आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, June 3, 2014

बूटों की आवाज़ (2012)

बूटों की आवाज़
उभरती हैं कहीं
मस्तिष्क के नेपथ्य में
भर जाता है भय
दिमाग के कोने - कोने में
विचारों के कुचल दिए जाने का ……

बूटों की आवाज़
थप  थप  थप
चढ़ती - सी लगती है छाती पर
हृदय की धुक  धुक थम जाने का ख़तरा
आसन्न लगने लगता है ……

बूटों की आवाज़
गूँजती है रह - रहकर
ऊँचे भवनों के गलियारों में
गली - कूचों की नाड़ियों की धुप  धुप
धीमी पड़ने लगती है अपने आप ……

बूटों की आवाज़
जाग उठती है फिर से
ढह चुके राजप्रासादों के खंडहरों में
फड़फड़ाकर उड़ जाते हैं कबूतर
बछ - खुचा आसरा भी लुट जाने की आशंका में ……

बूटों की आवाज़
भरने लगी है जंगलों की नीरवता में भी
शिकारी आखेट पर आमादा हैं
सिंह - शावक भूखे - प्यासे ही
बचाव के लिए अड़े हैं नंगे पाँव
किन्तु उनकी धीमी पद - चाप
दबकर रह जाती है
बूटों की भारी - भरकम आवाज़ के सामने ……

बूटों की आवाज़
धीरे - धीरे
विकल्पहीनता की ओर ले जा रही है
इसीलिए यह प्रतिध्वनित होने लगी है अब
वन - प्रांतरों  से लेकर गली - कूंचों तक से ……

ठक  ठक  ठक ……
शायद बूटों से भी भयानक कोई आवाज़
हर तरफ गूँजने वाली है अब
नर - कंकालों के पाँवों के
कठोर भूमि पर टकराने से।

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