गंगाजलु है केतना काला!
तुम तो कहेउ सरग ते उतरीं
शिव की जटा - जूट ते गुजरीं,
ऊँचे हिम - नद का निरमल जलु
बाँहन माँ भरि - भरि बहि निकरीं,
फिरि काहे एहिके पानी माँ
एतना कूड़ा - कचरा घाला?
एहिका पानी छिरिकि - छिरिकि
तुम देवी - देउता रोजु नहावौ,
पूरे घर का करौ पवित्तर
अंत समय माँ यहै पियावौ,
एहिते एहिका हालु देखिकै
मनु हमार है रोवै वाला।
गंगै काहे सगरी नदियाँ
हम बहुतै गंदी करि डारा,
सूखि गए सब उनिके सोंता
भू - जल एतना खींचि निकारा,
कुँआ, ताल हम सबै सुखावा
अब तो जलु बसि बोतल वाला।
कौनु भगीरथ फिरि ते आई
अंतक्रिया - गति शुद्ध कराई,
जीवन - जल के दोष मिटाई
बहुरी एहिकै निरमलताई,
को छांटी हिरदय का कचरा
मन कै बात सुनाई लाला?
सटीक रचना
ReplyDelete