आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, June 13, 2015

डटे रहौ (अवधी आल्हा)

बहुतै जटिल जगत कै रचना, बहुतै कुटिल लोक - व्यवहार।
स्वारथ बस सब जग पतियावै, वरना देय सदा दुतकार॥

देखि - देखि जग कै कुटिलाई, को अस, जो न जाय अकुलाय।
केहिके रोषु न बाढ़ै मन मां, को सहि सकै घोर अन्याय॥

राजे - महराजे जग - जीते, बादशाहगण आलीशान।
एकु - एकु करिकै सब बीते, जग का बदला नहीं बिधान॥

प्रजातंत्र की नई उजेरिया मां जब जगा नवा बिसवास।
तबहूँ ठगे गए हम रोज़ुइ, मिटा न कबौ रोगु, संत्रास॥

जन - गण चुनैं बिधाता आपन, मिलै न कोऊ कष्ट - निवार।
बड़े धनबली, बाहुबली जे, लोकतंत्र के लम्बरदार।।

घूसखोर जनसेवक होइगे, सत्ता - सुख कर्तव्य भुलान।
खंडित बड़ि समाज - संरचना, भिक्षुक बने गरीब, किसान॥

जे मजदूर, दलित, हतभागी, उनका कोऊ न पुरसाहाल।
गाँव - गाँव कै यहै कहानी, उनके लरिका सदा बेहाल॥

ज्वातै परती खेतु बिसनुआ, आधी मालिक लेय दबाय।
भारी कर्जु चढ़ा है माथे, आधी मां वहु रहा चुकाय।।

आधी तृप्ति, अधूरा जीवन, बहुतै रुदन, अधूरा हास।
आधे पेटु मंजूरी करिकै, पूरी करै अधूरी आस।।

वहिके सबै सवाल अधूरे, मिलैं अधूरे सबै जबाब।
वहिकै जाति, समाज अधूरा, जनम ते वहिका भाग्य खराब।।

बड़का मारै, देय न रोवै, चहुँ दिसि घूमैं रंगे सियार।
करू करेला नीम चढ़े हैं, भोगी जोगिन कै भरमार॥

जन - नेता अभिनेता होइगे, सेवक करै लागि व्यापार।
उनहीं के बाढ़े मिटी गरीबी, ऐसइ मन मां भरा विचार॥

एकुइ रावनु भा त्रेता मां, अब तौ घूमैं हियाँ हज़ार॥
कौनि जुगुति बचिहैं अब सीता, कौनु द्रोपदी का रखवार॥

ऐसे मां मनु करै कि भैया, कर्रे ब्वाल सुनावा जाय।
आँखिन झ्वांकैं धूरि जो, उनकी आँखिन मिर्चा डारा जाय॥

काहे बनौं नंद की गैया, काहे न बनौं शंभु का सांड़।
काहे बनौ रुचिर बिरियानी, काहे न बनौं चौर का मांड़।। 

काहे करौं सरस कविताई, काहे बनौं जगत का भांड़। 
जीवन जटिल जाल मां जकड़ा, काहे न हनौं वचन के वाण।।

जहाँ पसीना की छलकन मां, झलकै साँचु ज़िन्दगी क्यार।
हुँवैं कै गाथा रचिबै, कहिबै, केतनेउ दुश्मन बनैं हमार।।

सब प्रबुद्धजन मिलिकै स्वाचौ, जो होइ रहा उचित का भाय।
नहीं उचित तौ का फिरि चुप्पै बैठब कहा उचित अब जाय॥

पोंगापंथी खूबु नसायिसि, वहिते पल्ला झाड़ा जाय।
मरमु धरमु का अब पहिचानौ, जेहिते स्वत्व सँभारा जाय॥

धरे मुखौटा जे छलछंदी, उनका भेसु उतारा जाय।
जेहिमां दुखी गरीब न रोवै, वहै उपाय विचारा जाय॥

बनौ न अब माटी के माधौ, चलौ, उठौ, सँभरौ, भिड़ि जाव।

जब तक देसु - समाज न बदलै, तब तक डटे रहौ यहि ठांव॥

2 comments:

  1. समकालीन स्थिति का सटीक विवरण

    ReplyDelete
  2. पुरानी लोक परम्परा की गायन शैली में समकालीन यथार्थ एवं युगबोध को समेट कर आपने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी विरासत को बचाने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता ।बधाई।

    ReplyDelete