आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, September 23, 2014

पतंगबाज़ी

यह पतंगें उड़ाने का ही दौर है
चलो हम भी अपनी पतंगें उड़ाएँ

कभी काटें इसे
कभी काटें उसे
सबसे ऊँचे पहुँचने की शाज़िश रचाएँ

कभी दाएं मुड़ें
कभी बाएं मुड़ें
बीच में फिर घुसा सबसे ऊपर उठाएँ

कभी इससे लिपट
कभी उससे लिपट
मौका पाकर सभी से ही पीछा छुड़ाएँ

कभी आगे से जकड़ें
कभी पीछे से पकड़ें
फिर अमरबेल जैसे सभी को सुखाएँ

बस हवा में रहें
ना ज़मीं पर टिकें
कटके अटकें, लुटें, तो भी सबको छकाएँ।

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