आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 30, 2014

उम्मीदों का हत्यारा (2014)

(1)

पानी से निकल भागने को तत्पर गैस
जैसे तन जाती है बबूले की शक्ल में
फिर अपने ही दबाव से उसे फोड़कर
मिल जाती है खुली हवा में
वैसे ही
मैं भी निकल भागना चाहता हूँ
फाइलों की द्रवीय सतह के भीतर से
तोड़कर लाल फीतों का बंधन
फाड़कर बबूले - सी तनी हुई
झूठी शानो - शौक़त की झिल्ली
और विलीन हो जाना चाहता हूँ
बाहरी दुनिया के खून - पसीने की गंध में
मुझे लगने लगा है कि
लोगों की उम्मीदों के हत्यारों की खोज़ करने
और उन्हें सज़ा दिलाने का काम
वहीं से किया जा सकता है बेहतर ढंग से।

(2)
                            
चौराहों पर बार - बार मुनादी हो रही है कि
लोगों की उम्मीदों का हत्यारा
अभी-अभी एक खूबसूरत योजना हाथों में थामे
चुपके से किसी मासूम के पेट में गुप्ती का वार कर
यहीं पास के ही किसी
सुरक्षित भवन के भीतर घुस गया है
हर तरफ से पकड़ो - पकड़ो मारो - मारो का शोरगुल उठने लगा है
मुझे अपने दफ़्तर के खुशबूदार कमरे में उबकाई आने लगी है
मुझे अभी इसी वक्त इस सुरक्षित जगह से बाहर निकलकर
सड़क पर घायल पड़ी
किसी बच गई उम्मीद की देह पर
मरहम लगाने के लिए निकल पड़ना चाहिए
भले ही वह हत्यारा मुझे ही विद्रोही मानकर
किसी सलीब पर कीले गड़वाकर लटकवा दे
या बाहर आक्रोश में डूबे लोग
मुझे ही अपनी उम्मीदों का हत्यारा समझकर मारने लगें
और असली हत्यारा
किसी लाल या नीली बत्ती वाली गाड़ी में बैठकर
शाम के धुँधलके में चुपके से
उस भवन से बचकर बाहर निकल जाए।

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