आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

प्रेम (2009)

प्रेम का दीप शाश्वत जगमगाता है हृदय के कोटर में
बाहर कितना ही अन्धकार फैला हो निराशा का

प्रेम भूखा नहीं होता प्रत्यानुराग का
प्रेम विकल भी नहीं होता प्रकट होने के लिए

विषम परिस्थितियों में प्रेम निःशब्द छुपा रहता है
हृदय के भाव - संसार में
किसी अनकही कविता की उद्विग्न पंक्तियों की तरह

प्रेम समेटे रहता है
अपनी सारी मादकता व सृजनात्मकता अंतस में ही
खिलने को बेताब किसी फूल की कोमल कली की तरह

प्रेम को दरकार नहीं होती
प्रस्फुटन की प्रतीक्षा के पूर्ण होने की
वह संतुष्ट रहता है गूलर की कलियों की तरह
देह के भीतर ही भीतर खिलकर भी

यह जरूरी नहीं होता कि प्रेम
दीवानगी का पर्याय बनकर सरेआम संगसार ही हो
वह सारे आघात मन ही मन सहता हुआ
अनुराग की प्रतिष्ठा की वेदी पर
प्रायः अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है

सच्चा प्रेमी वही होता है
जो अपने सारे विषाद को भीतर ही भीतर पचाकर
नीलकंठ की भाँति इस दुनिया में
सबके लिए एक कतरा मुसकान बाँटता फिरता है।

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