भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले दो - तीन वर्षों से
संकट में है। देश की विकास दर कम हुई है और मंदी के प्रभाव के कारण बेरोजगारी और
गरीबी से मुक्ति पाने का देश का लक्ष्य पीछे खिसक गया है। इन हालातों में उद्योग
जगत तथा अर्थशास्त्रीगण देश में आर्थिक सुधारों में तेजी लाए जाने की मांग कर रहे
हैं और सरकार भी यही कोशिश कर रही है कि सुधार कार्यक्रमों में तेजी लाकर देश की
विकास दर को बढ़ाया जाए तथा आर्थिक मंदी से छुटकारा पाकर लोगों को रोजगार के नए
अवसर उपलब्ध कराए जाएं। देश के नए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने एक तरफ तो
‘मेक इन इंडिया’ तथा ‘स्वच्छ भारत’ जैसे अभियान चलाकर तथा श्रम क्षेत्र में
सुधार लागू करके आर्थिक प्रगति को मजबूत करने की बड़ी पहल की है, वहीं दूसरी तरफ
‘जन-धन योजना’, ‘बेटी बचाओ - बेटी पढ़ाओ’ जैसे अभियानों के माध्यम से उन्होंने
हाशिए पर पड़े गरीब व अशिक्षित समुदाय को विकास की मुख्य धारा में लाने तथा देश
की प्रगति में उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने के प्रयास आरम्भ किए हैं। इंफ्रास्ट्रक्चर
के विकास की दृष्टि से तथा ‘मेक इन इंडिया’ को सफल बनाने के लिहाज़ से भूमि
अधिग्रहण कानून में समुचित परिवर्तन किए जाने की पहल भी की गई है। प्रधानमंत्री का
‘मिनिमम गवर्नमेंट - मैक्सिमम गवर्नेंस’ का मूल मंत्र निश्चित रूप से देश की
जनता को बड़ी राहत देने वाला सिद्ध हो सकता है।
लेकिन,
उपरोक्त सभी अभियान अथवा प्रयत्न तभी सही दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, जब इस देश
के सिविल सेवकों की बिरादरी आत्मिक रूप से इन सुधार कार्यक्रमों तथा अभियानों के
साथ जुड़कर अपनी सही भूमिका निभाए। इसके लिए सिविल सेवकों को अपनी सोच में
परिवर्तन लाना होगा और हर कदम पर अपनी तरफ से पहल करते हुए इन कार्यक्रमों को आगे
बढ़ाने का प्रयत्न करना होगा। इसमें भारतीय प्रशासनिक सेवा व अन्य अखिल भारतीय
सेवाओं के साथ - साथ केंद्रीय सेवाओं तथा राज्य सरकार की प्रशासनिक व अन्य
सेवाओं के अधिकारियों की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होगी। सुशासन कभी नारा
लगाने से नहीं आता, सुशासन के लिए उसकी व्यवस्था संभालने वाले शीर्ष लोगों को कठिन
परिश्रम व लगन के साथ प्रयत्न करना पड़ता है। इन शीर्ष लोगों में मंत्रीगण व
जनप्रतिनिधियों की भूमिका तो महत्वपूर्ण है ही, शीर्ष पदस्थ अधिकारियों,
विभागाध्यक्षों आदि की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। नीचे के स्तर के
अधिकारी व कर्मचारी उतनी ही लगन, मेहनत व तत्परता से कार्य करने को उद्यत होंगे,
जितनी वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों में देखेंगे। इसलिए, देशहित में भारत को प्रगति
के मार्ग पर आगे ले जाने के लिए आज अखिल भारतीय सेवाओं व अन्य भारतीय सिविल सेवाओं
