आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, July 25, 2015

पुनरावाहन

बागी होना कोशिकाओं का स्वभाव नहीं होता
लेकिन जब वे उतर आती हैं बगावत पर
और बढ़ने लगती हैं अनियंत्रित रूप से
शरीर के किसी एक छोटे से हिस्से में
तब ध्वस्त हो जाता है जीवन का समूचा संविधान
यह बात सभी को मालूम है कि
इस बगावत से नहीं मिलता कभी
किसी को भी जीने का कोई विकल्प

नदी के अमृत - प्रवाह को विषैला बना देता है
सारा कचरा समेटकर उसमें धंस जाने वाला 
एक पतला - सा गंदा नाला
धीरे - धीरे नाला नदी का कैंसर बन जाता है
जिसकी विषाक्तता में दम तोड़ने लगता है
उस नदी के जल पर आश्रित पूरा का पूरा शहर

हवा में प्राणवायु बढ़ाती है हरियाली 
किन्तु जब लोग बौद्धिक विपन्नता में डूबकर
हरियाली मिटाकर बढ़ाने लगते हैं अपनी सम्पन्नता
तब हवा में बढ़ जाती है ज़हरीली कार्बन डॉक्साइड
जो जानलेवा बन जाती है पूरे जीव - जगत के लिए
संभवत: मनुष्य से बड़ा आत्महंता
कोई नहीं इस पूरी सृष्टि में

मनुष्य के कृत्यों पर पछताऊँ, रोऊँ, सिर पीटूँ, क्या करूँ?
सृष्टि की नियति पर विमर्श करूँ, झख मारूँ, किसे कोसूँ?
खोखले संकल्प के साथ किसे पुकारूँ, कौन से मंत्र जपूँ?
पृथ्वी को चिता पर लिटाकर किसकी मुक्ति का गीत गाऊँ?

लेकिन कवि हूँ, 
यूँ ही हारकर तो नहीं बैठ सकता?

मुझे पृथ्वी को बचाने के लिए 
लोक - संघर्ष की तैयारी करनी है
और उससे भी पहले सुविधा - भोगी वृत्ति का दमन कर
आत्म - संघर्ष के मोर्चे पर विजय का वरण करना है
इसलिए हे पृथ्वी, हे आकाश, हे वरुण, हे वायु, हे अग्नि!
पुरावाहन करता हूँ तुम्हारा!
आज मुझे कुछ और नहीं, वे शब्द दे दो!
जिनमें सृष्टि को मानव - जनित कैंसर से बचाने की

अचूक प्रतिरोधक शक्ति हो!

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