आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, June 2, 2014

अश्रु - बिन्दु (1981)

अश्रु - बिन्दु तुम अर्थहीन क्यों नयनों में घिर आते?
ढुलक - ढुलक चुपचाप पलक पर दृग की कोख लजाते?

यहाँ न कोई सुनने वाला तेरा करुणा - क्रंदन,
हँसती - मुसकाती जगती को क्यों अभिशप्त बनाते?

अब न मोल है किसी हृदय में भावों के संचय का
फिर निर्ब्याज न जाने क्यों तुम अपना कोष लुटाते?

टकराकर जिस कठिन कूल से अनगिन लहरें बिखरीं
क्यों तुम अनायास बढ़ - बढ़कर उस तट से टकराते?

जग का नियम बड़ा टेढ़ा है, मीत न मन का मिलता
अनहोनी की बाँह पकड़ फिर तुम क्यों गले लगाते?

समझ रहा हूँ मीत! तुम्हारे मन की सारी पीड़ा,
जान रहा हूँ सब कुछ, जो तुम अंतस से भर लाते!

कोमल हृदय तुम्हारा साथी! व्यथा तुम्हारी सहचर!
पीड़ा - ज्वाल मिटाने को ही तुम दृग पर छहराते!

मेरी व्याकुलता के सूचक, कौन प्रभावित तुमसे?
मेरे दु:खी हृदय के पीछे क्यों निज हँसी कराते?

मन के कोटर की निधि हो तुम, मोल न यह जग जाने,
कितना प्यार सँजोए हो तुम, लोग समझ क्या पाते?

बूझ रहे तुम किस निष्ठुर से अपनी सहज पहेली,
क्षणिक सरसता रखने वाले कब चिर - प्यास बुझाते?

आओ, अर्थ - बोध करने को पास जरा - सा बैठो!
मन के संवेदन पर मिल - जुल करो मधुर कुछ बातें!

आशा और निराशा दोनों छोर एक डोरी के
बार - बार इस तन पर सुख या दु:ख के बंध लगाते।

अंतरंग की परछाईं तुम, पीड़ा की परिभाषा,
बिखरी हुई कहानी अपनी पलकों पर लिख जाते।

कैसे कहूँ तुम्हें रुकने को दृग पट पर आने से,
मन के अनुरागों से रंजित चित्र तुम्हीं दे जाते!

आओ, बढ़े चले आओ तुम! ज्योति - पटल पर छाओ!
भले न जग स्वीकारे पर तुम चलो नेह छलकाते!

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