के अधिकारियों के लिए एक नया संकल्प लेने तथा एक नए दृष्टिकोण के साथ काम करने की
जरूरत है।
देश
की वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासनिक प्रणाली के तहत ईमानदारी से जनहित को समक्ष
रखकर काम करने वाले सिविल सेवकों व कतिपय शीर्ष पदस्थ दुराग्रही राजनेताओं के बीच
यदा - कदा टकराव की स्थिति पैदा होना स्वाभाविक है और यह एक ऐसा जोखिम है जिसके
लिए सिविल सेवकों को हमेशा तैयार रहना चाहिए। यह टकराव किसी निजी स्वार्थवश नहीं
होना चाहिए। न ही यह अहं का टकराव होना चाहिए। यदि किसी सदुद्देश्य के तहत कार्य
करते समय अथवा निर्णय लेते समय यह टकराव होता है तो उसका लोग स्वागत ही करते हैं।
अचानक होने वाला ट्रांस्फर या किसी बेकार समझे जाने वाले विभाग में पदस्थापना तो
सिविल सेवा का एक सामान्य पहलू ही माना जाना चाहिए। जब सभी लोग ऐसा मानेंगे तो
राजनेता भी गलत निर्णय लेने अथवा इस तरह की दखलंदाजी के लिए कम प्रवृत्त होंगे।
ऐसा केवल इस कारण से है कि कुछ लोग तो यह जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते हैं किंतु
अन्य तमाम लोग इससे बचने का प्रयास करते हैं और नेताओं के उल्टे - सीधे निर्णयों
में शामिल हो जाते हैं। अनावश्यक स्थानांतरणों व कार्रवाईयों आदि से सिविल
सेवकों को सुरक्षित रखने के लिए माननीय उच्चतम न्यायालय व सरकार ने समय - समय पर
कुछ अहम निर्णय लिए हैं हालांकि अभी इन निर्णयों के अनुपालन में कमियां हैं। सीधा
सच्चा कार्य करने वाले अधिकारी सत्ता प्रतिष्ठान पर प्रभाव रखने वाले भ्रष्ट
तत्वों की नाराज़गी का दंश समय - समय पर झेलने को बाध्य होते ही रहते हैं। उत्तर
प्रदेश में दुर्गाशक्ति नागपाल तथा बिहार में कुलदीप नारायण के निलंबन के मामले
इसके हालिया उदाहरण हैं। किन्तु ऐसे ही मामलों से सिविल सेवकों की दुष्वारियाँ
जनता के सामने आती हैं और लोगों में उनके बारे में जागरूकता का संचार होता हैं, जो
व्यवस्था में सुधार का कारक बनता है।
मेरा
मानना है कि जैसे - जैसे सामान्यजनों में जागरूकता बढ़ती है, सिविल सेवकों पर भी
बेहतर ढंग से कार्य करने का दबाव बढ़ता है और जैसे - जैसे सिविल सेवक अपने कार्य
में बेहतरी लाते हैं, वैसे - वैसे ही उन्हें अधिक जनसमर्थन भी मिलता है और सरकार
के कामकाज में वैसे ही जनसहभागिता भी बढ़ती है। व्यापक जनसहभागिता के बिना कोई भी
बड़ा अभियान अथवा सुधार कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता। इस प्रकार आज यह जरूरी है कि
सिविल सेवाओं के अधिकारी जनता की आवश्यकताओं एवं उनकी संवेदनाओं को समझते हुए
उनके प्रति सहानुभूतिपूर्ण एवं मर्यादित व्यवहार रखते हुए अपने दायित्वों का
निर्वाह करें। जनप्रतिनिधियों की सोच पर संकुचित राजनैतिक स्वार्थ अपना प्रभाव रख
सकते हैं, किंतु सिविल सेवकों के लिए इन प्रभावों से दूर रहना ही उचित है। सबसे
