आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, June 1, 2015

नई चेतना का आल्हा (अवधी)

थकिगे वीर, हारिगे योद्धा, वहिका कुछु ना करौ मलाल।
बीति विभावरि अब ना जगिहै, कवि आगे का कहौ हवाल॥

बातन - बातन धरम सनातन कौनि दशा मां पहुँचा जाय।
बरन - व्यवस्था कैसे बिगरी अत्याचारु सहा ना जाय॥

ऊँच - नीच के मकड़जाल मां कैसे गा समाजु बिलगाय।
खंड - खंड भै रीति - नीति सब, मनई का मनई ना भाय॥

रिषिन्ह - मुनिन्ह जो रची व्यवस्था वहिका ककस सुधारा जाय।
जाति - धरम का भेदु - भाव सब मन ते ककस निकारा जाय॥

कहैं 'अहं ब्रह्मास्मि', ब्रह्म फिरि बन्धन मां कस डारा जाय।
झूठु रटैं 'वसुधैव कुटुम्बं' उनका स्वार्थु विचारा जाय॥

रंग - बिरंगी उड़ैं पतंगै, कौनिउ उड़ै, कोई कटि जाय।
यहि दुनिया के उड़वा मनई बिरथा डोर बँधे इतरायँ॥

कौनिउ नसल, रंग, रचना है उत्तम, यहु स्वारथु का दाय।
सबकै भाव - भूमि याकै है, सबका हास - रुदन सम भाय॥

बाँभन ब्याँचैं पान किन्तु उइ रहे तमोली का दुतकार।
क्षत्रिय सेवा करैं बहुत बिधि, किन्तु न करैं सूद ते प्यार॥

जनमजात विद्वेष भरा है, गहिरे अबौ पैठ मनुवाद।
करमु बड़ा है सब धरमन ते, है यहु वादु अबौ अपवादु॥

वर्ग - चेतना पर हावी है, धरम, जाति, नस्लीय प्रभाव।
यहै चेतना गाँव - देश मां, यहै विश्वव्यापी है भाव॥

संतन का बँटवारा होइगा, नेता बँटे वोट के काज।
लोकतंत्र होवै जन - जन का किन्तु अल्पजन बेआवाज़॥

बहुजन का मतलबु आपन जन, स्वजन - स्वार्थु बसि जनहितु आजु।
केहिके माथे फूलै जन - जन, सबकै ब्यथा हरै को आजु॥

जे जनवादी, ते अपवादी, उनहूँ रचा घृणा का जालु।
ख़ूनी क्रांति सफल कबहूँ ना, ख़ूनी होइहैं ककस कृपालु॥

आजु जरूरति नए शब्द कै, गूँजै नई चेतना आज।
आजु जरूरति नए युद्ध कै, जेहिमां शब्द गिरैं बनि गाज॥

कैसे होय हृदय - परिवर्तन, कैसे समरस बनै समाजु।
बुद्धि, विवेक, शक्ति, साहस ते, समरथ होयँ सबै जनु आजु॥

कटे पंख कस उड़ी चिरैया, थकिकै गिरी चोंच बल जाय।
कैसे सबल पंख पावै वह, यहिका कौनउ करौ उपाय॥

यहै मरमु का समुझि देश मां, उपजै नई चेतना आजु।
जस शंकर अद्वैत जगावा, वैसै नवा होय कुछु काजु॥

सबै मनुष्य एक सम उपजैं, एकु होय आचार - विचार।
श्रीनारायण गुरु दर्शन सम, नई सोचु पावै विस्तार॥

जीवन - यापन की खातिर कोउ चाहै जौनु करमु गहि लेय।
लेकिन वहिते वहि मनुष्य कै, जग माँ काहे दुर्गति होय॥

सबै वरण के संत - महतमा, सबै वर्ग - नेतागण आजु।
'जन - गण - मन' की नई अलख ते, रचौ नीति नव, नवा समाजु॥

भारतीय चेतना बनै अब फिरि ते विश्व - चेतना आजु।

जो न होय अस तौ पक्का अबु समझौ आपनु बूड़ जहाजु॥

1 comment:

  1. सटीक और सामयिक रचना

    ReplyDelete