्‍दी के अतिरिक्‍त कोई भी अन्‍य भारतीय भाषा हमारे वर्तमान को आधुनिकता के युग में परिवर्तित करने को प्रस्‍तुत नहीं है, पर हिन्‍दी निरंतर इस दिशा में अग्रसर रही है। उसकी शैली, बोली एवं स्‍वरूप निरंतर परिवर्तित एवं परिवर्द्धित होते रहे हैं। पूर्व एवं पश्चिम के भाषाई प्रसार को हिंदी ही समन्वयित करती है। राजस्‍थान की मीरा ने उत्‍तर भारत की ब्रजभाषा में रचना की और गुजरात तक लोकप्रिय हुई। उड़ीसा में चैतन्य ने जो धारा प्रवाहित की वह बंगाल से बिहार तक फैल गई। कबीर ने दक्षिण से भक्ति की भावना ग्रहण कर ज्ञान एवं वैराग्‍य से समन्वित कर इसे संपूर्ण उत्‍तर भारत में फैला दिया। (भक्ति द्रावणी ऊपजी, लाए रामानंद/ परगट किया कबीर ने सप्‍तदीप नवखंड) इस प्रकार हिन्‍दी ही भारतीय वैचारिकता में एकात्‍मता लाने का माध्‍यम बनी।

मैं: क्या भक्ति-साहित्य के अमित प्रभाव के चलते हिन्दी किन्हीं समुदायों के लिए अग्राह्य भाषा है?
           
डा. जगदीश गुप्‍त: हिन्‍दी किसी एक जाति, वर्ण, क्षेत्र या धर्म की भाषा नहीं है। तुलसी, जायसी आदि के साहित्‍य में हिन्‍दी कहीं भी हिंदू की भाषा के रूप में नहीं है। वह मनुष्‍यमात्र की भावनाओं का ही प्रतिनिधित्‍व करती है। प्रतिक्रियावश यदि कहीं कुछ लिखा भी गया हो तो उसे तो गौण ही मानना पड़ेगा। प्रमुख तो क्रियाशील साहित्‍य ही है।

मैं: हिन्दी-साहित्य पर किस प्रकार की चेतना का प्रभाव ज्यादा है?

डा. जगदीश गुप्‍त: हिंदी-साहित्‍य पर वैदिक चेतना का प्रभाव ज्यादा है। वेद सत्‍य के अन्‍वेषी हैं, और उसे अनावरित करते हैं। वेदों को लोक-चेतना से जोड़ने का कार्य पुराणों ने किया। आर्यसमाजी इस बात को नहीं मानते हैं। अवतारवाद एवं मूर्तिपूजा के बजाय, वर्तमान संस्‍कृति मानववाद पर आधारित है। वर्तमान संस्‍कृति, प्राचीन धर्म को स्‍थानापन्‍न करती है।
मैं: साहित्य में आज कविता हाशिए पर जा रही है। इसका क्या कारण है?

डा. जगदीश गुप्‍त: मैं मानता हूँ कि आधुनिक साहित्‍य में कविता का अवमूल्‍यन हुआ है। आज कविता का दायरा संकुचित हो गया है और वह जैसे-तैसे ही जीवित हैं। ऐसी अन्‍य कई विधाएँ निकल आई हैं, जिनमें अभिव्‍यक्ति अधिक स्‍पष्‍ट एवं आसान हो गई है। रसात्‍मता का कविता में ह्रास उसे समाज से जोड़ने में बाधक रहा है। नई कविता मंच  पर सफल नहीं है, क्‍योंकि नई कविता में प्रदर्शन की मानसिकता नहीं है, बल्कि अनुभव का प्राधान्‍य है। काफी कुछ अब भी बचा है, जिसके लिए कविता की आवश्‍यकता है। हाँ, जो बात अन्‍य विधाओं में कही जा सकती है, उसके लिए कविता का औचित्‍य अब नहीं है। आधुनिक कविता पर पलायनवादी होने का आरोप है। परन्‍तु कविता पलायन नहीं है। कविता युद्ध तक जाती है साधना तक जाती है और उसका होना उच्‍चतम सांस्‍कृतिक कर्म का होना है।

मैं: क्‍या नई कविता तार्किकता एवं बौद्धिकता के अतिरेक से दुरूह नहीं हो गई है?

