आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, August 31, 2014

मेरी भाषा

आजकल जाने क्यों मुझे लगता है
कि मेरी भाषा कहीं खो गई है,
वह मुझमें ही कहीं गुम हो गई है
या मेरे देश की राजनीति में
या फिर ग़ुलामी की हीनभावना का शिकार हो गई है
यह स्पष्ट नहीं
किन्तु मेरे घर का सच यही है
कि मेरे बेटे के पास
अब मेरी भाषा नहीं बची है

मेरे बेटे ने जब से 
भाषा के की-बोर्ड पर
एक साथ शिफ्ट.कन्ट्रोल.आल्ट दबाकर
डिलीट का बटन दबाया है
तब से उसकी भाषा एकाएक
हमारे इतिहास, भूगोल दोनों से अलग होकर
एक नए कलेवर में
शब्दों के वैश्विक बाज़ार में 
अपना अजूबा प्राइस टैग लगाकर
किसी बिकाऊ माल की तरह टंग गई है

उसमें ऊल - जलूल जो गाना चाहो लिखवा लो!
उसमें जिसको शर्मिन्दा करना चाहो करवा लो!
उसमें जहाँ दंगा - फसाद रचवाना चाहो रचवा लो!
उसमें जिस देश के शब्द मिलाना चाहो मिला लो!

मेरे बेटे के सर्च इंजन की भाषा
मेरी खोज की भाषा से एकदम अलग है
इसीलिए आज अपनी भाषा में खोजने पर
मुझे मेरा बेटा नहीं मिलता
और जब वह अपनी भाषा में मुझे खोजता है
तो वहाँ मुझे न पाकर
बीसवीं सदी के एक बूढ़े ख़ब्ती को पाता है

कभी - कभी मुझे लगता है
कि मेरी भाषा कहीं गुम नहीं हुई है
वह तो अपना मन मसोसते हुए
भारत के नक़्शे पर
मोटे अक्षरों में उभरे
इंडिया के वर्चस्व से अपने को बचाने की कोशिश में
गाँव की चौपालों में दुबककर
किसी किसान की फसल का बीज बन गई है!

काश! मेरा यह अहसास गलत साबित हो
कि इक्कीसवीं सदी आते - आते 
मेरी भाषा मुझसे कहीं छिन गई है।

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