बड़ी बात है, जनतंत्र में जनाकांछाओं के अनुरूप काम करने की भावना मन में पैदा करना
और उसी के अनुरूप नीतियों का निर्माण करने तथा उन्हें लागू करने लिए प्रवृत्त
होना। यह हो सकता है कि दूरदर्शिता एवं तात्कालिक लाभ के चक्कर में कभी किसी
क्षेत्र विशेष में जनाकांछा कुछ ऐसा किए जाने के पक्ष में हो, जिसका उस क्षेत्र के
लोगों पर या समाज के अन्य तबकों पर आगे चलकर विपरीत प्रभाव पड़े, लेकिन इसके लिए भी
यही चारा है कि लोगों को ऐसे कामों के दीर्घकालिक प्रभावों के प्रति आगाह करते हुए
उन्हें जागरूक बनाया जाय तथा जनभावना को बदला जाय। पर्यावरण पर दीर्घकारिक
दुष्प्रभाव छोड़ने वाली परियोजनाओं, जलवायु परिवर्तन का कारण बन रही गतिविधियों आदि
को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है।
भारत
जैसे कम आर्थिक संसाधनों वाले देश में जनसहभागिता से बड़े से बड़े असंभव काम भी
आसानी से किए जा सकते हैं, क्योंकि यह एक युवा शक्ति से संपन्न देश है। आने वाले
कम से कम बीस वर्षों तक भारत काम करने योग्य युवाओं की जनसंख्या की दृष्टि से
विश्व में शीर्ष पर बना रहेगा। इस युवा शक्ति को निर्माण की शक्ति में बदलने के
लिए उसके कौशल का विकास किया जाना जरूरी है। इसके लिए पारंपरिक कौशल का परिमार्जन
व परिष्करण तथा देश में वैज्ञानिक सोच का विकास भी जरूरी है। यहाँ धार्मिक
आयोजनों, त्योहारों, शादियों आदि के लिए तो लोग करोड़ों की पूजी लुटा देते हैं
लेकिन कौशल विकास व वैज्ञानिक शोध एवं प्रगति के लिए हमारे पास संसाधन नहीं जुट
पाते। हमारी सिविल सेवाओं के सदस्य इस बारे में लोगों को बखूबी प्रेरित कर सकते
हैं। मैं इस बारे में अपना ही एक रोचक अनुभव आपके समक्ष रखना चाहूँगा। प्रशिक्षण
पूरा करने के उपरान्त जब 1988 में केरल में एस.डी.एम.,
पाला (जिला कोट्टयम) के रूप में मेरी पहली पोस्टिंग हुई, तब उस उपजिले का मुख्यालय
पचीस - तीस हज़ार की आबादी वाली एक छोटी नगरपालिका थी, जिसे हम कस्बा ही मानते थे।
जब 1989 का विश्वकर्मा दिवस नजदीक आया तो वहाँ की स्थानीय मीनाचिल तहसील के विश्वकर्मा
संगठन के लोग मुझे अपने कार्यक्रम का उद्घाटन करने के लिए आमंत्रित करने आए। मैंने उनसे कहा कि विश्वकर्मा जी तो कौशल व कर्मठता के देवता माने
जाते हैं और आप लोग उस दिन अपने औजार त्यागकर छुटूटी मनाते हो, ऐसे में मेरे द्वारा
आपके कार्यक्रम का उद्घाटन किए जाने का क्या औचित्य है।
विश्वकर्मा संगठन
के लोगों को मेरी बात
चुभ गई। वे बोले, "हम लोग किस प्रकार का कार्यक्रम करें कि आप आएँ?" मैंने
कहा, "आप लोग भले अपनी निजी रोज़ी कमाने के काम की उस दिन छुट्टी रखें, किन्तु
यदि सब लोग मिलकर किसी जनहित के काम के लिए औजार उठाएँ तो मैं आपके कार्यक्रम में आऊँगा।"
उन्होंने उत्साह से कहा, "काम क्या करना है यह आप तय कीजिए, स्त्रियों सहित हमारे
