आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, August 31, 2014

सदाबहार वन

जैसे किसी सदाबहार वन में
पेड़, पेड़ - लताएँ, लताएँ
झाड़ियाँ, झाड़ियाँ और घास, घास होती है
उनके तमाम अन्तर्संघर्षों के बावजूद
सबके अस्तित्व को निरन्तर सँजोकर रखता हुआ
अलग - अलग मौसम में तरह - तरह  फूलों के रंग बिखेरता हुआ
वन, वन होता है
हमेशा हरा - भरा रहने वाला एक सदाबहार वन!

वैसे ही किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में
धर्म, धर्म होते हैं, नस्लें, नस्लें - भाषाएँ, भाषाएँ होती हैं
भाँति - भाँति की बोलियाँ, पहनावे, खान - पान होते हैं
और तमाम विविधताओं के बावजूद
उन सबकी पहचान को अक्षुण्ण बनाए रखकर
अलग - अलग त्योहारों, परंपराओं, विश्वासों के आवेश में डूबा,
सभी को अपना लगने वाला एक देश होता है
हर वर्ग के लोगों को समान रूप से अधिकार, अवसर और सम्मान देने वाला देश!

जैसे जर्मनी के लोग जर्मन होते हैं
फ्रांस के फ्रेंच, रूस के रूसी और जापान के जापानी
वैसे ही भारत के लोग भी भारतीय होते हैं
किन्तु जैसे जर्मनी, फ्रांस, रूस के लोग महज़ ईसाई नहीं होते 
या जापान के लोग सिर्फ़ बौद्ध नहीं होते
वैसे ही भारत के लोग भी केवल हिन्दू या मुसलमान अथवा सिख या ईसाई नहीं होते!

वैसे भारत में भी ऐसा होता है कि पंजाब के सारे लोग पंजाबी होते हैं,
गुजरात के गुजराती, महाराष्ट्र के मराठी, बंगाल के बंगाली और कहीं ओड़िया या मलयाली
किन्तु ऐसी समेकित भाषायी संज्ञाएँ रखते हुए भी
भारत के तमाम प्रांतों के लोग कभी भी
अपनी - अपनी विशिष्ट धार्मिक पहचान नहीं खोते

अतीत की संज्ञाएँ वर्तमान से मेल नहीं खातीं कभी - कभी
और इस सदाबहार देश का वर्तमान सत्य यही है कि

विविधताओं से भरे होने के बावजूद
अपनी संपूर्णता में सारे भारतीय सिर्फ़ हिन्दू या हिन्दी नहीं होते!

आज यदि कोई यह कहे
कि सदाबहार वन की पहचान सिर्फ़ पेड़ होते हैं
तो वहीं से जन्म लेने लगता है घास के लिए एक बड़ा ख़तरा
वहीं से शुरू हो जाता है झाड़ियों और लताओं के लिए
अपनी अस्मिता को बचाए रखने का संकट
वहीं से ख़त्म होने लगती है सदाबहार वन की असली पहचान
और वहीं से अपने स्वार्थ में फिर से जंगली होने लगता है
अतीत में जंगल से निकलकर आया हुआ एक आदमी!

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