आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Friday, December 26, 2014

नई पीढ़ी के लिए (26-11-2014, मसूरी)

हम जब से यहाँ आए हैं
नए बैच के अधिकारियों से 
थोड़ा सा मिले और ज्यादा सकुचाए हैं,

वैसे तो अकादमी में आना ही
पुरानी यादों में खो जाने को मजबूर कर देता है
लेकिन जब युवा अधिकारियों का बैच भी यहाँ होता हैं
तो वह हमारे दिलों के नोस्टाल्जिया को दुगुना कर देता हैं

हम उन्हें देखकर कभी तो
अपने गुजरे हुए वक़्त को याद करते हैं
और कभी उनकी सपनीली आँखों में
आने वाले कल का अक्स खोजते हैं

वैसे तो हम अनाड़ी थे
फिर भी बड़े खिलाड़ी थे
न कम्प्यूटर, न लैपटॉप,
न आइपैड, न इंटरनेट,
न फेसबुक, न सेल फोन,
न पॉवर प्वाइंट, न इंडिया डे,
न लाउन्ज था, न जिम थे,
ना तो हम स्पाइकी थे, न इनके जैसे ट्रिम थे
साइकिल से लाइब्रेरी, कुलरी तक जाते थे
साइकिल से ही कंपनी बाग होकर चले आते थे,
प्रेमियों के भी होते थे कैसे - कैसे देशी लुक,
अपनी महायात्रा के हम ही थे कैप्टेन कुक,

आज के ओटी हमें
लगते होनहार हैं
काबिल हैं, तेज हैं,
बड़े ही कलाकार हैं,
टेक्नोलॉजी वाले हैं, बड़े स्वप्न पाले हैं,
दिलों की दुनिया में भी बड़ी स्पीड वाले हैं
हमारी तरह पोलो ग्राउन्ड, वेवर्ली, माल रोड जाते हैं
लेकिन फेसबुक, व्हाट्स अप, ट्विटर पर भी रोज़ नए गुल खिलाते हैं
प्रेशर इन पर ज्यादा है,
अकादमी का जाने क्या इरादा है,
मगर हम बुजुर्गों का इनसे वादा है,
जो अकादमी नहीं बताएगी, हम तुम्हें बता देंगे
जो अकादमी नहीं सिखाएगी, हम तुम्हें सिखा देंगे,

बस ये याद रखना कि तुम्हें जिन मंजिलों को पाना है
हमारा भी इरादा उनको तुम्हारे करीब लाना है,
हम उसी राह के दशरथ मांझी हैं यारों,
जो तुम्हें पार करा देगी मुश्किलों के पहाड़,
चलो हाथ मिलाओ, कि हम यहाँ मिले और खूब मिले,

चलो कदम बढ़ाओ कि ये चमन खिले और खूब खिले।

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