आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

लट्ठम - लट्ठा (2012)

लट्ठम - लट्ठा  जारी है,
कवियों की बीमारी है।

उसकी कविता कूड़ा - करकट,
इसकी सब पर भारी है।
उसकी सतसैया के दोहे,
इसकी छौंक उधारी है।

उसकी बंदिश, इसकी बंदिश,
लगता कुछ सरकारी है।
सोचा था आकाश खुला है,
किन्तु गुफा अँधियारी है।

सदाशयी धोबी के गदहे,
इनकी अश्व - सवारी है।
पीकदान या कूड़ादानी,
जो भी कह लें, यारी है।

जिसके भीतर कुलबुल होती,
उसका लिखना जारी है।
फेसबुकी दीवार निजी है,
निजता की हक़दारी है।

फेंकें, पढ़ें, बाँट लें, लूटें,
सब इसके अधिकारी है।
लेकिन सबकी वाट लगाएँ,
यह अजीब रंगदारी है!

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