आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

प्रेयसी (2009)

चंपे की डार पर
पहली कली के खिलने की तरह,
उजाले की पहली किरण
आंगन में सुबह - सुबह पसरने की तरह
शिशु - बिहग के पंखों में नवोन्मेष समाहित करने वाली
पहली - पहली उड़ान की तरह,
कमल - दलों की प्रात:काल प्रस्फुटित होने वाली
भ्रमर - मोचक मुस्कान की तरह
अविस्मरणीय होती हैं
प्रेयसी से पहली बार होने वाले मिलन की यादें।

शीत के घने कुहासे को चीरकर निकलती
धूप में सन्निहित उष्मा की तरह,
पतझड़ की बेरंगीनियों से उबरकर
बासन्ती उत्तेजना में अंखुआती तरु - शिखाओं की नूतनता की तरह,
गरमी में सूख रहे ताल - तलैयों में छटपटाते दादुर - मीन शरीरों में
वर्षा - ॠतु की पहली फुहार के संग समा जाने वाली तृप्तता की तरह,
अनूठा व रोमांचकारी होता है प्रेयसी का पहला - पहला स्पर्श।

सूर्यास्त के समय नीड़ों की ओर सत्वर वापस लपकते
विहग - वृन्दों के कलरव की तरह,
या फिर स्कूल की समाप्ति पर
दोस्तों के साथ कागज़ के जहाज उड़ाते
मां के हाथों भोजन करने को आतुर
घर वापस लौटते बच्चों की किलकारिओं की तरह,
पुनश्च, लंबे समय तक सीमा पर तैनात रहे फौजी की
घर वापसी के समय बढ़ जाने वाली हृदय की धड़कनों की तरह,
अनायास उपजी आतुरता एवं अतिरेक से भरा होता है
प्रेयसी की ओर बढ़ाया गया किसी प्रेमी का पहला कदम।

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