आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

जीवन (2013)

अभी - अभी धम्म से कूदा है
दीमक लगी मेज़ की सड़ियल सतह की तरह जीर्ण हो चुके
मेरे मन के पटल पर यह विचार कि
मरना तो सबसे सरल व नियमित प्रक्रिया है इस दुनिया की
जीना सबसे कठिन व अनियमित
आज के मार देने के लिए आतुर समय में जीना तो
असंभव को संभव बनाने जैसा काम है.

भली - भाँति जानता हूँ कि
मरने की अनिवार्यता के बावजूद भी
जीना चाहता हैं सभी अनंत काल तक
शायद अपनी इसी इच्छा को पूरी करने के लिए
सब छीन लेना चाहते हैं दूसरे के हिस्से का अवशेष जीवन
लेकिन किसी का जीवन छीन लेने से
आज तक किसी की उम्र बढ़ते नहीं देखी
बल्कि दूसरों का निवाला छीनकर खाने वालों को
भरे पेट अपच और अनिद्रा का शिकार हो
कुछ जल्दी ही मरते हुए देखा है यहाँ.

मुझे पता है कि
जीवन पोर - पोर कुँचियाता है कभी - कभी
महुए के पेड़ जैसा
कभी - कभी वह अतिरेक से भरकर फूलता - फलता है
सहजन के पेड़ जैसा
अपने ही बोझ से भरभराकर ढह जाने के लिए
लेकिन गरीब का जीवन तो हमेशा ही सूखता रहता है
जड़ों में मट्ठा डाले गए पेड़ की भाँति

मुझे पता नहीं कि कैसे
सूखा हुआ पेड़ भी अचानक
बरसात का मौसम आते ही
धरती के गर्भ में छिपी
अपनी किसी ज़िंदा बची हुई जड़ के सहारे
चूसकर नमी और पोषक तत्व
फिर से सजाने लगता है
हरी - हरी पत्तियाँ अपनी शाखाओं पर.

मुझे लगता है कि
मरना जीवन की अनिवार्यता है
और उम्मीदों को जीवित रखना ही उसका संकल्प
फिर क्यों न सबको जीने दिया जाय
अपने - अपने हिस्से का जीवन भरपूर तरीके से
और सबकी उम्मीदों को जीवित रहने दिया जाय
मरने की अनिवार्यता के बीच भी
जीवन के बचे रहने की संभावना की तलाश करने के लिए.

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