आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, October 25, 2014

कविता अभिव्यक्ति एवं प्रतिरोध की नैसर्गिक विधा (लेख)

मानव-मन की जो प्रवृत्ति स्वत:स्फूर्त होती है, जन्मना मन में पैठी होती है और जीवन में अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का प्रारम्भिक माध्यम बनती है वही नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है तथा उसकी महत्ता या भूमिका कभी मिट नहीं सकती। कविता इसी प्रकार की एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है। वह स्वत:स्फूर्त होती है। वह जीवन की अनुभूतियों की मौलिक या प्रारंभिक संवाहक होती है। वह रचनाकार को जन्म देती है, बाद में भले ही कोई गद्य-लेखन करने लगे। वह सीधे हृदय से संवाद करती है। दिल की बात करती है। वह मन पर तत्काल अपना प्रभाव छोड़ती है। वह स्मृति में ऐसे समाविष्ट होती है कि परिस्थितियों के अनुरूप अनजाने ही मन में उच्चरित होने लगती है और हमें पंक्तियों को गुनगुनाने पर मजबूर कर देती है। समाज में करुणा और प्रतिरोध की बुनियाद कविता ही मजबूत करती है। गद्य अधिक समृद्ध होता है तथा वह लय और गति के घरौंदे से बाहर निकलकर एक स्थूल व ठोस आकार लेते हुए सायास रचा जाता है। उसमें विचारों व तर्कों का गुंफन ज्यादा होता है तथा वर्णन का विस्तार होता है। उसके प्रभाव में उद्विग्नता या तात्कालिकता कम, स्थायी सोच-विचार की गुंजाइश ज्यादा होती है। लेकिन समय के साथ गद्य अपनी ही मांद में शेर की तरह विलुप्त भी हो जाता है। कविता हर काल में गद्य के विस्तार के आगे थोड़ा-सा थमती है, अलग-थलग पड़ती है, ख़त्म हुई-सी मान ली जाती है, किन्तु वह अभिव्यक्ति की नैसर्गिक विधा होने के कारण साधारण मानव-मन के भीतर हमेशा जीवंत रहती है और वक्त के साथ नए कलेवर में पुनर्जनित हो जाती है। एक समय पर संस्कृत-साहित्य में भी गद्य ने कविता को नेपथ्य में ढकेल दिया था। कालान्तर में संस्कृत का अपक्षय हुआ और प्राकृत तथा अपभ्रंश-साहित्य का उदय हुआ। धीरे-धीरे आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ। इन सभी भाषाओं में अभिव्यक्ति की नैसर्गिक विधा के रूप में प्रारम्भ में कविता का ही विस्तार हुआ। बाद में धीरे-धीरे इन सभी भाषाओं में गद्य उत्पत्ति हुई।

            बीसवीं सदी में भारतीय भाषाओं में गद्य का तेजी से विकास हुआ तथा उसके अंत तक पहुँचते-पहुँचते कविता हाशिए पर जाती हुई दिखी। लेकिन कविता की प्रासंगिकता कम हो गई हो ऐसा नही है। वह अपने पूरे नैसर्गिक गुणों के साथ हमारे बीच उपस्थित है और अपनी भूमिका का निर्वाह कर रही है। उसके असली रूप, उसकी शक्ति और उसके विस्तार को  समझने के लिए हमें समाज के बीच जाना पड़ेगा, गाँव-देश का मन टटोलना पड़ेगा और लोक-बोलियों में रची जा रही कविताओं में झाँकना पड़ेगा। हम कविता की प्रासंगिकता सिर्फ आलोचकों के चश्मे अथवा प्रकाशकों की तिजोरी या उनके द्वारा दी जाने वाली रॉयल्टी से नहीं आंक सकते। आलोचकों को सिर्फ पाठकों के एक विशेष वर्ग से ही मतलब रह गया। प्रकाशकों को सिर्फ सरकारी व गैर-सरकारी थोक-खरीद से मतलब है। जन-सामान्य के बीच उचित दर पर प्रकाशित साहित्य को पहुँचाने में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि भद्र-लोक द्वारा प्रतिरोध को जड़ से खत्म करने के लिए ही कविता को हर दौर में जान-बूझकर हाशिए पर ढकेला जाता है। ऐसा नहीं है कि गद्य में प्रतिरोध नहीं होता। ऐतिहासिक तौर पर गद्य भी बड़े-बड़े तूफान खड़े करता रहा है। लेकिन इतिहास ही गवाह है कि वाणभट्ट से लेकर आज तक गद्य की कोई भी पंक्ति किसी भी मुहिम या जनांदोलन का नारा नहीं बन सकी है और न ही गद्य ने कहीं कोई लोकोक्ति जनी है। आज भी कविता ही है जो प्रतिरोध की हर मुहिम में लोगों की ज़ुबान पर चढ़ कर बोलती है और समय से तनकर लड़ती है।

