आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 30, 2014

ख़तरा (2014)

ख़तरा जैसे - जैसे बढ़ता जा रहा है
आस - पास का शोरगुल भी बढ़ता जा रहा है
आवाज़ें ठीक से सुनाई नहीं देतीं
शब्दों के अर्थ अस्पष्ट होते जा रहे हैं
बस कुछ चीखों की आवाज़ - सी उभरती है नेपथ्य से

धरती के भीतर ही भीतर खौल रहा लावा
करुणा की नदी के बीच
मनोरंजन के लिए स्थापित
संगीतमय फव्वारे से फूटकर
फिज़ा को बदल देने की तैयारी में है
इस बदलाव के वक़्त गूँजने वाला संगीत
कैसा होगा,
यह सोचने की
अभी कोई जरूरत नहीं महसूस हो रही

स्पष्ट है कि यह एक ऐसा ख़तरा है
जो कई और ख़तरों को जन्म देने की तैयारी में है
और हमें उन सारे ख़तरों से जूझने के लिए
इस बढ़ते जा रहे शोरगुल को शान्त को देने वाली

किसी असरदार आवाज़ के बुलन्द होने की प्रतीक्षा है।

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