आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, August 31, 2014

दोलन

पेंडुलम - सा मन डोलता है
जितना इस तरफ,
उतना ही उस तरफ
दोलन थमता ही नहीं और
समय की सुई आगे की ओर
खिसकती रहती है लगातार

निरन्तर प्रतीक्षा रहती है कि
थमे कहीं मन का दोलन तो
अटक जाए पेंडुलम पर टंगी सुई
और ख़त्म हो समय के परिवर्तन का यह सिलसिला

कभी - कभी
पेंडुलम की तरह डोलना छोड़कर
पंख लगाकर आकाश में उड़ता है मन
ऐसे में वह गति के बन्धन से मुक्त हो
समय की स्नेहिलता में भीगकर
दूर क्षितिज पर उगे सतरंगी इंद्रधनुष पर
तितली - सा टंग जाता है

लेकिन लम्बे समय तक अपनी जगह पर
नहीं टिका रहता आसमानी इंद्रधनुष
मन को लौट ही आना पड़ता है उस यात्रा से
वापस इसी धरती पर
पेंडुलम की तरह रात - दिन
समय की गति के अनुरूप
निरन्तर डोलते रहने के लिए।

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