डा. जगदीश गुप्‍त: कविता में तार्किकता का होना उसकी गंभीरता एवं सच्‍ची अनुभूति का परिचायक है। वह श्रोता या पाठक को अपने साथ वहाँ ले जाना नहीं चाहती है, वह उसे वास्‍तविकता के धरातल पर खड़ा करना चाहती है। कोई आवश्‍यक नहीं कि नई कविता से हर व्‍यक्ति जुड़ जाए, उसकी सार्थकता कुछ व्‍यक्तियों से भी जुड़ जाने में है। एक व्‍यक्ति भी उससे जुड़कर अपने आसपास के तमाम लोगों को उससे जोड़ने में मदद करेगा।

मैं: आपके रेखाचित्रों के आपकी कविताओं से अभिन्न रूप से जुड़े रहने के पीछे क्या रहस्य है?

डा. जगदीश गुप्‍त: रेखाचित्र मेरी अभिव्‍यक्ति का एक अन्‍य महत्‍वपूर्ण माध्‍यम हैं। वे मानवमन की सूक्ष्म भावनाओं को उभारने में मदद करते हैं। मेरे रेखाचित्र और कविताएँ एक दूसरे की पूरक एवं संवर्धक हैं।

मैं: हिन्दी-कविता में आधुनिकता-बोध की स्थिति कैसी है?

डा. जगदीश गुप्‍त: निर्जीव एवं उधार की आधुनिकता को सार्थक नहीं माना जा सकता। आधुनिकता अपने प्रवाह में स्‍पष्‍ट होकर जब सजीव हो जाती है, तभी सार्थक होती है। जो आधुनिकता हमें देश व जनमानस से जोड़ती है, वही सच्‍ची आधुनिकता है। इस संदर्भ में प्राचीन हिन्‍दी-साहित्‍य भी आधुनिकता-बोध से रहित नहीं था। भक्तिकाल में तुलसी की इन पंक्तियों में भी आधुनिकता का आभास है - लव निमेस परिमाण जुग, बरस कलप सर चंड/ भजसि न मन तेहि राम कहं, कालहु जाकर दंड'। कल्‍पना की आधुनिकता सही मानों में शाश्‍वत होती है तथा सदैव नवजात सी लगती है। भिखारीदास की इन पंक्तियों में ऐसी ही आधुनिकता के दर्शन होते हैं - होत मृगादिक ते बड़े बारन बारन बृंद पहारन हेरे/ सिंधु में केति पहार परे, पुहुमी में विराजत सिंधु घनेरे/ लोकन में पृथ्‍वी त्‍यों किती, हरियोदर में बहु लोक बसेरे/ ते हरि, दास बसे इन नैनन, एते बड़े दृग राधिका केरे।'

मैं: साहित्य के भविष्य को आप कैसा पाते हैं? क्या अन्तर्भाषायी संघर्ष भारतीय साहित्य को क्षति पहुँचा रहा है?


डा. जगदीश गुप्‍त: साहित्‍य कालजयी होता है। वह आधुनिक या पुरातन नहीं होता। विभिन्‍न भारतीय भाषाओं एवं लिपियों के बीच व्‍याप्‍त अन्‍तर्संघर्ष साहित्यिक प्रगति को क्षतिग्रस्त नहीं कर सकता बल्कि वह इन भाषाओं के और संपुष्ट होने में मददगार है। भारतीय भाषा-साहित्‍य लिपियों के अवगुन्ठन से अलग होकर सामने आ रहा है। भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्‍य अकादमी तथा भारतीय विद्याभवन जैसी संस्थाएँ स्‍वातंत्र्योत्‍तर युग में भारतीय साहित्‍य को एक समन्वित धरातल पर लाने में सफल हुई है।

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