करीब पाँच सौ सदस्य अपने औजारों सहित उसमें शामिल होंगे। उनमें लोहार होंगे, बढ़ई होंगे,
निर्माण के मिस्त्री होंगे, प्लंबर होंगे, वेल्डर होंगे, और भी तमाम तरह के कर्मी होंगे।"
मैंने स्थानीय तालुक अस्पताल की दयनीय दशा देख रखी थी। मैंने उनसे उस अस्पताल को सुधारने
का प्रस्ताव रखा। वे खुशी से बोले, - "विश्वकर्मा दिवस पर सुबह आठ बजे हमारी टीम
अस्पताल के गेट पर होगी। जरूरत की सामग्री आप जुटाइए।" उनकी
इस पहल के बाद अब बारी हमारी थी। मैंने उनके
विशेष प्रतिनिधियों के साथ अस्पताल का दौरा किया गया। ईंटें, पत्थर, लकड़ी, सरिया,
सीमेन्ट, पेन्ट, चूना, सैनिटरी फिटिंग, हार्डवेयर, बिजली का सामान सबकी आवश्यक मात्रा
की सूची बनाई गई। फिर वहाँ
के नगरपालिका अध्यक्ष, स्थानीय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों व व्यापारी
संगठनों के साथ एक बैठक हुई जिसमें यह तय हुआ कि मेरे व नगरपालिका
अध्यक्ष के नेतृत्व में एक टीम पूरे बाज़ार का भ्रमण यह सामग्री
दान के रूप में एकत्रित करेगी।
हमने तय किया कि हम पैसे न लेकर दान में केवल सामान लेंगे। हम कस्बे की दूकानों पर
भिक्षुक बनकर पहुँचे। तीन दिन में ही जरूरत का लगभग तीन लाख का सामान मिल गया, उस समय
की कीमत पर यह एक बड़ी मदद थी।
विश्वकर्मा दिवस पर सुबह आठ बजे से ही
उनके वालंटियर्स की सेना जुट गई। मरीज़ों को बरामदों में लाकर वार्डों का कायाकल्प
किया गया। फिर बरामदों का, टॉयलेटों का, ऑपरेशन थिएटर का, अस्पताल के अन्य हिस्सों
का, यहाँ तक कि गेट का भी। दरवाजें, खिड़कियाँ, नल, बेसिन, बेड, ऑपरेशन टेबुल, बिजली
की फिटिंग, यहाँ तक कि ऑपरेशन थिएटर की लाइट्स भी, सब रिपेयर किए गए या बदले किए गए।
उनकी पेन्टिंग भी हुई। कमरे व बरामदे भी पेन्ट किए गए। अस्पताल के प्रवेश द्वार के
नीचे के पाइप तक बदल डाले गए। काम करने वालों में सैकड़ों स्त्रियाँ भी थीं। वे अपना
नाश्ता - पानी भी साथ ही लेकर आए थे। शाम तक अस्पताल का कायाकल्प हो चुका था और उन
विश्वकर्माओं की अद्भुत रचना हमारे सामने चमचमा रही थी। शाम को अस्पताल में ही उन्हें
मिठाई खिलाकर विश्वकर्मा दिवस का समारोह आयोजित किया गया। उस दिन उनके चेहरों पर छाई
संतुष्टि और मरीज़ों से लेकर उस कस्बे के सामान्य जनों व नेताओं के चेहरों पर झलक रही
खुशी मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। उस दिन वे मेरे प्रति कृतज्ञ थे, मैं उनके प्रति और
मनुष्य की सामूहिक शक्ति के प्रति। उस एक सफल प्रयास की भावना को मन में संजोकर मैं
केवल इतनी ही अपील कर सकता हूँ कि आज भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के चलते तेजी से बदलते
भारतीय समाज की जरूरतों एवं आकांक्षाओं के साथ तालमेल बैठाने के लिए हमारी सिविल सेवाओं
की सोच और कार्यप्रणाली में बदलाव आना बेहद जरूरी है।
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