            आज चाहे स्त्री-विमर्श हो या दलित विमर्श हो या फिर वर्तमान आर्थिक विषमताओं, वैश्वीकरण, हाशिए पड़े गरीबों-आदिवासियों की समस्याओं, पारिवारिक व सामाजिक मसलों अथवा भ्रष्टाचार व शोषण की बात हो, समकालीन कविता ऐसे तमाम ज्वलन्त सरोकारों का प्रतिनिधित्व कर रही है। इक्कीसवीं सदी के इस शुरुआती दौर में केदारनाथ सिंह, मंगलेश डबराल, नरेश सक्सेना, चन्द्रकान्त देवताले, राजेश जोशी, अरुण कमल, विष्णु खरे, वीरेन्द्र डंगवाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि जैसे हिन्दी-कविता के जाने-माने वयोवृद्ध कवियों के अलावा, उनके बाद की पीढ़ी के लीलाधर मंडलोई, अनीता वर्मा, अनामिका, सविता सिंह, मदन कश्यप, बद्रीनारायण, देवी प्रसाद मिश्र, मोहन डहेरिया, पवन करण व हरिओम राजोरिया जैसे सिद्धहस्त कवि और युवा पीढ़ी के आर. चेतनक्रांति, व्योमेश शुक्ल, गिरिराज किराडू, पंकज चतुर्वेदी, निर्मला पुतुल, गीत चतुर्वेदी, मोनिका कुमार, प्रदीप जिलवाने व रविकांत जैसे तेजी से उभरते हुए कवि (इन्हीं के सदृश तीनों ही पीढ़ियों के और भी बहुत से नाम हैं) इन सभी समकालीन सरोकारों से जुड़ी सशक्त कविताएँ लिख रहे हैं, जो इक्क्कीसवीं सदी के इस दौर में भी कविता की ताकत और उसकी प्रासंगिकता की पुष्टि करती हैं।

            मेरा मानना है कि आने वाले समय की हमारी जरूरत का कोई नारा या लोक-गान भी किसी कविता से ही निकलकर सामने आएगा, अश्लीलता परोसते और नैतिकता का विखंडन करते गद्य-साहित्य से नहीं। आलोचकों द्वारा वर्षों पहले कपाल-क्रिया कर दिए जाने के बावजूद कविता आज भी भिन्न-भिन्न संवेदनाओं व सरोकारों के साथ तथा नूतन विम्बों, भाषायी प्रयोगों व शैलियों से संपुष्ट होकर अभिनव सौन्दर्य-बोध का परिचय कराती हुई-सी ज़िन्दा है। आज जरूरत है कविता को सौन्दर्य-बोध के नए चश्में से देखने की, न कि उसे सौन्दर्य-बोध के पुराने खाँचों में फिट करने की। मुझे तो लगता है कि यह आज के आलोचना-साहित्य की कमजोरी है कि वह अभी भी डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नामवर सिंह व डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे शीर्ष आलोचकों की मीमांसाओं का ही पुनरावलोकन करने में जुटा हुआ है और उसे नए दौर के काव्य-साहित्य की ओर झाँकने की फुरसत ही नहीं है। साहित्य के आलोचकों को पाठकों व साहित्य-विवेचकों के सामने इस इक्कीसवीं सदी की कविता की विवेचना को लेकर आगे आना चाहिए ताकि उसका सही मूल्यांकन हो सके। मेरी समझ में कि आज की मुख्यधारा की कविता तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में नीचे गिरे पड़े तथा लगातार लतियाए जा रहे लोगों की लाचारी की अभिव्यक्ति करती है। वह उभरते वैश्विक बाज़ार की सर्वग्रासी प्रवृत्तियों का निवाला बनकर शनैः शनैः अस्तित्वहीन होती जा रही पारंपरिक उद्यमिता की मरणांतर पीड़ा को भोगने वालों का प्रतिनिधित्व करती है। आज की कविता भ्रष्टाचार, शोषण, बेईमानी व विस्थापन के शिकार देश के करोड़ों हताश युवाओं के कुंठित व उद्वेलित मस्तिष्कों के तनाव, बेचैनी व खीझ से पैदा हो रही है, अत: वह दूसरे ढंग की है और पुराने खाँचों में फिट नहीं हो सकती। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह प्रासंगिक नहीं। वह पूरी तरह नई पीढ़ी के सरोकारों का प्रतिनिधित्व करती है और जनोन्मुख है।  

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