आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

कविता को मत मारो (2012)

खत्म करने के लिए
प्रतिरोध को जड़ से
कत्ल किया जाता है कविता को हर दौर में
कविता के मरते ही
कवि तो स्वयं ही मर जाता है
अपने सपनों व संवेदनाओं की रस्सी में गरदन फँसाकर।

ऐसा नहीं है कि गद्य में प्रतिरोध नहीं होता
ऐतिहासिक तौर पर गद्य भी
बड़े - बड़े तूफान खड़े करता रहा है
लेकिन इतिहास गवाह है कि
वाणभट्ट से लेकर आज तक
गद्य की कोई भी पंक्ति
नारा नहीं बन सकी है
किसी भी मुहिम या आंदोलन की
और न ही गद्य ने जनी है कहीं कोई लोकोक्ति।

कविता तो हर काल में
लोगों की ज़ुबान पर चढ़ कर बोलती रही है
समय से लड़ती रही है तनकर
मारा जाता रहा है उसे हमेशा ही घेर कर साजिशन
विलीन हो जाती रही है वह हर बार कालक्रमेण
संबन्धित भाषा के गद्य के विस्तृत होते जाते अरण्य में।

जब - जब भी दुनिया को जरूरत होती है
नई - नई सूक्तियों, लोकोक्तियों और नारों की
तब - तब सृजाम्यहमका उद्घोष करती हुई
जी उठती है कविता फिए से रक्तबीज - सी
धरती पर टपकने वाले ख़ून के किसी एक तरे से
आँसुओं की किसी एक बूँद से
या पसीने की किसी एक कसैली धार से।

मेरे समय के गद्यकारो, आलोचको, प्रकाशको, मित्रो!
बख़्श दो इसे,
कविता को घेर कर मत मारो!
पड़ी रहने दो उसे जीवित हाशिये पर ही सही
वैसी ही, जैसी वह है
क्योंकि इसी में से ही तो
कल पैदा होने वाला है
तुम्हारी जरूरतों का कोई नया नारा
कल के किसी जरूरी युद्ध का अचूक हथियार
या फिर कल तुम्हारे होठों पर गुनगुनाया जाने वाला कोई लोक-गान।

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