आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Tuesday, June 3, 2014

अप्रत्याशित (2012)

एकदम अप्रत्याशित दृश्य था वह
एक कौवा अभी - अभी आकर सामने बिजली के तार पर बैठा था
अचानक ही उसका एक फड़फड़ाता डैना पास वाले दूसरे तार में छू गया
कौवा अब दोनों तारों के बीच चिपका लाचारी से तड़पड़ा रहा था
प्रातः की चहाचहाहट को बेधती कौवे की चीत्कार
करुण भी थी और तीखी भी
मैं उसकी कोई भी मदद करने में असमर्थ था
तत्क्षण मुझमें अपनी असमर्थता के प्रति चिढ़ भरने लगी
और कौवे की आसन्न मृत्यु के प्रति सहानुभूति भी

मुझे लगा कि दुनिया में
सबसे स्वार्थी प्राणी होता है मनुष्य
जिसने अपनी सुविधा के लिए
पाट दिया है आकाश को बिजली के तारों से
अपने को बचाने के लिए
जगह - जगह ख़तरे के संकेतक लगाकर
लेकिन कभी नहीं सोचा कि
उन तारों पर बैठने वाले पक्षी बेचारे
कैसे भांपेगे उन ख़तरों को
और कैसे बचा सकेंगे अपने को
मनुष्य द्वारा खुले आकाश में प्रवाहित की जा रही आग से।

हमने छोड़ दिया है
बिजली के तारों पर बैठकर विश्राम करने वाले
थके - हारे पक्षियों को
उनके ही हाल पर
वे जीना हो तो जिएँ
और मरना हो तो मरें
हम आदी हो चुके हैं
बिना आँखों में शर्म या पानी आए
दो तारों के बीच चिपके उनके शवों को देखने के।

तभी अचानक ही 
चारों तरफ से काँव-काँव का शोर उठने लगा
आसमान पर कुछ ही क्षणों के भीतर  जुटी
कौवों की पूरी सेना निर्भयता के साथ
बिजली के तारों का सारा रहस्य पता था जैसे उन्हें
अलग - अलग तारों पर उछल - उछलकर
तमाम कौवे उन्हें एक साथ हिला रहे थे
कुछ कौवे तारों को चोंचों से दबाकर
उन्हें छिटका देने के प्रयास में जुटे थे
कौवों की सेना का समेकित युद्ध - घोष
वातावरण में जोरों से गूँज रहा था
पास से गुजर रही ट्रेन की सीटी की तीखी आवाज़ भी
दब गई थी उनके प्रबल रोष - भरे कलरव के सामने।

आगे जो हुआ वह किसी चमत्कार से कम नहीं था
सहसा बिजली के तारों से चिपका कौवे का एक डैना तार से छूटने लगा
उसने जोर लगाया तो पल भर में ही वह दोनों तारों से मुक्त हो गया
मुझे लगा कि विद्युत - प्रवाह से अशक्त हुआ वह
शीघ्र ही लड़खड़ाकर नीचे गिरेगा
लेकिन यह क्या!
अपने मुक्त डैनों को लहराता
वह उस काली सेना से घिरा
थोड़ा सा नीचे की ओर लहराकर
सीधे ऊँचे आसमान की ओर उड़ चला!
कौवों का विजयी समूह अब खुशियों से काँव - काँव करता
बिजली के उन्हीं मारक तारों को अपने पंजों में दबाकर
दूर - दूर तक पंक्तिबद्ध होता जा रहा था
मुझे उनके साहस और सामूहिक प्रतिरोध की शैली पर गर्व हो आया
मैं कौवों की उस बिरादरी की इच्छाशक्ति के प्रति अभिभूत था।

मैंने सोचा कि यदि
हमारे बीच शारीरिक अत्याचार का शिकार हो रही हर स्त्री
सड़क पर दुर्घटनाओं में घायल होकर तड़पने वाला इन्सान
दूर गाँव में आत्महत्या के लिए उद्यत होता हर किसान
सदियों के शोषण  अन्याय की टीस झेलता हर दलित
घने जंगल में बसर कर रहा
अपनी जीविका के संसाधनों के अधिकारों से वंचित हर आदिवासी
इस कौवे ही तरह ही अपने संगठित समाज की मदद पाता!
तो कितनी सरलता से जुट जाती 
ऐसी ही एक मददगार सेना उसके चारों तरफ
मुसीबतों का साहस के साथ सामना करने के लिए
दुर्नियति से भिड़ने का नया हौंसला भरने के लिए।

एकाएक ही मेरे मन में
तेजी से भरने लगी क्षुब्धता और आत्मग्लानि
समान परिस्थितियों में फँसकर तड़पते
सर्वस्व खोते जा रहे निरीह इन्सानों के प्रति
समाज में बढ़ती जा रही उदासीनता को याद कर

अब मुझे अपने भीतर
उन कौवों जैसा भी  हो पाने का गहरा पछतावा हो रहा था
और मैंने अचानक ही उड़ान भरते हुए अपने मन को

बिजली के तार पर उन कौवों के बगल में बैठा हुआ पाया।

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