आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

शब्दों का प्रतिदेय (2011)

भीड़ में मेरे शब्दों की प्रतिध्वनि
कोलाहल बन जाएगी
खो देगी अपने सारे अर्थ
इसीलिए कहना चाहता हूँ
तुमसे कुछ अकेले में
ताकि कह सकूँ सब कुछ साफ - साफ
तथा सुन सको तुम भी सब कुछ चुपचाप।

अख़बार की पंक्तियों से अलग हटकर
टेलीविज़न की तस्वीरों से परे बैठकर
हो सके कुछ ऐसा भी सोचना - विचारना
जिसे नहीं महसूस कर सकती कोई भीड़ कभी

शायद तुम भी कहना चाहोगे
किसी से कुछ मेरी ही तरह
साफ - साफ मन की बात
और तब हो सकता है कि चल निकले
एक नया सिलसिला यहाँ
और समझने लगें सारे के सारे लोग
हमारी - तुम्हारी इन बिखरी-बिखरी बातों को
कैद कर लें उन्हें मुट्ठी में नारों की तरह
जुटने लगे चारों तरफ एक नई तरह की भीड़
मेरे इन शब्दों का वही असली प्रतिदेय होगा।

अन्यथा भी मैं भला क्यों चूकूँ
कहने से तुमसे
अपने मन की बात
सीधे - सीधे, साफ - साफ?

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